Tuesday 16 April 2019

सरकार की चिंता सबको संस्कार की किसी को नहीं


चुनाव आयोग ने कुछ नेताओं पर दो-तीन दिनों तक चुनाव प्रचार करने पर रोक लगा दी है। इनमें से अधिकतर उप्र के ही हैं। उनका कसूर सार्वजनिक रूप से आपत्तिजनक बातें कहना बताया गया है। उधर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना में उलझ गए हैं। बीते सप्ताह राफेल मामले में न्यायालय के एक फैसले पर प्रधानमंत्री के बारे में अप्रासंगिक टिप्पणी करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने उनको कारण बताओ नोटिस भेजकर पूछा है कि जो उसने कहा ही नहीं उसे श्री गांधी ने कैसे उद्दृत कर दिया? सबसे ज्यादा बवाल मचा गत गत दिवस उप्र के पूर्व मंत्री और रामपुर से सपा प्रत्याशी आज़म खान द्वारा भाजपा की प्रत्याशी जयाप्रदा के बारे में की गयी बेहद निम्नस्तरीय टिप्पणी को लेकर। उसका हल्ला शांत हो पाता उसके पहले ही हिमाचल के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने किसी की सोशल मीडिया पोस्ट को सार्वजानिक मंच से पढ़कर सुना दिया जिसमें राहुल गांधी के लिए मां की गाली का प्रयोग किया गया था। मायावती, मेनका गांधी और योगी आदित्यनाथ पर प्रचार नहीं करने की जो बंदिश चुनाव आयोग द्वारा लगाई गई उसके पीछे तो सांप्रदायिक विद्वेष फैलाना माना गया लेकिन आजम खान ने जो कहा वह किसी भी स्तर पर क्षम्य नहीं है और हिमाचल के भाजपा अध्यक्ष ने तो हद ही कर दी अशालीनता की। उनके विरुद्ध भाजपा क्या कदम उठाती है ये अभी तक अज्ञात है। चुनाव आयोग भी कुछ न कुछ तो करेगा ही लेकिन प्रश्न उठ खड़ा होता है कि क्या यही लोकतंत्र है? चुनाव में विभिन्न मुद्दों को लेकर भावनात्मक उत्तेजना फैलाना नई बात नहीं है लेकिन व्यक्तिगत टिप्पणियों में शालीनता की हद पार कर जाना और सीधे-सीधे किसी को धमकाने जैसी बातें जिस तरह से बढती जा रही हैं उनसे लोकतंत्र को तो खतरा हो ही रहा है पूरा का पूरा सार्वजानिक विमर्श ही पटरी से उतरता नजर आने लगा है। प्रजातंत्र एक सभ्य समाज की व्यवस्था है जिसमें विभिन्न विचारधारा वाले लोग जनता के पास जाकर समर्थन मांगते हैं। इस दौरान अपने विरोधी की नीतियों की आलोचना भी सामान्य बात है क्योंकि मतदाता के पास चयन का आधार भी प्रत्याशी और उसके दल की नीति और सिद्धांत ही होते हैं। कुछ ऐसे भी प्रत्याशी होते हैं जिनका कोई दल नहीं होता लेकिन अपने व्यक्तित्व और जुझारूपन के कारण वे जनता द्वारा पसंद किये जाते हैं। संसद और विभिन्न विधानसभाओं में अनेक ऐसे जनप्रतिनिधि चुनकर आते रहे हैं जो बिना किसी पार्टी का सहारा लिए भी लम्बे समय तक न सिर्फ  राजनीति करते रहे अपितु सम्मान के पात्र भी बने। हालाँकि बीते कुछ दशक में कतिपय धनकुबेर और बाहुबली किस्म के लोग भी धन और रौब के बल पर माननीय सांसद और विधायक बन बैठे। राज्यसभा की सदस्यता के लिए किस तरह विधायकों की खरीद फरोख्त होने लगी है ये किसी से छिपा नहीं है। कुल मिलाकर ऐसा लगने लगा कि समूची