Monday 1 April 2019

वामपंथियों के मकड़ज़ाल से बचे कांग्रेस

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा उप्र की पुश्तैनी सीट अमेठी के साथ ही केरल की वायनाड सीट से भी लडऩे की अनिश्चितता पर गत दिवस विराम लग गया जब पार्टी की ओर से इस बारे में अधिकृत घोषणा कर दी गयी। भाजपा इसे लेकर ये हल्ला मचा रही है कि श्री गांधी अमेठी में हालत पतली  होने की वजह से वायनाड से भी चुनाव लडऩे जा रहे हैं। उसकी बात को इसलिए बल मिला क्योंकि 2014 में उनकी जीत का अंतर इस सीट पर तीन से घटकर मात्र एक लाख रह गया था।  इससे भी बड़ी चीज ये बताई जा रही है कि गत चुनाव में पराजित भाजपा प्रत्याशी और मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री स्मृति ईरानी ने  बीते पाँच वर्षों के दौरान अमेठी के निर्वाचित सांसद जैसी सक्रियता दिखाते हुए वहां की जनता से न केवल जीवंत सम्पर्क बनाये रखा अपितु विकास के अनेक कार्य करवाते हुए मतदाताओं पर छाप भी छोड़ी। उनकी सक्रियता के माध्यम से भाजपा अमेठी के लोगों को ये एहसास करवाने में कामयाब रही कि राहुल जहां उन्हें घर की मुर्गी समझकर चलते हैं वहीं स्मृति ने हारने के बाद भी क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बनाये रखी। 2017 के उप्र विधानसभा चुनाव में अमेठी की अधिकतर सीटों पर भाजपा की जीत से श्री गांधी के मन में डर होना स्वाभाविक है।  यद्यपि राजनीति के जानकार मानते हैं कि ले देकर कांग्रेस अध्यक्ष जीत जायेंगे क्योंकि सपा-बसपा ने इस बार भी अपना उम्मीदवार वहां नहीं उतारा। बावजूद इसके श्री गांधी के वायनाड से  भी लडऩे के निर्णय ने भाजपा को हमलावर होने के साथ ही उनको चिढ़ाने का अवसर तो दे ही दिया जिसका पूरा-पूरा लाभ श्रीमती ईरानी उठाये बिना नहीं रहेंगी।  हालांकि इंदिरा जी और सोनिया गाँधी भी अतीत में रायबरेली के साथ ही दक्षिण भारत की सीटों से चुनाव लड़ चुकी हैं।  दूसरे कई बड़े नेता भी एक साथ दो सीटों से चुनाव लड़ते रहे हैं।  2014 में नरेंद्र मोदी ने वडोदरा और वाराणसी दोनों से किस्मत आजमाई वहीं मुलायम सिंह यादव ने भी आजमगढ़ के अलावा मैनपुरी से चुनाव लड़ा। उस दृष्टि से राहुल का वायनाड से भी लडऩा न तो अटपटा है और न अनुचित लेकिन राजनीतिक परिस्थितियों के चलते यदि उन पर अमेठी में हार के डर से दूसरी सीट से भी लडऩे का तंज कसा जा रहा है तब उसे भी पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता। भाजपा की प्रतिक्रिया इस सम्बन्ध में उसकी रणनीति के लिहाज से पूरी तरह से सही है लेकिन वायनाड से राहुल के उतरने की अधिकृत घोषणा होते ही वामपंथी दलों की तरफ  से जो प्रतिक्रिया आई वह जरूर चौंकाने वाली है।  केरल की वाम मोर्चा सरकार के मुख्यमंत्री विजयन ने अपनी तीखी टिप्पणी में कहा कि श्री गांधी यहाँ भाजपा नहीं बल्कि वाम दलों से लड़ेंगे। उधर सीपीएम के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने राहुल के वायनाड से लडऩे को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि वाम दल उन्हें हराने का पूरा प्रयास करेंगे।  