Saturday 2 March 2019

कूटनीति के मोर्चे पर भी भारत की बड़ी सफलता

भारतीय कूटनीति के लिहाज से ये एक अनोखी घटना है कि मुस्लिम राष्ट्रों के संगठन ओआईसी ने अपने उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता के लिए भारत को आमंत्रण दिया। इस संगठन में पाकिस्तान एक प्रमुख सदस्य है। मौजूदा परिस्थितियों में उसके लिए ये किसी अपमान से कम नहीं था कि भारत मुस्लिम देशों की बिरादरी में सम्मान के साथ न केवल बैठे बल्कि उसे महत्वपूर्ण स्थान भी हासिल हो सके। इसीलिए उसकी तरफ से इसका जोरदार विरोध भी किया गया लेकिन आयोजकों ने उसे दरकिनार रख दिया तब शर्मसारी से बचने के लिए उसने उसका बहिष्कार करने का निर्णय लिया। उल्लेखनीय है विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से सम्मेलन में पाकिस्तान के  विदेश मंत्री से मुलाकात होने पर उनसे बातचीत करने के बारे में पूछा गया तब  उन्होंने सकारात्मक उत्तर दिया था। लेकिन अंतत: पाकिस्तान को इस्लामिक देशों के बीच भारत की गरिमामय उपस्थिति सहन नहीं हुई। यद्यपि दोनों देशों के बीच युद्ध की परिस्थितियां बन जाने के पहले ही भारत को ओआईसी का निमंत्रण मिल चुका था। हाल ही में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस ने भी पाकिस्तान और भारत की यात्रा की थी। उन्होंने आतंकवाद को लेकर भारत के रुख का समर्थन किया तथा भारत में पाकिस्तान की तुलना में कई गुना ज्यादा निवेश करने की घोषणा भी कर डाली। स्मरणीय है सऊदी अरब अमेरिका के बाद पाकिस्तान का सबसे बड़ा पालनहार रहा है। इस्लामिक देशों की जानकारी रखने वाले ये भी स्वीकार करते हैं कि इस्लाम के नाम पर आतंक का जो कारोबार पूरी  दुनिया में चल रहा है उसके लिए आर्थिक संसाधन भी सऊदी अरब ही उपलब्ध करवाता है। इस्लामिक देशों में उसकी अहमियत आर्थिक और धार्मिक दोनों कारणों से है। नरेंद्र मोदी की सरकार ने सऊदी अरब के अलावा संयुक्त अरब अमीरात के देशों के साथ जो करीबी रिश्ते बनाये उसी का सुपरिणाम है कि इस्लामिक देशों के सम्मेलन में भारत को बाइज्जत बुलाया गया और पाकिस्तान के एतराज की रत्ती भर भी परवाह नहीं की गई। ये सब भी तब हुआ  जब भारत की घरेलू राजनीति में मोदी सरकार को मुस्लिम विरोधी माना जाता है। तीन तलाक पर रोक लगाने जैसे कानून बनाने की वजह से मुस्लिम नेता ही नहीं बल्कि दूसरी पार्टियों  के लोग भी मोदी सरकार को हिन्दू सांप्रदायिकता का संरक्षक मानते हैं। बावजूद उसके यदि ओआईसी के आयोजकों ने भारत को न्यौता भेजा तो उसके पीछे कारण भारत का एक आर्थिक महाशक्ति के तौर पर उभरना  ही है। पुलवामा के हादसे के बाद जब दुनिया भर में आतंकवाद के विरोध में आवाज उठ रही थी तब भी चीन ने दबी जुबान ही सही लेकिन पाकिस्तान के प्रति हमदर्दी दिखाते हुए भारत को बिना सबूत आरोप लगाने के लिए टोका था। लेकिन 26 फरवरी को भारत द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक के बाद चीन भी ठिठक गया और अनमने तरीके से ही  सही किन्तु पाकिस्तान के अंध समर्थन से बचता नजर आया। इमरान खान को ये मुगालता था कि भारत के हमलावर रवैये के विरुद्ध उसे कम से कम चीन का साथ तो मिलेगा ही लेकिन ऐसा नहीं होने से इस्लामाबाद की सारी हेकड़ी निकल गई। बची खुची कसर पूरी कर दी ओआईसी में भारत को मिले आमंत्रण ने। भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव कोई नया नहीं है। सीमा पर अघोषित युद्ध का माहौल सदैव बना रहता है। कश्मीर घाटी में छद्म युद्ध के जरिये वह भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए निरन्तर खतरा पैदा करता रहता है। मसूद अजहर और हाफिज सईद जैसे खूंखार आतंकी सरगनाओं को खुले आम संरक्षण देने के बाद भी इस्लामिक देश उसकी मदद करते रहे। चीन ने तो एक तरह से उसे गोद ही ले रखा था जबकि अमेरिका , अफगानिस्तान की वजह से उसकी सारी हरकतों को सहन करता आया है। लेकिन मौजूदा संकट के समय भारत को जो चौतरफा समर्थन और सहानुभूति हासिल हुई वह बड़ी उपलब्धि है। भले ही भारत के भीतर विरोधी दल और वामपंथी विचारधारा से प्रेरित सहिष्णुतावादी इसे स्वीकार नहीं करें किन्तु इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर प्रधानमंत्री भी इस तरह का कूटनीतिक कौशल नहीं दिखा सकीं। 1971 की लड़ाई के समय भी केवल तत्कालीन सोवियत संघ ही भारत के साथ खड़ा नजऱ आया था। अमेरिका और उसके पिछलग्गू पश्चिमी देश खुलकर भारत के विरोध में नजर आए। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब दुनिया दो शक्ति केंद्रों में बंट गई तब भारत ने हालांकि गुट निरपेक्षता का रास्ता पकड़ा किन्तु पहले पं नेहरु और फिर इंदिरा जी के कारण वह साम्यवादी खेमे की तरफ झुकता गया । चीन से दुश्मनी के बाद सोवियत संघ भारत का संरक्षक बनकर सामने आया । संरासंघ में कश्मीर मसले पर उसी के वीटो ने हमेशा भारत की रक्षा की । लेकिन उसके विघटित होने के बाद शीतयुध्द का नया रूप सामने आया जिसमें बाजारवाद हावी हो गया । यहां तक कि माओ के दौर का चीन भी मुक्त अर्थव्यवस्था के आकर्षण में फंस गया। बीते 20 - 25 साल में पूरी दुनिया आर्थिक उदारवाद नामक जिस व्यवस्था से संचालित हो रही है उसमें भारत की दोहरी भूमिका है । एक तरफ तो वह विश्व के सबसे बड़े उपभोक्ता बाजार के रूप में सामने आया वहीं मानव संसाधन की प्रचुरता ने भी दुनिया को आकर्षित किया। पीवी नरसिम्हा राव के समय डॉ. मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधारों का सूत्रपात किया था किन्तु भारत की ताकत का सही प्रगटीकरण हुआ अटल जी के कार्यकाल में जब भारत परमाणु शक्ति बनने के साथ ही विश्व रंगमंच पर आत्मविश्वास से भरपूर देश के तौर पर उभरा। उसके बाद के दस वर्ष उदासीनता में गुजरे लेकिन श्री मोदी ने आते ही भारत को वैश्विक स्तर पर एक बार फिर जिस तरह से प्रतिष्ठित किया उसी का सुपरिणाम बीते कुछ दिनों में देश ने देखा। पाकिस्तान की तरफ से शांति की पेशकश , अभिनंदन की बिना शर्त रिहाई और ओआईसी में भारत की प्रभावशाली उपस्थिति इस बात का प्रमाण है कि मोदी सरकार ने विदेश नीति के क्षेत्र में बहुत ही उल्लेखनीय या यूँ कहें कि अभूतपूर्व कार्य किया । अटल जी की सरकार ने जब परमाणु परीक्षण किया उसके बाद भी देश का कूटनीतिक कौशल उजागर हुआ था। तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने अमेरिकी लॉबी द्वारा लगाए प्रतिबंधों को जिस तरह लंबी वार्ताओं के जरिये शिथिल करवाया वह भी अविस्मरणीय है। लेकिन बीते पांच वर्ष में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से अपने संबंधों का विस्तार करते हुए उन्हें मजबूती प्रदान की उसी का परिणाम है कि आज पूरा विश्व भारत के साथ खड़ा हुआ है । निश्चत रूप से ये बहुत बड़ी उपलब्धि है जिसके लिए प्रधानमंत्री की प्रशंसा की जानी चाहिए जिन्होंने आलोचनाओं से विचलित हुए बिना लगातार विदेश यात्राएं करते हुए देश को इस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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