Monday 11 March 2019

लंबे चुनाव अभियान में मुद्दों से भटकाव की आशंका

लोकतंत्र के महाकुंभ का ऐलान हो गया | 11 अप्रैल से शुरू होकर 19 मई तक चलने वाले इस आम चुनाव में 7 चरणों में विभिन्न राज्यों में मतदान कराया जाएगा | 23 मई को एक साथ सभी सीटों पर मतगणना होगी | इस प्रकार आज से जोड़ें तो तकरीबन सवा दो महीने तक पूरा देश चुनाव मय रहेगा | वैसे तो हमारे देश में चुनाव भी नित्यकर्म जैसा बन गया है | लोकसभा के लिए भले ही 5 वर्ष में एक बार मतदान की प्रक्रिया होती है लेकिन उसके बाद भी प्रतिवर्ष किसी न किसी राज्य में विधानसभा चुनाव होते रहने से राजनीतिक गर्मी बनी रहती है | जब टीवी नहीं था तब दूसरे राज्य की खबरें अखबार से ही मिला करती थीं किन्तु अब तो मानों पूरा देश ही सियासी तौर पर जुड़ गया है | लोकसभा के साथ आंध्र , उड़ीसा , अरुणाचल और सिक्किम की विधानसभा के लिए भी मतदान होगा | पहले संभावना जताई जा रही थी कि महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव भी लोकसभा के साथ करवाये जा सकते हैं लेकिन वैसा नहीं हुआ | कुछ माह बाद ही वहां भी चूनावी बिसात बिछाई जावेगी | इसी तरह 2020 में भी चुनावी बिगुल बचता रहेगा | मोदी सरकार , चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने लोकसभा के साथ ही सभी विधानसभाओं के चुनाव करवाने की जो पहल की थी वह क
अधिकाँश पार्टियाँ को नहीं जमने की वजह से अधर में लटककर रह गई | यदि ऐसा हो जाता या भविष्य में भी हो जाए  तो देश  अनेक समस्याओं से मुक्ति पा सकेगा | बहरहाल अभी तो पूरा ध्यान इस चुनाव पर आकर केंद्रित हो गया है जो कई मायनों में अभूतपूर्व होगा |  2014 में आजादी के बाद पहली बार केंद्र में विशुद्ध गैर  कांग्रेसी सरकार बनी थी | कांग्रेस सत्ता से हटी ही  नहीं 50 से भी कम पर सिमटकर मान्यता प्राप्त विपक्षी दल की हैसियत से भी वंचित हो गई | बीते पांच साल में देश ने बहुत कुछ अच्छा - बुरा देखा | सरकार की सफलताओं और विफलताओं को लेकर अन्तहीन बहस भी चलती रही | राजनीतिक घटनाक्रम भी अत्यंत रोचक रहा जिसका सार यदि निकाला जाए तो भले ही कांग्रेस मुक्त भारत का सपना साकार न हो सका हो किन्तु भाजपा ने अपने आपको सही अर्थों में राष्ट्रीय दल के रूप में स्थापित कर लिया जो 2014 के पहले तक अकल्पनीय माना जाता था | इसका श्रेय निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को देना होगा लेकिन इसी के साथ ये  कहना भी गलत नहीं होगा कि इस अंधी दौड़ में भाजपा ने अपनी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता से काफी समझौते किये जो सफ़लता के शोर में भले ही उपेक्षित हो गए हों किन्तु सत्ता की चाहत में कांग्रेस मुक्त भारत का नारा लगाते - लगाते कांग्रेस युक्त भाजपा जैसी स्थिति भी बनती गई | बावजूद उसके बतौर प्रधानमंत्री श्री मोदी ने पूरे पांच साल अपने को प्रासंगिक बनाये रखा और ये कहना गलत नहीं होगा कि ये चुनाव भी पूरे देश में मोदी समर्थन और मोदी विरोध पर आकर सिमट गया है  | वैसे तो पिछला लोकसभा चुनाव भी काफी हद तक उनके इर्द गिर्द  ही सिमटा रहा लेकिन वे भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिलवा सकेंगे ये दिवास्वप्न ही माना जा रहा था | लेकिन इस चुनाव में मुद्दा ये है कि क्या श्री मोदी भाजपा की उस सफलता को दोहराने का कारनामा दिखा सकेंगे  ?  