सीपीआई के वरिष्ठ नेता डी. राजा ने भी कांग्रेस अध्यक्ष की वायनाड से उम्मीदवारी पर सवाल उठाते हुए इसे केरल में भाजपा की मदद करने वाला कदम बता दिया। यही नहीं वाम दलों की तरफ  से ये संकेत भी दिया गया कि इस निर्णय का असर भविष्य में  कांग्रेस और वाम दलों के सम्बन्धों पर भी पड़ सकता है।  संभवत: वामपंथी घुमा फिराकर कांग्रेस को चुनाव बाद त्रिशंकु लोकसभा की संभावित स्थिति में अपने समर्थन की अहमियत का एहसास करवाना चाह रहे हैं। उल्लेखनीय है पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान बंगाल में तो कांग्रेस और वामपंथियों के बीच ममता बैनर्जी के खिलाफ गठबंधन बना था किन्तु केरल में दोनों अलग-अलग लड़े तथा वामपंथियों ने कांग्रेस को हराकर सत्ता पर कब्ज़ा जमा लिया। आज की स्थिति में केरल ही अकेला राज्य बचा है जहां वामपंथी न सिर्फ  सत्ता में हैं अपितु लोकसभा की कुछ सीटें जीतने की स्थिति भी उनकी है।  हालाँकि यहाँ  रास्वसंघ के दम पर भाजपा भी तेजी से अपने पैर जमा रही है। पिछले चुनाव में तिरुवनंतपुरम सीट से कांगे्रस के शशि थरूर भाजपा से मात्र 15 हजार से जीत सके थे। लेकिन अभी भी मुख्य टक्कर वामपंथियों और कांग्रेस के बीच ही  है।  ये भी गौरतलब है कि इस लोकसभा चुनाव में बंगाल के भीतर कांग्रेस और वामपंथियों के बीच तालमेल नहीं बैठा जिससे दोनों अलग-अलग लड़ रहे हैं । इस वजह से भी दोनों के बीच दूरियां बढ़ी हैं। कांग्रेस का कहना है कि वायनाड से श्री गांधी को लड़वाकर वह एक तरफ  तो उनकी राष्ट्रीय नेता की छवि को स्थापित करना चाह रही वहीं इससे दक्षिण के शेष राज्यों में भी उसे मनोवैज्ञानिक लाभ मिलेगा। हालाँकि वायनाड में बीते दो लोकसभा  चुनावों से कांग्रेस का सांसद ही जीतता आया है लेकिन वामपंथियों को ये लग रहा है कि राहुल का केरल में चुनाव लडऩा भाजपा विरोधी मतों के विभाजन का कारण बन जाएगा। मुख्यमंत्री विजयन की नाराजगी भरी प्रतिक्रिया में भी यही कहा गया है कि श्री गांधी की वायनाड से उम्मीदवारी भाजपा की बजाय वाम मोर्चे के विरुद्ध समझी जायेगी। वैसे कांग्रेस के इस दांव का स्वागत होना चाहिए क्योंकि वामपंथियों का राजनीतिक दोगलापन उसके लिए सदैव घातक रहा है। पंडित नेहरु के ज़माने से ही वामपंथी कभी खुलकर तो कभी छद्म रूप से कांग्रेस को नियंत्रित और निर्देशित करते हुए राष्ट्रवादी ताकतों से दूर रखने में सफल होते रहे। राहुल गांधी के केरल से चुनाव लडऩे पर यदि वामपंथियों को नुकसान होता है तथा उसका आगामी चुनाव पर क्या असर पड़ेगा ये उतना महत्वपूर्ण नहीं लेकिन इससे मुख्यधारा की राजनीति को काफी ताकत मिलेगी। बंगाल और त्रिपुरा में सफाए के बाद केरल में भी यदि वामपंथियों की कमर टूटती हैं तब यह देश के दूरगामी हित में होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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