Monday 25 March 2019

राजनीति में भी स्वच्छता अभियान की जरूरत

प्यार और जंग में सब जायज की उक्ति बहुत पुरानी है लेकिन अब इसमें सियासत शब्द भी जोड़ दिया जाना चाहिए। लोकसभा चुनाव का माहौल बनते ही जिस तरह से उछलकूद चल रही है वह देखकर हंसी भी आती है और  दुख भी होता  हैं। दलबदल कोई नई बात नहीं लेकिन चुनाव के समय जिस तेजी से नेतागण पाला बदल रहे हैं उसे देखते हुए ये पहिचान पाना मुश्किल हो गया है कि सैद्धांतिक अंतर क्या है? किसी भी कीमत पर जीत की आपाधापी ने पार्टी के अपने कैडर के महत्व और सम्मान के भी धुर्रे उड़ाकर रख दिये हैं। पहले तो चुनाव के महीनों पहले पार्टी में आने वालों को उपकृत करना ही अटपटा लगता था लेकिन अब तो दो दिन पहले आने वालों को भी ससम्मान टिकिट दिया जा रहा है। इसे लेकर किसी एक पार्टी को दोषी ठहराना ठीक नहीं होगा। कांग्रेस, भाजपा के साथ ही अन्य पार्टियां भी इस बुराई को आत्मसात कर चुकी हैं। मप्र की शहडोल लोकसभा सीट से भाजपा ने जिन हिमाद्रि सिंह नामक महिला उम्मीदवार को टिकिट दी, वे चंद रोज पहले ही पार्टी में आईं हैं। इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात ये है कि हिमाद्रि इसी सीट पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार थीं। इसी तरह का उदाहरण उत्तराखंड की गढ़वाल सीट का है। वहां के मौजूदा भाजपा सांसद बीसी खंडूरी ने सम्भवत: चुनाव लडऩे से इनकार कर दिया तब उनके बेटे ने भाजपा से टिकिट चाही किन्तु बात न बनते देख वह पिछले हफ्ते ही कांग्रेस में घुस गया जिसने उसे उम्मीदवार भी बना दिया। जिन राज्यों में किसी पार्टी का जनाधार कमजोर हो वहां नवागंतुक को प्रत्याशी बनाना तो कुछ हद तक समझ में आता है लेकिन जहां पार्टी पहले से जमी हुई हो और उसके पास अच्छा खासा संगठन हो वहां इस तरह के निर्णयों से एक तरफ  तो पार्टी के तपे-तपाये कार्यकर्ताओं और समर्थकों में रोष फैलता है वहीं उसकी सैद्धांतिक पहिचान पर भी संकट के बादल मंडराते हैं। मशहूर क्रिकेटर गौतम गंभीर ने भी पिछले दिनों ज्योंही भाजपा में प्रवेश किया नई दिल्ली सीट से उन्हें टिकिट दिए जाने की चर्चा चल पड़ी। बीते शनिवार को चर्चित नृत्यांगना सपना चौधरी के कांग्रेस में शरीक होने और मथुरा से हेमा मालिनी के विरुद्ध लडऩे की खबर तेजी से उड़ी। हालांकि कांग्रेस ने वहां से किसी और को उतार दिया और सपना ने भी पार्टी में आने का खंडन कर दिया किन्तु ये सब चूंकि बहुत ही सामान्य हो गया है इसलिये इस तरह की अफवाह भी विश्वसनीय बन जाती है। पटना साहिब से टिकिट कटने के बाद शत्रुघ्न सिन्हा के कांग्रेस में जाने और इसी सीट से चुनाव लडऩे की खबरें भी तेज हैं। शत्रुघ्न कांग्रेस के कितने तीखे आलोचक रहे हैं ये किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में यदि कांग्रेस उन्हें पटना साहिब से प्रत्याशी बना देती है तब वहां के कांग्रेस कार्यकर्ता और नेताओं पर क्या बीतेगी ये आसानी से समझा जा सकता है। ये खबर भी उड़ती रही है कि उनकी पत्नी पूनम सिन्हा लखनऊ में गृहमंत्री राजनाथ सिंह के विरुद्ध लड़ेंगीं लेकिन सपा-बसपा गठबंधन उम्मीदवार के तौर पर। ऐसा लगता है कि राजनेता भी आईपीएल के खिलाडिय़ों जैसे हो गए हैं जो ज्यादा कीमत मिलने पर हर साल इस टीम से उस टीम में चले जाते हैं। एक जमाना था जब सैद्धांतिक और नीतिगत मतभेदों की वजह से पार्टी छोड़कर