मप्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान की पराजय के बाद भाजपा की पेशानी पर पसीने की बूंदें साफ देखी जा सकती थीं | लेकिन प्रधानमंत्री ने पहले बजट और उसके बाद पकिस्तान के विरुद्ध बेहद आक्रमक रवैया अपनाते हुए पूरे देश का राजनीतिक वातावरण और सन्तुलन दोनों उलट पुलट कर दिए | इस वजह से विपक्ष जिन मुद्दों को बीते एक साल से जोरशोर से उठते हुए भाजपा की राह में कांटे बिछा रहा था वे सभी फिलहाल तो गौण होकर रह गए हैं | दूसरी सबसे अहम बात ये हुई कि सोनिया गांधी की लगातार कोशिशों के बावजूद भी गैर भाजपा पार्टियां एक झण्डे के तले नहीं आ सकीं | यद्यपि विभिन्न राज्यों में अलग - अलग भाजपा विरोधी गठबंधन बने किन्तु उनका राष्ट्रीय स्तर पर अपेक्षित प्रभाव नहीं दिखाई दे रहा । बिहार में लालू के जेल में होने की वजह से महागठबंधन का जितना हल्ला था उसके मुताबिक कुछ नहीं हो पा रहा और जिस उप्र को दिल्ली की सत्ता का प्रवेश द्वार माना जाता है वहां भी सपा - बसपा ने कांग्रेस से सलाह लेने तक की जरूरत तक नहीं समझी । और अपनी उपेक्षा से आहत होकर वह अकेली मैदान में उतर रही है । इस वजह से भाजपा पर जो मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जा सकता था वह नहीं हो सका | इसका एक कारण घोर भाजपा विरोधी दलों के बीच कांग्रेस को लेकर सन्देह का भाव भी है | कांग्रेस द्वारा राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे लाया जाना भी इसके पीछे है | इस कारण विपक्षी दल चाहते हुए भी मोदी के विरोध में  एकजुट होने का एहसास नहीं दिला सके | यही कारण है कि दिसम्बर 2018 में जो प्रधानमंत्री कमजोर लगने लगे थे वही दौड़ में सबसे आगे निकलते दिखाई देने लगे | पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले ने केंद्र सरकार की जमकर किरकिरी कर दी थी लेकिन उसके बाद जो हुआ उसने पांसा पलटकर रख दिया | दबी जुबान ही सही लेकिन ग़ैर भाजपाई दल भी ये स्वीकार करने लगे हैं कि बालाकोट में की गई सर्जिकल स्ट्राइक ने मोदी लहर को काफी हद तक पुनर्जीवित कर दिया है | लेकिन भाजपा यदि इसी खुशफहमी में रही तो उसके अच्छे दिन झमेले में पड़ सकते हैं | इसका कारण चुनाव अभियान का लंबा चलना है | जिन मुद्दों से जंग की शुरूवात होगी वे पूरे समय गर्म रहें ये कहना कठिन है | राफैल के मामले को भले ही ठंडा माना जा रहा हो किन्तु सर्वोच्च न्यायालय में चल रही सुनवाई के दौरान कोई ऐसी बात निकल आई जो प्रधानमंत्री के लिए नुकसानदेह हुई तब भाजपा के लिए स्थिति को संभालना बहुत कठिन हो जाएगा | इसी तरह सर्जिकल स्ट्राइक के श्रेय को प्रासंगिक बनाये रखना भी उतना आसान नहीं है जितना सोचा जा रहा है | उस दृष्टि से आगामी दो महीने बेहद असमंजस भरे होंगे जिनमें राजनीतिक दलों को भरी गर्मी में न सिर्फ पसीना और पैसा बहाना पड़ेगा अपितु जनता  के सवालों का जवाब भी देना पड़ेगा | सबसे बड़ी बात ये है कि इस चुनाव से भारत का भाग्य और भविष्य दोनों जुड़े हुए हैं | नतीजे क्या होंगे ये तो मतदाता ही तय करेंगे किन्तु यदि विकास , सुरक्षा और स्थायित्व लोगों के मन में बैठे तब मोदी सरकार की वापिसी की उम्मीद की जा सकती है किंतु  मतदाताओं ने यदि इनसे अलग हटकर विचार किया तब परिणाम चौंकाने वाले हो सकते हैं | यूँ भी लगभग 70 दिन तक चुनाव प्रचार चलने से मुद्दों में घालमेल होना संभव है | इस सबके  बावजूद इस चुनाव का केंद्र बिंदु नरेंद्र मोदी ही रहेंगे क्योंकि चाहे उनकी प्रशंसा की जाए या निंदा लेकिन उपेक्षा करना किसी के लिए भी संभव नहीं होगा | शायद 1971 के बाद ये पहला चुनाव है जिसमें नीति और विचारधारा की बजाय व्यक्तित्व पूरे माहौल पर छाया हुआ है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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