Tuesday 12 March 2019

मुस्लिमों को मुख्यधारा से दूर रखने की साजिश

लोकसभा चुनाव की तारीखों को लेकर कतिपय पार्टियों द्वारा रमजान का हवाला देते हुए जो आपत्तियां उठाई गई उन्हें चुनाव आयोग ने तो अस्वीकार किया ही मुस्लिम समाज के साथ-साथ उसके कुछ नेताओं ने भी उन्हें अनावश्यक और अनुचित बताकऱ स्पष्ट कर दिया कि रमजान के पवित्र माह में रोजा रखने वाले मुस्लिम चूंकि सामान्य दिनचर्या जीते हैं इसलिए उस दौरान मतदान करने में कोई अड़चन नहीं होगी। चुनाव आयोग ने अपने स्पष्टीकरण में कहा कि शुक्रवार और ईद के दिन मतदान नहीं रखा गया और रमजान के पूरे महीने चलने के कारण इतनी लंबी अवधि तक मतदान प्रक्रिया को स्थगित रखना संभव नहीं था। बहरहाल सियासी तौर पर मुसलमानों के सबसे बड़े प्रवक्ता कहलाने वाले असदुद्दीन ओवैसी ने भी रमजान में मुस्लिमों के मतदान करने में कोई परेशानी नहीं होने की बात कहकर विरोध  करने वालों को ठंडा कर दिया। लेकिन सवाल ये है कि इस तरह की बातें करने वाले क्या मुसलमानों के हितचिंतक हैं? चुनाव की तारीखों की घोषणा होने से पहले ही सभी दलों को पता था कि चुनाव की संभावित समयावधि कब से कब तक है। चुनाव आयोग ने भी इस बाबत पूरी सावधानी बरती और जुमे के साथ किसी मुस्लिम पर्व पर मतदान नहीं रखा। और फिर पूरे रमजान के दौरान चुनाव प्रक्रिया स्थगित रखने से समय पर चुनाव सम्भव नहीं हो पाते और नई लोकसभा का गठन भी झमेले में पड़ जाता। चुनाव आयोग मतदान का कार्यक्रम तय करने से पहले विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों से सलाह करता है। इसके पीछे उद्देश्य स्टार प्रचारकों के दौरों के साथ ही सुरक्षा बलों की तैनाती का प्रबंध भी होता है। बीते अनेक महीनों से चुनाव आयोग तैयारियों में जुटा हुआ था लेकिन इस दौरान शायद ही किसी मुस्लिम नेता, धर्मगुरु अथवा राजनीतिक दल ने रमजान के दौरान मतदान रखे जाने का मुद्दा उठाया हो। ऐसे में जब पूरे देश का चुनाव कार्यक्रम घोषित हो गया तब अचानक रमजान का विवाद छेड़कर दूध में जबरन नींबू निचोडऩे का काम किया गया। इस मुहिम में शामिल नेताओं और पार्टियों को मुसलमानों के धार्मिक क्रियाकलापों से कोई लेना देना नहीं है। दरअसल उनके भीतर मजहबी भावना भड़काकर धु्रवीकरण के उद्देश्य से ये दांव चला गया। लेकिन इससे मुसलमान कितने खुश हुए ये तो पता नहीं लेकिन सोशल मीडिया को यदि पैमाना माना जाए तो हिन्दू भावनाएं जरूर भड़क उठीं और बिना किसी कोशिश के इन मुस्लिम परस्त नेताओं और पार्टियों की जमकर फजीहत हुई। ओवैसी चूंकि चतुर-चालाक व्यक्ति हैं इसलिए उन्होंने बात को संभालते हुए रमजान में मतदान के विरोध को निरर्थक बताते हुए दो टूक कह दिया कि इस दौरान मुसलमान चूंकि सभी कार्य करते हैं इसलिए उन्हें मतदान करने में भी कोई परेशानी नहीं होगी। चूंकि चुनाव आयोग ने इस बारे में किसी भी आपत्ति को स्वीकार करने से मना कर दिया इसलिये चुनाव कार्यक्रम यथावत ही रहेगा लेकिन इस तरह की कोशिश से मुस्लिम तुष्टीकरण का जो फूहड़ प्रयास किया गया उसने हिन्दू मतों की गोलबन्दी करने वालों को अनायास ही एक अवसर दे दिया। कांग्रेस, सपा, तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के नेताओं की तरफ  से आये बयानों को भले ही उनकी पार्टियों ने अधिकृत तौर पर समर्थन नहीं दिया हो लेकिन उनकी खिंचाई भी नहीं की। 