Saturday 16 March 2019

न्यूजीलैंड की घटना तीसरे विश्वयुद्ध का आधार बन सकती है

न्यूजीलैंड दुनिया के उन ख़ूबसूररत देशों में से है जहां खुशनुमा जि़न्दगी जीने का पूरा-पूरा माहौल है। ब्रिटेन के उपनिवेश के तौर पर विकसित हुआ प्रशांत महासागर का यह छोटा सा देश ऑस्ट्रेलिया के विपरीत काफी ठंडा रहता है लेकिन कल हुई एक घटना ने इसके पूरे माहौल को गर्म कर दिया।  एक ईसाई व्यक्ति ने दो मस्जिदों में जुमे के मौके पर जमा हुए नमाजियों पर अंधाधुंध गोलियां चलाकर 49 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। हमलावर की उम्र 28 वर्ष बताई गई है।  सबसे ज्यादा चौकाने वाली बात ये रही कि उस शख्स ने अपने माथे पर अपना मोबाइल बांध रखा था तथा पूरी घटना को फेसबुक पर लाइव प्रसारित भी किया। ऑस्ट्रेलिया के रहने वाले इस युवक के कुछ समय पहले पाकिस्तान जाने की जानकारी भी मिली है। प्राथमिक तौर पर जैसा पता चला है उसके मुताबिक वह बाहरी लोगों के आने से नाराज था। यहां यह स्मरणीय है कि ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड दोनों अन्य देशों से आकर वहां बसने वालों को प्रोत्साहित करते हैं। इसकी वजह से वहां नस्लीय घृणा का भाव यदाकदा झलकता रहता है किन्तु गत दिवस जो हुआ वह अत्यंत चिंताजनक है। विश्व स्तर के अनेक समाजशास्त्री अपने अध्ययन में ये कहते रहे हैं कि पिछले दोनों विश्वयुद्ध ईसाई धर्म मानने वाले देशों के बीच हुए थे किंतु अगली बड़ी लड़ाई ईसाइयत विरुद्ध इस्लाम के बीच होगी। हालांकि इस तरफ  ज्यादा लोगों का ध्यान तो नहीं गया किन्तु पाश्चिम एशिया में बीते कई सालों से जो परिस्थितियां बनी हुई हैं और फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे ईसाई बाहुल्य देशों में मुस्लिम आतंकवादियों द्वारा किये गए हमलों के कारण इस्लामिक देशों के विरुद्ध वातावरण बनने लगा है उसे देखते हुए उक्त भविष्यवाणी निराधार नहीं लगती। ब्रिटेन में गोरों द्वारा अन्य नस्लों के लोगों पर किये जाने वाले हमले नई बात नहीं हैं किंतु जिस तरह से इस्लामिक आतंकवाद का फैलाव होता जा रहा है उसकी वजह से पश्चिम के अनेक विकसित देश अब मुस्लिमों को वीजा देने के मामले में बहुत सतर्क हो उठे हैं। सीरिया में चले गृहयुद्ध के बाद लाखों  की संख्या में मुस्लिम शरणार्थी यूरोपीय देशों में पहुँचे जिन्हें मानवीयता के नाम पर आश्रय भी दे दिया गया लेकिन जब उन्हीं के बीच में से आतंकवाद के जहर बुझे तीर निकलने लगे तब उन देशों को अपनी गलती का एहसास हुआ।  लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। ऐसे में भले ही नस्लीय श्रेष्ठता का अहंकार व्यक्त न किया जाता हो किन्तु ईसाई धर्मावलंबी गौर वर्णीय देशों में इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध आक्रोश की आग सुलगने तो लगी है।  धरती के भीतर से निकलने वाले कच्चे तेल ने बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से अरब जगत को जिस तरह से मालामाल किया वह भी गोरी मानसिकता में भरे अभिजात्य भाव को आहत करता रहता है।  