Wednesday 3 April 2019

अफस्पा और देशद्रोह कानून से छेड़छाड़ घातक

कांग्रेस  ने लोकसभा चुनाव हेतु अपना घोषणापत्र जारी कर दिया। इसमें परम्परागत मुद्दे ही नये आवरण में पेश किये गए हैं। लगभग प्रत्येक पार्टी मतदाताओं को लुभाने के लिए हरसंभव ऐसी ही बातें करती है। चूँकि घोषणापत्र के वायदे  पूरे करने की कोई कानूनी बंदिश नहीं होती इसलिए उसमें आसमान से तारे तोड़कर लाने जैसी बातें बेहिचक समाहित कर दी जाती हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी उस दृष्टि से जो घोषणापत्र गत दिवस जारी किया उसमें किये गये वायदों को पूरा करने के बारे में किसी भी प्रकार की गारंटी का तो कोई प्रश्न नहीं है। कांग्रेस ने किसानों, विद्यार्थियों, महिलाओं, छोटे व्यवसायियों सहित समाज के सभी वर्गों को लुभाने का प्रयास किया है। इसमें से कुछ वायदे पुराने हैं तो कुछ पूरी तरह नए। लेकिन कुछ बातें  ऐसी हैं जो चिंताजनक हैं। ऐसा लगता है घोषणापत्र बनाने वाली टीम ने महज वोटों की लालच में देश की सुरक्षा के प्रति लापरवाही बरती। जम्मू कश्मीर सहित देश के अनेक पूर्वोत्तर राज्यों में लागू अफस्पा (सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम) की समीक्षा करने के साथ ही देशद्रोह कानून को खत्म करने जैसे वायदे भले ही आम जनता की समझ में न आ रहे हों लेकिन इनके दूरगामी प्रभाव देशहित के विरुद्ध ही होंगे। उल्लेखनीय है जिन राज्यों में अफस्पा लागू है वहां सेना और बाकी सुरक्षा बलों को कतिपय विशेष अधिकार दिए गए हैं ताकि वे अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों के साथ सख्ती से निपट सकें। इसी तरह देशद्रोह के कानून का इस्तेमाल बहुत ही विशेष स्थितियों और प्रकरणों में होता है। इन दोनों को लेकर कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में जो कुछ भी कहा वह पूरी तरह से गैर जरूरी और देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक है। जहां तक अफस्पा के दुरूपयोग की बात है तो अपवादस्वरूप ऐसे कुछ मामले हुए तो खुद सेना और न्यायपालिका ने उनका संज्ञान लेते हुए समुचित कदम उठाकर दोषी को दण्डित करने में कोई कोताही नहीं की। हालाँकि इसका भी काफी विरोध हुआ क्योंकि अलगाववादी तत्वों के विरुद्ध सख्ती बरतते  समय कई मर्तबा ऐसा कुछ हो गया जो असामान्य था किन्तु उस स्थिति में सैन्य बल के सम्बंधित व्यक्ति की मनोदशा का भी ख्याल रखा जाना चाहिए था जो अत्यंत विषम परिस्थितियों में देश की अखंडता और सुरक्षा की खातिर दिन रात तकलीफें सहता है। जिन राज्यों में अफस्पा लागू है उनमें कुल मिलाकर 50 लोकसभा सीटें भी नहीं आतीं। ऐसे में उसकी समीक्षा करने जैसा वायदा केवल अलगाववादियों के तुष्टीकरण की कोशिश ही कही जा सकती है। इसी तरह देशद्रोह कानून को खत्म करने का वायदा भी एक राष्ट्रीय पार्टी से पूरी तरह अनपेक्षित है। ये कानून अंग्रेजों के ज़माने से चला आ रहा है। आज़ादी के सत्तर साल बाद कंग्रेस को अचानक याद आया कि इसका दुरूपयोग रोकने के लिए इसे खत्म कर दिया जाए। प्रश्न ये है कि क्या देशद्रोह के लिए कड़े दंड की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए? यदि