Thursday 25 April 2019

न्यायपालिका में भी स्वच्छता अभियान की जरूरत

जिस तरह किसी के चरित्र के बारे में सब जानते हुए भी कुछ कहने से बचा जाता है ठीक वैसे ही हमारे देश में न्यायपालिका के प्रति इतना ज्यादा सम्मान और लिहाज  है कि उसकी विसंगतियों और विकृतियों के बारे में काफी कुछ जानते हुए भी जुबान बंद रखे जाने की परिपाटी चली आ रही है। यही वजह है कि गत वर्ष की शुरुवात में ही जब सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों ने उस समय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के विरुद्ध बगावती अंदाज में पत्रकार वार्ता बुलाकर मोर्चा खोला तब भूचाल सा आ गया। मिश्र जी तो सेवा निवृत्त हो गये और उन चार न्यायाधीशों में से भी तीन पेंशनर बनकर घर बैठ गये लेकिन उस मुहिम की अगुआई करने वाले रंजन गोगोई वर्तमान में मुख्य न्यायाधीश हैं। बीते सप्ताह उन पर एक महिला ने यौन शोषण का आरोप लगाकर सनसनी मचा दी थी। उस आरोप की जाँच के तरीके और श्री गोगोई की प्रतिक्रिया को लेकर काफी आलोचनात्मक टिप्पणियाँ हुईं लेकिन वह आरोप तो अपनी जगह धरा रह गया और सर्वोच्च न्यायालय के एक अधिवक्ता ने खुलकर आरोप लगा दिया कि श्री गोगोई पर लगाया गया आरोप किसी बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है जिसके पीछे किसी कार्पोरेट घराने का हाथ है। दूसरी तरफ आरोप लगाने वाली महिला ने न्यायाधीशों की उस पीठ के एक सदस्य की निष्पक्षता पर ही ये कहते हुए  सवाल खड़े कर दिए कि वे श्री गोगोई के काफी निकट हैं और नियमित उनके घर आते-जाते रहते हैं। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय में उस वकील के आरोपों को लेकर गर्मागर्म बहस हुई जिसने न्याय की सर्वोच्च आसंदी में फिक्सिंग जैसे संदेह को चर्चा का विषय बना दिया। प्रकरण अभी प्रारम्भिक स्तर पर है इसलिए किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना तो जल्दबाजी होगी लेकिन जिस तरह की बहस उक्त अधिवक्ता और अटार्नी जनरल के बीच हुई उससे एक बात तो समझ में आ रही है कि न्यायपालिका को लेकर दबी-छुपी रहने वाली तमाम बातें अब पर्दे से बाहर आने के लिए बेताब हैं। न्यायपालिका में उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार होता है ये कहने का साहस डंके की चोट पर तो कोई नहीं  कर सकेगा लेकिन बीते दो-तीन दिनों से जो कुछ छन-छनकर बाहर आया है उससे ये संदेह तो मजबूत हुआ ही  कि भले ही पूरी दाल काली नहीं  हो लेकिन उसमें कुछ  न कुछ काला तो अवश्य है। अभी तक ये होता आया है कि न्यायाधीशों और न्यायपालिका की पवित्रता पर संदेह व्यक्त करने वाले को ये कहकर डांट दिया जाता था कि ऐसी बात नहीं करते। न्यायपालिका में फिक्सिंग होती है या नहीं ये तो उसे करने वाले ही बता सकेंगे लेकिन अभिनेता सलमान खान को सजा मिलने के बाद देर शाम को ऊँची अदालत के न्यायाधीश जमानत देने के लिए इंतजार करते  बैठे रहें, तब कहने वालों को मौका मिल ही जाता है। बड़े से बड़े वकीलों के मुंह से पक्षकार को जब ये सलाह दी जाती है कि मामला पेश करने के लिए थोड़ा रुक जाएं क्योंकि बैंच बदलने