सबसे बड़ी बात ईसाइयत के पैरोकारों को ये है कि उनकी सर्वोच्चता और विस्तार को हिन्दू, जैन, सिख, पारसी, यहूदी किसी भी धर्म से खतरा नहीं है। लेटिन अमेरिका, अफ्रीका, कैरीबियन द्वीप समूह जैसे क्षेत्रों में तो ईसाइयत को फैलाने में कामयाबी मिल गई लेकिन उपनिवेशवाद का सुनहरा दौर भी अरब जगत में चर्च खड़े नहीं कर सका।  किसी जमाने में तलवार के दम पर इस्लाम का फैलाव किया जाता था। कच्चे तेल से मिली दौलत ने इस्लाम के विस्तार का और भी खतरनाक रास्ता अख्तियार कर लिया जिसे आतंकवाद के तौर पर परिभाषित किया गया।  हालांकि अनेक विशेषज्ञ इसके लिए दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इसराइल नामक यहूदी देश के जन्म को जिम्मेदार मानते हैं किंतु असलियत में पेट्रो डालरों का बेतहाशा फैलाव ही इसकी वजह है और सऊदी अरब पूरी दुनिया में इस्लाम को फैलाने के लिए अच्छे बुरे सभी तरीकों का इस्तेमाल करता है।  ऐसा लगता है उसकी विपरीत प्रतिक्रिया होने के आसार उत्पन्न होने लगे हैं।  कल जिस युवक ने नरसंहार करते हुए उसका सजीव प्रसारण किया और उसके बाद जो कुछ कहा उसे केवल मानसिक रोगी कहकर उपेक्षित नहीं किया जा सकता।  उसका पाकिस्तान से होकर लौटना भी घटना की पृष्ठभूमि में हो सकता है। बहरहाल इस हादसे के बाद अब मुस्लिम आतंकवाद को प्रश्रय देने वाली ताकतों को भी सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि जहर की खेती को खाद पानी देना अब उल्टा पडऩे लगा है।  अमेरिका भी इसके लिये कम दोषी नहीं है।  एक ज़माने में सद्दाम को उसी ने खड़ा किया था।  ओसामा बिन लादेन के आतंक को बढ़ावा देने में भी उसका बड़ा योगदान रहा।  लेकिन जब वे उसी को नुकसान पहुंचाने लगे तब उसने उन्हें दुश्मन मानकर निपटाया तो किन्तु उसके पहले वे अमेरिका को बुरी तरह परेशान कर गए। आजकल वही गलती चीन दोहरा रहा है।  बीते दिनों संरासंघ की सुरक्षा परिषद में मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के प्रस्ताव को वीटो करने का उसका फैसला इस्लाम के नाम पर हो रही दहशतगर्दी को प्रश्रय देने वाला कदम ही कहा जाएगा। यद्यपि उसके पीछे उसका पाकिस्तान प्रेम कम भारत को सताना ज्यादा है लेकिन वह भूल रहा है कि किसी समय अफगानिस्तान से सोवियत संघ के दबदबे को खत्म करने के लिए अमेरिका ने जिस तालिबान रूपी नाग को पैदा किया वह अंततोगत्वा उसी के गले में लिपटकर डसने पर आमादा है। न्यूजीलैंड की घटना को इसीलिए व्यापक सन्दर्भ में देखते हुए उसके दूरगामी परिणाम और प्रतिक्रिया का विश्लेषण होना जरूरी है क्योंकि नस्लीय हिंसा यदि ईसाइयत विरुद्ध इस्लाम में बदल गई तो आने वाले कुछ वर्ष दुनिया के लिए बेहद तनाव भरे रहेंगे। भारत को इस स्थिति में बहुत सतर्क रहना होगा क्योंकि वह उनमें से किसी भी पक्ष के साथ या विरोध में खड़े होने से बचना चाहेगा। लेकिन ऐसा करना उसके लिए आसान भी नहीं है। सऊदी अरब और अमेरिका दोनों को अब ये समझ लेना चाहिए कि बबूल के पेड़ लगाकर वे आम खाने की उम्मीद नहीं कर सकेंगे। सुदूर न्यूजीलैंड की घटना को आने वाले खतरे का संकेत मानकर उसे रोकने के समुचित प्रयास नहीं हुए तो ये आग और भी जगह फैले बिना नहीं रहेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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