दूसरी का दामन थाम जाता था लेकिन अब तो केवल निजी लाभ और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पाला बदलने की संस्कृति पनप चुकी है। इस स्थिति के लिए किसे जिम्मेदार ठहराएं ये समझ से परे है क्योंकि केवल वामपंथी दलों को छोड़ दें तो बाकी का कोई ईमान-धरम नहीं बचा है। लोकतंत्र में दलबदल कोई अपराध नहीं होता। नीतिगत मतभेदों के चलते तो पार्टियां तक टूट जाती हैं। साम्यवादी दल तक इससे अछूते नहीं रहे लेकिन केवल व्यक्तिगत स्वार्थ पूरे नहीं होने के कारण पार्टी छोड़कर चल देने से  नेताओं की विश्वसनीयता और राजनीति की प्रतिष्ठा निम्नतम स्तर पर आ गई। ये सिलसिला कब और किसने शुरू किया इस शोध की बजाय विचारणीय प्रश्न ये है कि यदि चुनाव के समय इस तरह की स्वार्थपरता और निर्लज्जता ही राजनीति है तो राजनीतिक दल किस मुंह से अच्छे लोगों से सियासत में आने का अपेक्षा करते हैं? सवाल और भी हैं लेकिन उनका उत्तर किसी के पास नहीं होना दुखद स्थिति को दर्शाता है। बीते कुछ समय से लगभग प्रतिदिन इस आशय की खबरें आया करती हैं की फलां नेता टिकिट कटने के कारण अपनी पार्टी से नाराज है और दूसरी पार्टी में उसकी गारंटी मिलते ही कूदकर चला जाएगा। इस माहौल के बीच एक दो अपवाद ही ऐसे होंगे जिन्होंने पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों से नाराज होकर दूसरा ठिकाना पकड़ा हो लेकिन उसके लिए किसी भी तरह की सौदेबाजी नहीं की। आजादी के बाद कांग्रेस निकलकर अनेक नेताओं ने अलग दल बनाये लेकिन उनके पीछे कांग्रेस के साथ उत्पन्न नीतिगत मतभेद थे। कुछ ऐसे भी रहे जिन्होंने राजनीतिक दल न बनाते हुए अपनी स्वतंत्र छवि बनाई। बावजूद उसके उनका सम्मान बना रहा। आचार्य जेबी कृपलानी कट्टर गांधीवादी थे। उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी कांग्रेस द्वारा उप्र की मुख्यमंत्री बनाई गईं लेकिन आचार्य जी विरोध में बने रहे। इतना ही नहीं उन्होंने कभी मुख्यमंत्री के पति के तौर पर किसी भी तरह की सुविधा और सुरक्षा नहीं ली। ये बात तो सही है कि अब वैसे नेताओं और वैसी राजनीति की अपेक्षा नहीं की जा सकती किन्तु जैसा वैचारिक भटकाव दिखाई देने लगा है उसे पतन की संज्ञा देना गलत नहीं होगा। 2019 के लोकसभा चुनाव में करोड़ों युवा मतदाता पहली बार अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे। इनमें बड़ी संख्या उनकी है जो राजनीतिक तौर पर किसी भी दल से प्रतिबद्ध नहीं हैं। ऐसे मतदाता के सामने जब ताजा-ताजा दलबदलू नेताओं को टिकिट देने के उदाहरण आते हैं तब राजनीति के प्रति उनके मन में क्या भाव आते होंगे ये सहजता से समझा जा सकता है। सांसदीय लोकतंत्र संख्याबल पर आधारित है। लेकिन भारत में संख्याबल की हवस में गुणवत्ता, सैद्धांतिक वफादारी और ईमानदारी को जिस तरह से तिरस्कृत किया गया है उसने राजनीति को  कचराघर बना दिया। चुनाव तो हो जायेगा और किसी न किसी की सत्ता भी बन जाएगी लेकिन देश में लोकतंत्र की शुचिता संरक्षित रखनी है तब राजनीति में भी स्वच्छता अभियान चलाना पड़ेगा। वरना वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब सियासत नेताओं के हाथ से निकलकर ऐसे लोगों के कब्जे में आ जायेगी जिनको नैतिकता और देशहित से कुछ लेना देना नहीं रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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