Saturday 30 March 2019

गनीमत है स्वर्ग की यात्रा का वायदा नहीं है

लोकसभा चुनाव में पहले चरण का मतदान शुरू होने के पहले राजनीतिक सरगर्मियां तेजी पर हैं। विरोधी पक्ष पर आरोप लगाने का प्रयास भी जमकर चल पड़ा है। सत्ता में बैठे लोग अपनी कामयाबियों का बखान करते नहीं थक रहे वहीं विपक्ष उन्हें नाकारा साबित करने पर आमादा है। इस खींचातानी में बहस का स्तर कितना गिर चुका है ये बताने  की बात नहीं है। बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं। वायदों के नये पहाड़ भी खड़े किये जा रहे हैं जिससे जनता अपनी बदहाली को भूलकर फिर सपनों के संसार में भटकने लगे। धरती से अन्तरिक्ष तक की चर्चाएँ हो रही हैं। घर बैठे गुलछर्रे उड़ाने के आश्वासन दिए जा रहे हैं। वो तो ये कहिये कि नेताओं का बस नहीं चल रहा वरना मुफ्त स्वर्ग की यात्रा का वायदा  भी चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया जा सकता है। लेकिन इस सबके बीच जो मूलभूत मुद्दे हैं उन पर बात करने से सभी कतरा रहे हैं। सामने वाले को सिर से पाँव तक कसूरवार और असफल साबित करने की प्रतिस्पर्धा तो चल रही है लेकिन खुद सत्ता में रहते हुए जनता की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल रहने के लिए खेद या क्षमा याचना करने की नैतिकता कोई  नहीं दिखा रहा। और यही वह  बात है जो समूची राजनीतिक प्रक्रिया पर अविश्वास करने को बाध्य कर  देती है। आज़ादी के 70 साल बाद भी देश के हर व्यक्ति को पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं होना क्या वह मुद्दा नहीं है  जिस पर चुनावी बहस का ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिये।  प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली राफेल घोटाले और अन्तरिक्ष में हासिल की गई मारक क्षमता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण विषय हैं। गरीबों को घर बैठे नकद खैरात दे देना और बेरोजगारों के सामने टुकड़े फेंककर वोट बटोरने जैसे तरीके अब उबाऊ लगने लगे हैं। आरक्षण से वंचित जातियों और उपजातियों को लालीपॉप भी झांसे जैसा हो गया है क्योंकि जब नौकरियों का टोटा पड़ा हो तब आरक्षण अर्थहीन  होकर रह जाता है। ये देखते हुए जरूरी है कि चुनाव उन मुद्दों पर लड़ा जावे जो आम जनता की समझ में आते हों। गरीबी हटाना सर्वोच्च  प्राथमिकता होनी चाहिए। बेरोजगारी दूर करना भी बेहद जरूरी है लेकिन पीने का पानी और प्राथमिक शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्तायुक्त  उपलब्धता भी वे विषय हैं जो चुनाव के अवसर पर प्रमुखता से राष्ट्रीय विमर्श में शामिल होने चाहिए। 1945 में परमाणु हमले में बर्बाद हो चुके जापान ने यदि विश्व की अग्रणी देशों में स्थान बना लिया तब बिना किसी बड़ी तबाही  के आजाद हुआ भारत सात दशक बाद भी विकासशील क्यों है इस प्रश्न का उत्तर प्रत्येक राजनीतिक दल से अपेक्षित है क्योंकि लगभग वे सभी किसी न किसी रूप में और कभी न कभी सत्ता से सीधे या परोक्ष तौर पर जुड़े रहे हैं। आश्चर्य की बात है किसी भी राजनीतिक दल की मुख्य कार्यसूची में शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी जैसे मुद्दे नहीं हैं जबकि देश की 90 फीसदी से ज्यादा जनता को सही मायनों में इनकी जरूरत है और इनके बिना आर्थिक प्रगति के तमाम आंकड़े अविश्वसनीय प्रतीत होते हैं। इस्रायल जैसा देश जो हर पल दुश्मनों से जूझता रहता है यदि रेगिस्तान में हरियाली पैदा कर सका लेकिन नदियों के जाल के बावजूद हमारे देश के गाँव तो छोडिय़े महानगर तक पेयजल के संकट से जूझने को मजबूर हैं। एक तरफ  तो शिक्षा के विश्वस्तरीय संस्थान खोलने के दावे हो रहे हैं वहीं दूसरी तरफ  बस्तियों के विद्यालयों को देखकर शर्म और दु:ख होता है। आज देश भर में आलीशान अस्पतालों की बाढ़ आ गई है लेकिन आम जनता  के लिए वे बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर वाली कहावत जैसे ही हैं। इसी तरह बड़े-बड़े धन्ना सेठों और नेताओं के पब्लिक स्कूल भी कोने कोने में खुल गये हैं लेकिन उनमें आम पब्लिक कहे जाने वाले साधारण हैसियत वाले परिवारों के बच्चों को पढऩे तो क्या घुसने तक की सहूलियत नहीं है। ऐसा ही विरोधाभास पीने के पानी को लेकर है। कुछ दशक पहले तक पेयजल का व्यापार इस देश के लिए एक अकल्पनीय विचार था लेकिन आज प्रतिदिन करोड़ों ही नहीं अरबों रु. का बोतलबंद पानी बिक रहा है। कई शहर ऐसे हैं जहां स्थानीय निकाय द्वारा दिया जाने वाला अथवा जमीन के नीचे का पानी पीने योग्य नहीं होने से हर घर को प्रतिदिन पेय जल खरीदना पड़ता है। वहीं शहरी बस्तियों के साथ  ही कस्बों और ग्रामीण इलाकों में पीने और दैनिक उपयोग के पानी की किल्लत दिन ब दिन बढती चली जा रही है। चुनावी घोषणापत्र में किये जाने वाले आसमानी वायदों से अलग हटकर बेहतर है इन जमीन से जुड़े मुद्दों पर कुछ ठोस बातें भी  की जायें तभी सही मायनों में चुनाव का जनता से सरोकार कहलायेगा वरना ये 543 सामंतों के चयन की प्रक्रिया बनकर रह गया। सही कहें तो मतदाता की स्थिति किसी रईसजादे की बरात में सिर पर गैस बत्ती लेकर चलने वाले उन गरीबों जैसी हो गयी है जो बारात लगते ही अँधेरे में अपने ठिकाने को लौट जाते हैं और जिन्हें लाखों रु. खर्च करने वाले एक गिलास पानी तक के लिए नहीं पूछते। अमेरिका के महान कहे जाने वाले राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए बनी शासन व्यवस्था कहा था किन्तु हमारे देश में इसका अर्थ जनता द्वारा नेताओं की और उन्हीं के लिए चुनी सरकार हो गया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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