लोकतान्त्रिक प्रक्रिया एक व्यवसाय बन गयी जिसमें सेवा की जगह निजी स्वार्थ और किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करने का जुनून हावी होता चला गया। नेताओं के बिकाऊ हो जाने से नीतियाँ और सिद्धांत पहले संग्रहालय की शोभा बने और अब कबाडख़ाने के किसी कोने में पड़े नजर आते हैं। रातों रात दल ही नहीं दिल भी बदल लेने वालों के हाथ में लोकतंत्र आ जाने से पहिचान का संकट भी खड़ा हो गया है। पहले किसी नेता का नाम लेने मात्र से एक विचारधारा और उससे जुड़ी नीतियों तथा सिद्धांतों का आभास होने लगता था किन्तु आज के दौर की राजनीति में सुबह और शाम के बीच सब कुछ बदल जाता है। भिंड के वर्तमान सांसद भागीरथ प्रसाद को 2014 में  कांग्रेस ने अपनी टिकिट दी लेकिन दूसरे दिन वे भाजपा में शामिल हो गए और चुनाव जीतकर लोकसभा में जा पहुंचे। मौजूदा चुनाव के दौरान भी टिकिट कटते ही ऐसे-ऐसे नेता  पाला बदलने पर आमादा हैं जिनकी पहिचान और सम्मान उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण होता था। ऐसा किसी एक पार्टी में नहीं अपितु सभी में होने लगा है। लगभग हर पार्टी ने केवल चुनावी जीत को अपना उद्देश्य बना लिया है। यही वजह है कि मान-मर्यादा, शर्म-लिहाज, गरिमा-शालीनता जैसे गुण सूखे पत्तों की तरह उड़कर बिखर गए और उनकी जगह उन सभी दुर्गुणों ने ले ली जिन्हें कोई साधारण सोच वाला व्यक्ति भी पसंद  नहीं करेगा। चुनाव आयोग की अपनी सीमायें हैं। इसलिए वह डांट फटकार से ज्यादा कुछ नहीं कर सकता। प्रचार करने पर कुछ दिनों का प्रतिबन्ध कक्षा में शैतानी करने वाले छात्र को कुछ देर के लिए बाहर खड़े रहने की सजा देने जैसा ही है। आज़म खान की आपत्तिजनक टिप्पणी का विरोध होने पर बड़ी संख्या उन लोगों की सामने आ गयी जो उनका सीधे-सीधे बचाव करने की बजाय ये याद दिलाने में जुट गए कि उनके पहले किस-किस नेता ने शब्दों की मर्यादा रेखा लांघी थी। इस तरह के प्रयास ही समूची लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को प्रदूषित करने के लिए जिम्मेदार हैं। ये उन अभिभावकों की तरह है जो अपने बच्चे की शिकायत आने पर बजाय उसके कान खींचने के ये साबित करने पर आमादा हो जाते हैं कि उनका बच्चा ऐसा कर ही नहीं सकता और दूसरे बच्चे इससे बड़ी गलतियाँ करते रहे हैं। ये दुर्भाग्य है कि सत्तर साल बीत जाने के बाद भी हमारा लोकतंत्र परिपक्वता की स्थिति को नहीं छू सका बल्कि उसके विपरीत वह दिन ब दिन उद्दंड और गैर जिम्मेदार होता जा रहा है। राजनीतिक दल चूँकि विचारधारा के संवाहक बनने की बजाय चुनाव जीतने वाले गिरोह बन गये हैं इसलिए उनसे किसी भी प्रकार की अपेक्षा करना व्यर्थ लगता है। सभी पार्टियों और नेताओं की रूचि केवल और केवल सरकार में रह गई है। रही बात संस्कार की तो उनकी हालत रस्ते का माल सस्ते में से भी बदतर हो गई है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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