Tuesday 26 March 2019

वोटों की सौदागरी देश को पड़ रही महंगी

गरीबों के फायदे के लिए किये जाने वाले कार्य का स्वागत होना चाहिए। 1971 में जब स्व. इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया तब देश भर में उनके प्रति अपार जनसमर्थन उमड़ पड़ा। यद्यपि वह नारा आज तक  हकीकत में तब्दील नहीं हो सका किन्तु 1969 के कांग्रेस विभाजन के उपरांत संकट में फंसी श्रीमती गांधी के लिए वह राजनीतिक चक्रवात में से सुरक्षित निकाल लाने वाली नाव की तरह साबित हुआ। 2009 में भी कांग्रेस ने किसानों के कर्जे माफ करने और मनरेगा जैसे दांव चलकर सत्ता हासिल कर ली। लेकिन गरीबी हटाओ के नारे से न तो गरीबी हटी, न ही कर्ज माफी से किसानों की बदहाली तथा मनरेगा से बेरोजगारी का खात्मा हो सका। इसकी साफ  वजह ये थी कि ऊक्त सभी का उद्देश्य केवल सत्ता हासिल करना था, व्यवस्था सुधारना कदापि नहीं। केवल कांग्रेस ही नहीं भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी ने भी वोट बैंक को साधने के लिए कई ऐसे वायदे किये जिनको पूरा करना मुश्कि़ल ही नहीं असम्भव है। क्षेत्रीय दलों की सरकारों ने तो चुनाव जीतने के लिए मिक्सी, टीवी से लेकर मंगलसूत्र जैसे उपहार देने तक का प्रपंच रचा। हालांकि अनेक ऐसी योजनाएं और कार्यक्रम भी शुरू हुए जिनसे समाज के साधनहीन वर्ग को राहत मिली लेकिन कालांतर में जाकर वे भी नौकरशाही के मकडज़ाल में फंसकर भ्रष्टाचार के शिकार होकर रह गए। यही वजह है कि हर चुनाव नए वायदों को साथ लेकर आता है। इसका ताजातरीन प्रमाण है गत दिवस कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा किया गया न्यूनतम आय का वायदा, जिसके तहत केंद्र में उनकी सरकार आने के बाद देश के 5 करोड़ गरीब परिवारों को प्रति वर्ष 72 हजार रु. आय की गारंटी दी जायेगी। इस वायदे की जो मोटी-मोटी बातें सामने आईं उनके मुताबिक जिस गरीब परिवार को कोई आय नहीं होती उसे साल में 72 हजार रु. सीधे बैंक खाते के जरिये दे दिए जाएंगे। लेकिन जिस परिवार को कुछ न कुछ कमाई होती होगी उसे उतना ही पैसा मिलेगा जिससे मासिक आय 12 हजार हो जाये। लेकिन ये राशि सालाना 72 हजार से ज्यादा नहीं होगी। इस हेतु पैसा कहां से आयेगा और गरीबों की आय का निर्धारण किस प्रकार होगा इस पर बहस शुरू हो गई है। राहुल गांधी ने तो फिलहाल ये कहकर अपना पिंड छुड़ा लिया कि जब उद्योगपतियों के अरबों रु. माफ  किये जा सकते हैं तब गरीबों को भी न्यूनतम आय की इस योजना का लाभ दिया जा सकता है। तीन राज्यों में किसानों के ढाई लाख तक के कर्जे माफ  करने के वायदे को पूरा करने का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि इस वायदे पर भी अमल होगा। यहां तक तो बात ठीक है लेकिन अब सवाल ये है कि यदि कल को कोई दूसरी पार्टी 72 हजार को बढ़ाकर एक लाख रु. सलाना देने का वायदा कर दे तब क्या मतदाता उसकी तरफ  खिंचे नहीं चले जायेंगे? मोदी सरकार ने गरीबों को रसोई गैस कनेक्शन, घर-घर बिजली, मकान बनाने हेतु ढाई लाख रु. देने जैसी तमाम योजनाएं चला रखी हैं। अन्तरिम बजट में किसानों के खाते में 12 हजार रु. सालाना जमा किये जाने की घोषणा पर भी अमल शुरु हो चुका है। गरीबों की पेंशन बढ़ाकर तीन हजार मासिक कर दी गई। गत दिवस श्री गांधी की पत्रकार वार्ता के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सरकार की तरफ से मोर्चा संभालते हुए दावा किया कि कांग्रेस हवा-हवाई वायदे करती है। उन्होंने गरीबी हटाओ के नारे की याद दिलाते हुए उस पर छल-कपट जैसे आरोप लगाकर दावा किया कि मौजूदा सरकार तो गरीब परिवारों को एक लाख से ज्यादा की मदद कर रही है जो सीधे उनके बैंक खाते में जमा की जाती  है। अर्थशास्त्रियों के अनेक पैनलों ने श्री गांधी द्वारा किये गए वायदे को व्यवहारिकता की कसौटी पर कसते हुए उसके संभावित लाभ और हानि का