Tuesday 2 April 2019

रोजगार : विसंगतियों और विरोधाभासों में फंसा मुद्दा

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने वायदा किया है कि सत्ता में आते ही वे साल भर के भीतर केंद्र सरकार के खाली पड़े 22 लाख पद भर देंगे। मोदी सरकार पर उनकी पार्टी द्वारा किये जाने वाले हमलों में 2 करोड़ रोजगार प्रति वर्ष दिये जाने वाले वायदे को पूरा न करना भी होता है।  कांग्रेस ही नहीं बाकी विपक्षी पार्टियां भी आरोप लगाती हैं कि वर्तमान सरकार के राज में रोजगार घटे हैं। बीते दिनों आये एक आंकड़े के अनुसार तो बेरोजगारी सर्वकालीन उच्चतम स्तर पर जा पहुंची है। सतही तौर पर देखें तो इसमें सच्चाई लगती भी है। शायद इसी को भांपते हुए श्री गांधी ने न्याय योजना शुरु करने का वायदा भी चुनावी मैदान में उछाल दिया जिसके अनुसार प्रत्येक गरीब परिवार को प्रति माह 12 हजार रु. की न्यूनतम आय सुनिश्चित करने के उद्देश्य से सरकार प्रतिवर्ष 72 हजार तक का अनुदान देगी। यद्यपि इस घोषणा का जो विश्लेषण हो रहा है उसके अनुसार खुद राहुल इसको अमल में लाने के तौर तरीकों को स्पष्ट नहीं कर सके। उस आधार पर जिसे इस चुनाव का गेम चेंजर कहा जा रहा है वह आत्मघाती भी हो सकता है। मोदी विरोधी कहे जाने वाले तमाम अर्थशास्त्री और पत्रकार भी ये मान रहे हैं कि 72 हजार का लालीपॉप मतदाताओं के दिमाग में आसानी से घुस नहीं पायेगा क्योंकि उसकी तकनीकी बातों का खुलासा अब तक नहीं हो सका। पूर्व वित्तमंत्री पी चिदम्बरम को मीडिया के सामने भेजा गया और उनने काफी ज्ञान भी बघारा लेकिन वे भी उन भ्रांतियों का निवारण ठीक तरह से नहीं कर सके जो लोगों के मन-मस्तिष्क में तैर रही हैं। बहरहाल बेरोजगारी को लेकर जो बहस और आरोप-प्रत्यारोप चल रहे हैं उनके परिप्रेक्ष्य में इतना तो कहा ही जा सकता है कि बेरोजगारी को लेकर स्थिति स्पष्ट नही है। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि बेरोजगार की परिभाषा भी तय नहीं हो पा रही। सरकार के रोजगार कार्यालय में दर्ज आंकड़ों में लाखों ऐसे नाम भी दर्ज हैं जो वास्तविकता में तो 12 हजार की न्यूनतम आय के दायरे में आते हैं लेकिन सरकारी नौकरी की चाहत में बेरोजगारों की सूची में भी अपना नाम लिखवाये बैठे हैं। अर्थशास्त्रियों के एक समूह ने जो जानकारी पेश की वह चौंकाने वाली है। एक सर्वेक्षण में पाया गया कि शहर में पान की दुकान, चाट का ठेला, छोटी किराना दूकान जैसे व्यवसायों के जरिये स्वरोजगार से जुड़े अनगिनत लोग भी बेरोजगारों के आंकड़ों में शरीक हैं। चूँकि वे हाई स्कूल या स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त हैं इसलिए शिक्षित बेरोजगार की श्रेणी में आते हैं। अभी हाल ही में एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने बेरोजगारी के आंकड़ों में अतिशयोक्ति का उल्लेख करते हुए कहा कि बीते पाँच वर्ष में देश में 40 हजार किलोमीटर सड़कें बनी। उनके आलावा पुल और फ्लाई ओवर जैसे अधो संरचना के प्रकल्पों पर भी तेजी से काम हुआ। इनमें करोड़ों श्रमिकों की जरूरत पड़ी लेकिन रोजगार के आंकड़ों में इनकी गिनती नहीं की जाती। विपक्ष इसे सरकारी सफाई मानकर हवा हवाई कर सकता है लेकिन रोजगार को लेकर एक विरोधाभासी स्थिति भी बनी हुई है। मसलन चाहे ग्रामीण इलाके हों या शहरी क्षेत्र सभी जगह काम करने वालों का टोटा पड़ गया है। भारत में केवल उच्च आयवर्गीय तबका ही नहीं अपितु शहरी मध्यमवर्गीय परिवारों में भी घरेलू नौकर रखने का चलन तेजी से बढ़ा है। विशेष रूप से महिलाओं के लिए इस क्षेत्र में काफी रोजगार के अवसर हैं। लेकिन लगभग प्रत्येक मध्यमवर्गीय परिवार घरेलू नौकर की कमी की शिकायत करता मिल जाएगा। यही स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों में है जहां खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिलते। इसके लिए कोई मनरेगा जैसी योजना को दोष देता है तो कोई मुफ्त में मिलने वाले खाद्यान्न को। ये बात तो सही है कि मशीनों के आने से मानव श्रम की जरूरत कम हुई है और सरकारी नीतियों की वजह से भी भर्ती घटी है लेकिन निजी क्षेत्र में स्वरोजगार का क्षेत्र इतना व्यापक और सम्भावना भरा है कि कोई भी व्यक्ति जो मेहनत करने को तत्पर हो वह अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर सकता है। लेकिन मुफ्तखोरी ने काम करने की प्रवृत्ति को ही निरुत्साहित कर दिया। रोजगार का अर्थ केवल सरकारी नौकरी मान लिए जाने से भी विसंगतियां पैदा हुईं। समाज के जिस वर्ग के पास हुनर और जन्मजात रोजगार की गारंटी थी उसे आरक्षण रूपी मृग-मरीचिका में फंसाकर सरकारी नौकरी का इन्तजार करते हुए निठल्ला बैठे रहने की तरफ  धकेल दिया गया। सामाजिक व्यवस्था में सुनिश्चित रोजगार की जो प्रणाली थी उसमें समयानुकूल सुधार और संशोधन तो ठीक थे किन्तु उसे पूरी तरह से नष्ट कर देने का दुष्परिणाम ही इस विरोधाभास के तौर पर सामने आया है कि एक तरफ  तो बेरोजगारी के आंकड़े आसमान छू रहे हैं और दुसरी तरफ  ढूंढने पर भी काम करने वाले नहीं मिलते। ऐसे में राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी बनती है कि वे बेरोजगारी दूर करने के स्थायी उपाय देश के सामने रखें। केवल चुनाव जीतने के लिए बांटी जाने वाली खैरात की वजह से देश अजीबोगरीब स्थिति में फंसता जा रहा है। करोड़ों की आबादी को बैठे-बैठे खिलाते रहने की राजनीतिक संस्कृति पर विराम नहीं लगा तब बड़ी बात नहीं आने वाले कुछ साल बाद भारत में भी वही हालात उत्पन्न हो जायेंगे जो आज से पचास-साठ वर्ष पूर्व चीन में थे जिसे अफीमचियों का देश कहा जाने लगा था। काम करने के इच्छुक व्यक्ति को काम देना समाज और सरकार की जिम्मेदारी है लेकिन निकम्मे इंसान पर दया करना उसके साथ खिलवाड़ तो है ही देश के दूरगामी हितों के भी विरुद्ध है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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