Wednesday 20 March 2019

लोकपाल : रामराज की गारंटी नहीं

आखिरकार लोकपाल की नियुक्ति हो ही  गई। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मोदी सरकार ने उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए इस बहुप्रतीक्षित निर्णय को लागू कर दिया। लेकिन इसका श्रेय उसे नहीं दिया जा सकता क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय सरकार की नाक में दम न करता तब शायद वह इसे चुनाव के बाद तक टाल देती। 2012 में अन्ना आंदोलन की ये मुख्य मांग थी। बीते अनेक वर्षों से सैद्धांतिक सहमति के बाद भी सरकार लोकपाल की नियुक्ति को लेकर उदासीन या यूँ कहें कि अनिच्छुक बनी हुई थी। इसकी एक वजह शायद प्रधानमंत्री का भी इसके दायरे में आना रहा होगा। प्रदेशों में तो लोकायुक्त की व्यवस्था काफी पहले हो चुकी थी। लोकपाल के तौर पर जिन वरिष्ठ न्यायाधीश की नियुक्ति की गई वे निर्विवाद और अनुभवी हैं। उनके साथ नियुक्त चार न्यायिक सदस्यों में उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीश हैं जबकि गैर न्यायिक सदस्यों में नौकरशाह। इस नियुक्ति से समय-समय पर उठने वाला एक विवाद खत्म हो गया। यद्यपि चुनावों की घोषणा के उपरांत इस नियुक्ति पर कुछ लोगों ने ऐतराज जताया किन्तु सर्वोच्च न्यायालय के सख्त रुख के कारण उनकी जुबान ज्यादा नहीं खुली। जिस उद्देश्य से  लोकपाल नामक संस्था की आवश्यकता महसूस गई वह बेशक पवित्र है। स्मृतियों को पीछे ले जाएं तो इसकी चर्चा 1974 के ऐतिहासिक सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन से शुरू हुई थी। स्व. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी जो मुहिम चली उसमें राज्यों में लोकायुक्त और केंद्र में लोकपाल की नियुक्ति भी एक बड़ा मुद्दा था। अगर जनता पार्टी की सरकार टिक गई होती तब शायद लोकायुक्त के साथ केंद्र में लोकपाल की नियुक्ति भी हो जाती लेकिन उसके पतन के बाद ये मुद्दा बुद्धिविलास तक सिमटकर रह गया। केंद्र में सरकारें आती और जाती रहीं और हर पार्टी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए लोकपाल जैसी व्यवस्था का समर्थन और वायदा भी करती रही। लेकिन अपने हाथों अपनी गर्दन में फंदा डालने का दुस्साहस कोई नहीं कर सका। न खाऊंगा न खाने दूंगा का दम्भ भरकर सत्ता में आए नरेंद्र मोदी ने भी इस निर्णय को लागू करने में पांच साल निकाल दिए। भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसने सरकार को बुरी तरह से घेरकर ऐसा करने के लिए बाध्य कर दिया। इसमें भी पेंच ये  है कि कांग्रेस संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने लोकपाल चयन समिति की बैठक में इसलिये हिस्सा नहीं लिया क्योंकि उन्हें नेता प्रतिपक्ष की बजाय विशेष आमंत्रित के रूप में बुलाया गया था। हो सकता है इसके पीछे कांग्रेस की सोच ये हो कि जरूरत पडऩे पर वह सरकार को इस मुद्दे पर घेरकर लोकपाल की नियुक्ति में विपक्ष की उपेक्षा का आरोप लगा सके लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने ही ये निर्देश दिया था कि लोकसभा में कोई मान्यता प्राप्त विपक्षी दल नहीं होने पर संवैधानिक पदों पर नियुक्ति के लिए बनी समिति में सबसे बड़े विरोधी दल के नेता को रखा जावे। बहरहाल हमारे देश में जब सुरक्षा और शहीदों को लेकर भी राजनीति होती है तब लोकपाल भला कैसे अपवाद हो सकता था। फिर भी इतना जरूर है कि मोदी सरकार ने जिस भी दबाव में किया हो किन्तु एक बहुप्रतीक्षित ही नहीं अत्यंत आवश्यक निर्णय को लागू करते हुए विश्वास के संकट को दूर करने की कोशिश की। अब सवाल ये है कि क्या लोकपाल और उनकी टीम के अन्य सदस्य दबावमुक्त होकर अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकेंगे? इसका कारण ये है कि महत्वपूर्ण मुद्दों पर खासकर जिनमें बड़े ओहदेदार शामिल हों, कोई फैसला लेने के पहले न्यायपालिका जिस तरह की सुस्ती दिखाती है उससे न्यायाधीशों को लेकर भी ये अवधारणा बनती जा रही है कि वे पद पर रहते हुए सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति काफी नरम रवैया अपनाते हैं। इसी तरह के उदाहरण अन्य प्रभावशाली हस्तियों के अपराधिक मामलों में देखे जा सकते हैं। किसी का नाम लेने की तो फिलहाल जरूरत नहीं किन्तु इस सूची में कौन-कौन हैं ये सर्वविदित है। अनेक पूर्व न्यायाधीशों को लोकायुक्त बनाए जाने के बाद ये देखने में आया कई कि वे सत्तारूढ़ तबके के विरुद्ध कड़े कदम उठाने में आगे-पीछे होते रहे। कुछ पर तो भ्रष्टाचार के आरोप तक खुले आम लगे।  हालांकि लोकपाल और उनके सहयोगी न्यायिक सदस्यों की छवि अच्छी कही जा रही है और उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता और पृष्ठभूमि को लेकर भी किसी ने कोई आपत्ति अब तक नहीं जताई लेकिन पद पर आने के बाद ये उनका दायित्व बनता है कि अपने चयन को सही साबित करने के साथ ही जन साधारण में इस विश्वास की पुनस्र्थापना करें कि भ्रष्टाचार करने वाला सजा से नहीं बच सकेगा फिर चाहे वह कितने भी ऊंचे पद पर बैठा हो। ये कहना गलत नहीं होगा कि हमारे देश में बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई जैसे मुद्दे तो राजनीतिक विमर्श पर छाए रहते हैं लेकिन भ्रष्टाचार की बात आते ही सब कन्नी काटने लगते हैं।  लोकपाल की मांग और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई को लेकर जन्मी आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने सत्ता में आने के बाद देश के जिन सबसे भ्रष्ट नेताओं की सूची सार्वजनिक रूप से जारी की थी उन्हीं के साथ वे चुनावी गठबंधन करने के लिए लार टपका रहे हैं। केवल वे ही नहीं तो भ्रष्टाचार अब कांग्रेस और भाजपा सहित किसी भी पार्टी के लिए अछूत नहीं रहा। ऐसे में ये पक्का विश्वास कर लेना कि लोकपाल की नियुक्ति मात्र से रामराज भारत की धरती पर उतर आएगा, सही नहीं है  क्योंकि अतीत में भी ऐसे ही आशावाद निराश कर चुके हैं। ऐसे में ये जरूरी हो जाता है कि लोकपाल रुपी संगठन पर भी जनता निगरानी बनाये रखे। आज की बाजारवादी संस्कृति में कौन किसके हाथों बिक जाए ये कह पाना कठिन है। होली को सन्दर्भ मानकर कहें तो जब पूरे कुएं में भांग घुली हो तब कुछ भी संभव है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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