21 वीं सदी के भारत में देश की तकरीबन 20 फीसदी आबादी को केवल वोट बैंक बनाकर रखने की मानसिकता का ही नतीजा है कि बहुसंख्यक समाज की राजनीतिक गोलबन्दी का अभियान भी शुरू हुआ। सांप्रदायिकता का विरोध करने वाली ताकतें ही जब एकपक्षीय हो जाती हैं तब समस्या और बढ़ जाती है। राम जन्मभूमि जैसे विवाद उलझे रहने के पीछे भी यही कारण रहे हैं। रमजान के नाम पर मुसलमानों को भड़काने वाले यदि उनके सच्चे हितैषी हैं तब उन्हें उनके बीच शिक्षा के प्रसार और  सामाजिक कुरीतियों को मिटाने जैसे मुद्दे उठाकर चुनावी विमर्श में शरीक करना था किंतु बेमतलब बात का बतंगड़ बनाने की कोशिश से मुसलमानों को व्यर्थ में विवाद में घसीटने की शरारत हुई। हालांकि इसके पीछे भी निहित उद्देश्य उनकी धार्मिक भावनाएं भड़काकर उन्हें अधिक से अधिक मतदान करने के लिए उकसाना है लेकिन इसकी जो प्रतिक्रिया हिन्दू समाज में हुई उसने मुसलमानों के इन नकली शुभचिंतकों की कोशिश को पलीता लगा दिया। पता नहीं क्यों पिछले अनुभवों से सबक लेकर ऐसे नेता अपनी हरकतों से बाज नहीं आते। उन्हें ये भी समझना चाहिए कि राजनीति के ऐसे ही दांव पेंचों ने धार्मिक के बाद जातिगत धु्रवीकरण जैसी बीमारी को फैलने का मौका दे दिया और समूचा राजनीतिक माहौल नीतियों और सिद्धांतों की बजाय समाज को बाँटने वाली कोशिशों से भर उठा। जाति, धर्म, भाषा और प्रांत के नाम पर जिस तरह से समाज में विघटन कराने की कोशिशें होने लगी हैं उनके दूरगामी परिणाम बहुत ही घातक होंगे। संघीय ढांचे को भी इस तरह की राजनीति नुकसान पहुँचा रही है जिसका प्रमाण हाल ही में कतिपय राज्यों द्वारा केंद्र के साथ किये टकराव से मिला। छोटे और क्षेत्रीय दलों की राजनीति करने के तौर-तरीके तो अपनी जगह हैं लेकिन राष्ट्रीय पार्टियों से तो ये अपेक्षा रहती है कि वे समाज को एकजुट रखने की प्रतिबद्धता दिखाएं। इस बार का चुनाव इस लिहाज से भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें वे युवा मतदाता पहली बार संसदीय लोकतंत्र की प्रक्रिया का हिस्सा बनेंगे जिनका जन्म 2001 में हुआ था। ये नया मतदाता जिस युग में जन्मा और पला-बढ़ा वह वैश्विक सोच से प्रभावित है किंतु दुर्भाग्य से राजनीति की शैली 19 वीं सदी के समाज का एहसास कराने वाली है। रमजान के दिनों में चुनाव का विरोध इसका ताजा उदाहरण है। मुस्लिम समाज को ये  बात अच्छी तरह से समझना चाहिए कि नेताओं की एक जमात उन्हें सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक और मानसिक स्तर पर पिछड़ा रखकर उनका भयादोहन करती आई है। समयानुकूल सामाजिक सुधारों का विरोध भी उसी का हिस्सा है। ओवैसी सरीखे उच्च शिक्षित व्यक्ति भी जब कट्टरता का समर्थन करते हैं तब उनका उद्देश्य  भी केवल और केवल मुसलमानों के मतों को गोलबंद करना ही होता है। ऐसा नहीं है कि मुस्लिमों के बीच तरक्कीपसन्द लोग नहीं हैं किंतु उनकी आवाज में अपेक्षित बुलंदी नहीं होने से कट्टरपंथी हावी बने हुए हैं। जब तक ये स्थिति बनी रहेगी मुसलमान विकास की मुख्यधारा से दूर बने रहेंगे।

-रवींद्र वाजपेयी

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