Thursday 7 March 2019

वरना 6 दिसम्बर ' 92 दोहराए जाने की आशंका


अयोध्या में राम जन्मभूमि संबंधी विवाद पर न्यायालयीन फैसले को लेकर हो रही देरी से जनता का धैर्य जवाब देने लगा है। बरसों, क्या दशकों से लटके इस प्रकरण का राजनीतिक समाधान नहीं निकलने के कारण सभी पक्षों ने ये स्वीकार किया कि जो अदालत कहेगी उसे वे मान लेंगे। यद्यपि अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांट देने जैसा फैसला देकर एक पहल की थी लेकिन उसे किसी ने मान्य नहीं किया और सर्वोच्च न्यायालय में अपीलें लग गईं। उसके बाद भी बहुत लंबा समय बीत गया किन्तु सबसे बड़ी अदालत में भी मामला हनुमान जी की पूंछ जैसा लंबा होता चला गया। बीते कुछ महीनों में अनेक बार ऐसी उम्मीद जगी कि नियमित सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय अपना फैसला सुना देगा। लोकसभा चुनाव के पहले ऐसा होने पर राजनीतिक तौर पर भी बहुत से विवाद खत्म हो जाते लेकिन किसी न किसी वजह से सुनवाई टाली जाती रही। कभी पीठ का गठन और कभी बड़ी पीठ को प्रकरण दिए जाने के कारण विलंब होता गया। लेकिन लोगों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब सर्वोच्च न्यायालय ने खुद होकर फैसला करने के बजाय पक्षकारों से ही आपसी बातचीत के जरिये विवाद निपटाने कहा। गत दिवस तो उसने साफ  कर दिया कि ये भूमि स्वामित्व का मसला न होकर आस्था का विषय है जिससे लोगों की भावनाएं जुड़ी हुई हैं। इसलिए सभी पक्षकार मध्यस्थों के नाम दे दें। पांच सदस्यों की पीठ ने खुद होकर मध्यस्थता करने से इंकार कर दिया। अदालत के इस निर्देश पर हिन्दू महासभा ने असहमति दिखाई जबकि मुस्लिम पक्ष राजी दिखा। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि एक प्रतिशत भी संभावना हो तो वह मध्यस्थता से मामला निबटाने को प्राथमिकता देगी। किसी विवाद का हल यदि आपसी बातचीत से हो जाये या फिर सर्वमान्य पंच मिलकर कोई रास्ता निकाल दें, इससेे बेहतर कुछ नहीं होगा लेकिन अयोध्या विवाद तो सर्वोच्च न्यायालय ने कोई साधारण भूमि स्वामित्व का झगड़ा नहीं अपितु करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ा भावनात्मक विषय है इसलिए इसका निपटारा मध्यस्थता से करना उतना आसान नहीं है जितना माननीय न्यायाधीशगण समझ रहे हैं। सोचने वाली बात ये है कि जब सभी पक्ष सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मानने को राजी हैं तब वह ऐसा करने से क्यों बच रहा है? रही बात आस्था और जनभावनाओं की तो तीन तलाक और सबरीमाला जैसे मामलों में भी तो सर्वोच्च न्यायालय ने प्रचलित आस्थाओं से अलग हटकर फैसला सुनाने का दु:साहस किया। अनेक ऐसे विवाद उसके समक्ष आते हैं जिनका कानूनी पक्ष स्पष्ट नहीं होने पर भी वह उन पर विचार करते हुए अपना फैसला देता है। ऐसे में देश के सबसे चर्चित विवाद को निपटाने में पेशी दर पेशी देने के बाद भी नौ दिन चले अढ़ाई कोस से भी खराब स्थिति में इस विवाद को रखने का औचित्य समझ से परे है। ये कहने की जरूरत नहीं है कि अयोध्या विवाद के कारण देश राजनीतिक तौर पर ही नहीं सामाजिक आधार पर भी बंटा है। बीते ढाई दशक से तो ये देश की मुख्यधारा का एजेंडा बना हुआ है। राजनीतिक दलों के बारे में जनता के मन में ये धारणा बन गई है कि वे अपने स्वार्थवश इसे लटकाकर रखने के इच्छुक हैं। वरना संसद जैसा सर्वोच्च मंच चाहता तो इसे कब का हल कर चुका होता। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों तक को संसद ने बदला है। शाहबानो और अनु.जाति/जनजाति विषयक फैसले इसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं। ये सब देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ही उम्मीद की किरण के रूप में बच रहता है लेकिन अब तक की उसकी भूमिका भी आश्वस्त नहीं कर सकी। ये दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस तरह के संवेदनशील और राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर निर्णय करने में विधायिका और कार्यपालिका तो चीटी चाल से चलते ही रहे लेकिन न्यायपलिका का रिकार्ड भी बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। ऐसा भी नहीं है कि न्यायपालिका सजग न हो। अनेक चर्चित मामलों में उसकी सक्रियता सराहनीय रही है। स्वयं संज्ञान लेकर भी उसने अनेक ऐसे मुद्दों पर व्यवस्था दी जो उपेक्षित पड़े थे। ये देखते हुए पूरा देश ये अपेक्षा कर रहा है कि अयोध्या विवाद को भी न्याय की सर्वोच्च आसंदी हल करते हुए देश को चैन की सांस लेने का अवसर देगी। मध्यस्थता और आपसी बातचीत से बात बनती होती तो बात सर्वोच्च न्यायालय की चौखट तक आती ही क्यों? जब अलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा विवादित जमीन के तीन हिस्से करने संबंधी फैसला सभी पक्षों को संतुष्ट नहीं कर सका तब मध्यस्थों द्वारा किसी एक पक्ष को पूरी जमीन देने या उसमें हिस्सा बांट की बात को स्वीकार किये जाने की संभावना भी नहीं के बराबर है। बेहतर तो यही होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इस विवाद पर अपना फैसला दे। यदि वह ऐसा करने में विफल रहा तो फिर 6 दिसम्बर 1992 जैसी स्थिति के दोहराए जाने की आशंका बनी रहेगी। द्विपीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी स्वरूपनान्द जी ने राम मंदिर के शिलान्यास की जो घोषणा की थी वह उनकी अस्वस्थतावश भले ही अधर में लटक गई हो लेकिन संत समाज ने प्रयागराज कुम्भ में जिस तरह अपना आक्रोश व्यक्त किया उसे भी गम्भीरता से लिया जाना चाहिए क्योंकि अब साधु -सन्यासी भी राजनीति से अछूते नहीं रहे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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