वाली है तब उसका भावार्थ कानून नहीं जानने वाला भी आसानी से समझ लेता है। श्री गोगोई की चरित्र ह्त्या करने वाली महिला के चरित्र को लेकर भी जवाबी दावे हुए हैं। उस कोशिश में न्यायपालिका के कुछ कर्मचारियों की भूमिका भी जानकारी, में लाई गयी है। पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ  से आक्रमण और बचाव भी शुरू हो चुका है। लेकिन इस समूचे  विवाद में अभी तक राजनीतिक हस्तियों का रूचि नहीं लेना भी अचरज भरा है। मान भी लें कि सभी लोकसभा चुनाव में व्यस्त हैं किन्तु जब बात न्यायपालिका की स्वतंत्रता से बढ़कर उसकी  पवित्रता और मुख्य न्यायाधीश के चरित्र तक जा पहुँची हो तब राजनीतिक बिरादरी पूरी तरह उससे निर्लिप्त बनी रहे ये भी रहस्यमय है। श्री गोगोई ने आरोप लगते ही कुछ महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई से उन्हें रोके जाने की जो बात कही थी वह बेहद महत्वपूर्ण है। उसका खुलासा होना चाहिए कि वे कौन सी ताकतें या लोग हैं जो उनका रास्ता रोकने का प्रयास कर रहे हैं। जिस अधिवक्ता ने कार्पोरेट घराने पर आरोप लगाया है उससे सर्वोच्च नायायालय ने जो सबूत मांगे हैं उन्हें फिलहाल गोपनीय रखने की बात कही जा रही है जिससे कि अन्य जरूरी साक्ष्य नष्ट न किये जा सके। लेकिन जब बात इतनी आगे बढ़ चुकी हो तब देश के राष्ट्रपति से भी अपेक्षा की जाती है कि वे संविधान के मुखिया और संरक्षक होने के नाते इस प्रकरण में रूचि लेते हुए न्यायपालिका के भीतर आ रही गंदगी हटाने स्वच्छता अभियान जैसी कोई मुहिम चलायें। राष्ट्रपति चूँकि स्वयं भी सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहे हैं इसलिए वहां की अच्छाई-बुराई दोनों से बखूबी परिचित होंगे। ये प्रकरण अब श्री गोगोई पर लगे यौन शोषण के आरोप से आगे बढ़कर न्यायपालिका में फिक्सिंग जैसी बातों तक आ पहुंचा है। वैसे भी आम जनता के मन में न्यायपालिका के प्रति पहले जैसा सम्मान नहीं रहा। इसकी वजह बताने की जरूरत नहीं है। जबलपुर उच्च न्यायालय से सेवा निवृत्त एक न्यायाधीश हाल ही में सवालों के घेरे में आ गये। उन्होंने जिस महिला को न्यायाधीश रहते हुए एक जघन्य अपराध के लिए दंडित किया था उसी के बचाव में वे सर्वोच्च न्यायालय में बतौर अधिवक्ता खड़े हुए और अपनी दलीलों से उसे राहत दिलवा दी। वकीलों के ही किसी संगठन ने उनके इस दोहरे आचरण को नैतिकता के विरुद्ध मानते हुए उनको वकालत करने से रोकने की आवाज भी  उठाई। उल्लेखनीय है इन न्यायाधीश महोदय पर भी न्यायाधीश रहते हुए यौन शोषण का आरोप लगा था जो जाँच में सबित नहीं हो सका। इस तरह के वाकये न्यायापालिका में आम होने लगे हैं । इसलिए रंजन गोगोई पर लगे आरोप के सिलसिले में जो कुछ भी कहा और सुना जा रहा है उसे अंजाम तक पहुँचाया जाना जरूरी है। सर्वोच्च न्यायालय के प्रति सम्मान व्यक्त करना हर छोटे बड़े नागरिक का कर्तव्य है लेकिन ये तभी तक संभव है जब तक न्यायाधीश गण पंच परमेश्वर की अपनी छवि को सुरक्षित रखें।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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