विश्लेषण भी किया। लेकिन जो सबसे बड़ी बात सामने आई उसके अनुसार इस योजना को लागू करने से महंगाई में 2 फीसदी की वृद्धि हो जाएगी। दूसरी तरफ  समाज के संपन्न ही नहीं वरन उच्च और निम्न  मध्यम वर्ग के बीच ये संदेश गया कि राजनीतिक दल सत्ता हासिल करने के लिए उनकी जेब काटकर गरीबों के वोट बटोरने की नीति पर चल रहे  हैं। चूंकि राहुल ने चुनाव घोषित हो जाने के बाद गरीबों पर दरियादिली दिखाने का लॉलीपॉप फेंका इसलिये ये कहना गलत नहीं होगा कि ये चुनावी रणनीति का हिस्सा है। उनका ये कहना कि पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम न्याय योजना का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करेंगे, साबित करता है कि कांग्रेस को ऐसी ही कोई  योजना भाजपा के घोषणापत्र में होने की आशंका थी। इसी कारण श्री गांधी ने अपने घोषणापत्र का इंतजार किये बिना ही इतने महत्वपूर्ण वायदे को सार्वजनिक कर दिया। 5 क्ररोड़ गरीब परिवारों के माध्यम से 25 करोड़ लोगों को साधने की उनकी रणनीति कितनी सफल होगी ये तो चुनाव नतीजे बताएंगे लेकिन अतीत में किये गए ऐसे वायदों के फायदों को देखें तब कोई संन्तोषजनक स्थिति नजर नहीं आती। 2009 में किसानों के कर्ज माफ  किये जाने के बाद किसान कर्जदार होने से न तो बचे और न ही उनकी आत्महत्याएँ रुकीं। इसी तरह मनरेगा ने 100 दिन के रोजगार की जो योजना चलाई उसके कारण शहरों में काम करने वाले श्रमिक गांव लौट गए और अनेक समाजशास्त्रीय अध्ययनों से ये बात साबित हो चुकी है कि मनरेगा के बाद से ग्रामीण क्षेत्रों में शराब की बिक्री में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई। मुफ्त खाद्यान्न योजना ने भी देश के बहुत बड़े वर्ग को परिश्रम कर पेट भरने की प्रवृत्ति से दूर कर दिया। निष्पक्ष विश्लेषण करें तो ये बात सामने आएगी कि राजनीतिक दलों के अधिकतर वायदे वोटों की फसल काटने मात्र तक सीमित रह गए हैं। चुनाव हो जाने के बाद उन पर अमल कितना हो पाता है ये जगजाहिर है। सही हितग्राही का चयन भी बड़ी समस्या है। देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का उद्देश्य  बहुत पवित्र था लेकिन वह भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा माध्यम बनकर रह गई। पिछले अनुभवों के आधार पर ये कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा जो न्याय योजना रूपी दांव चला गया उससे उनकी पार्टी को चुनावी लाभ भले मिल जाए लेकिन गरीबी मिटाने में कोई मदद नहीं मिलेगी क्योंकि ऐसे कार्यक्रम अकर्मण्यता को बढ़ावा देते हैं। जो सरकारी व्यवस्था पैसे वालों की आय का सही-सही पता नहीं कर पाती वह किसी गरीब की वास्तविक आय का आंकड़ा किस तरह जान सकेगी ये यक्ष प्रश्न है। चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय कई अवसरों पर चुनावी वायदों को कानूनी हलफनामे का रूप दिये जाने की बात कह चुके हैं। बेहतर हो एक वर्ग को आर्थिक लाभ देने वाले वायदों से दूसरे वर्गों पर पडऩे वाले बोझ के बारे में बताए जाने का प्रावधान भी किया जावे। वरना समाज में नए ढंग का वर्ग संघर्ष शुरू होने की आशंका बढ़ती जाएगी। चीन ने अपनी विशाल आबादी को जहां मानव संसाधन बनाकार अपनी उत्पादकता बढ़ाई वहीं भारत में राजनीतिक दल अपनी सत्ता लिप्सा के कारण निकम्मों की फौज खड़ी करने पर आमादा हैं। बेरोजगारी के भयावह आंकड़ों के बीच कड़वी सच्चाई ये है कि मंदिर में सामने भीख मांग रहे हट्टे-कट्टे व्यक्ति को कोई अपने घर पर काम देने का प्रस्ताव दे तो वह मुंह फेरकर दूसरे के सामने कटोरा फैलाने लगता है। कृषि को रोजगार देने वाला प्रमुख क्षेत्र माना जाता है लेकिन मुफ्तखोरी बढ़ाने वाली योजनाओं ने खेतिहर मजदूरों का अकाल पैदा कर दिया।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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