मौजूदा कानून में कुछ विसंगतियां हैं तब उन्हें दूर करने का प्रयास तो अवश्य होना चाहिए। लेकिन महज इसलिए कि मौजूदा केंद्र सरकार ने ऐसे कुछ लोगों पर इस कानून के तहत मुकदमा चला रखा है जो कांग्रेस के अनुकूल हैं, उस कानून को खत्म करने जैसा वायदा देश के लिए बहुत ही घातक है। देश की न्यायपालिका इतनी सक्षम और निष्पक्ष है कि किसी भी बेगुनाह को बेवजह दंडित नहीं किया जा सकता। जघन्य से जघन्य अपराध करने वाले को भी न्यायिक अपील का पूरा अधिकार है वरना निर्भया कांड के दोषियों और भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे लगाने वालों को दिल्ली के लालकिले में सार्वजानिक रूप से फांसी पर टांग दिया गया होता। चंद बेहद गैर जिम्मेदार और उद्दंड लोगों के साथ ही देश की अखंडता में अविश्वास व्यक्त करने वालों के विरुद्ध यदि देशद्रोह कानून के तहत कार्रवाई नहीं की जायेगी तो ऐसा करने वालों का हौसला और बुलंद होता चला जाएगा। कांग्रेस को अचानक ऐसा क्यों लगने लगा कि देशद्रोह कानून को खत्म करना जरूरी है? 1947 से 1977 तक वह लगातार केन्द्रीय सत्ता में रही। लेकिन तब उसके दिमाग में ऐसा विचार कभी  नहीं आया। 1975 में इन्दिरा जी ने अपनी गद्दी बचाने के लिए समूचे विपक्ष को जेल में ठूंस दिया था। जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी सरीखे वयोवृद्ध गांधीवादी नेताओं को देश की सुरक्षा के लिए खतरे के नाम पर सलाखों के पीछे धकेल दिया गया । 1980 से 1985, 1991 से 1996 और 2004 से 2014 तक कांग्रेस फिर केंद्र की सत्ता में रही लेकिन उस समय भी उसे अफस्पा हटाने और देशद्रोह कानून खत्म करने का ध्यान नहीं आया। बीते पाँच वर्ष के दौरान उपद्रवग्रस्त राज्यों में सैन्यबलों को देशविरोधी तत्वों के विरुद्ध सख्ती से निपटने की जो छूट दी गई उसके अनुकूल परिणाम आये हैं। अलगाववादियों की कमर पर तगड़े प्रहार से उनका नेटवर्क  कमजोर पड़ा है। वहीं देश के भीतर रहकर देश के विरुद्ध आवाज उठाने वालों की गर्दन में फंदा कसा है। इसके विरुद्ध असहिष्णु लॉबी के पेट में दर्द होना तो स्वाभाविक है लेकिन कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी जिसके नेतृत्व में आज़ादी हासिल किये जाने के दावे होते हैं, वह देशविरोधी ताकतों के विरुद्ध कड़े कदम उठाने से पीछे हटने की बात अपने घोषणापत्र में कहे ये समझ से परे है। ऐसा लगता है अलगाववादियों और शहरी नक्सलियों के नुमाइंदे छद्म भेष में कांग्रेस की विचार प्रक्रिया को निर्देशित और नियंत्रित कर रहे हैं। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि राहुल गांधी ने खुद अपनी पार्टी के घोषणापत्र के इन बिन्दुओं को गम्भीरता से नहीं पढ़ा। चुनावी घोषणापत्र भले ही ऐसे वायदों का पिटारा बन गया हो जिन्हें पूरा करना कानूनी रूप से जरूरी नहीं माना जाता लेकिन उसका ये मतलब भी नहीं कि उसमें ऐसी बातें शामिल कर दी जावें जिनसे देश की सुरक्षा और अखंडता पर बुरा प्रभाव पडऩे के साथ ही देशविरोधी ताकतों का मनोबल उंचा हो।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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