Friday 26 April 2019

वे तीन न्यायाधीश और नेतागण क्यों खामोश हैं

ये सच है कि लोकसभा चुनाव की जीत हार के फेर में फंसे राजनीतिक नेताओं को इस समय कुछ और नहीं सूझ रहा। लेकिन न्याय की देवी का चीरहरण होते देखकर भी चुपचाप बैठे रहने वाले इन महारथियों की तुलना धृतराष्ट्र की सभा में बैठे महा पराक्रमी और नीति मर्मज्ञों से करना गलत नहीं होगा जो सत्ता का नमक चाटने के लालच में अपनी कुलवधू की अस्मत लुटती देखकर असहाय बने रहे। सवा साल पहले ही पूरे देश का ध्यान न्यापालिका की स्वायत्तता पर केन्द्रित हो गया था। सर्वोच्च न्यायालय के चार माननीय न्यायाधीशों ने मर्यादा तोड़कर पत्रकार वार्ता करते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की कथित स्वेच्छाचारिता के विरुद्ध आसमान सिर पर उठा लिया। सड़क से लेकर संसद तक बस एक ही मुद्दा छाया रहा। पूरे देश में ऐसा माहौल बना दिया गया मानों न्यायपालिका सत्ता की बंधुआ हो और निर्णय करने की उसकी शक्ति किसी और के हाथ में चली गई हो। लेकिन उस समय भी किसी ने न्यायपालिका में फिक्सिंग और न्ययाधीशों के चरित्र पर उंगली नहीं उठाई। कार्पोरेट घरानों द्वारा न्यायिक व्यवस्था में दखल का भी कोई आरोप नहीं लगा। लेकिन बीते एक सप्ताह में सर्वोच्च न्यायालय में जो होता दिखाई और सुनाई दे रहा है वह अभूतपूर्व ही नहीं अत्यंत दु:खदायी और चिंतनीय है। जिन चार न्यायाधीशों ने घर की बात सड़क पर लाने का दुस्साहस किया था उनमें से तीन तो घर बैठे हैं लेकिन उनमें से एक वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई हैं जिनके चरित्र पर आरोप लगने से इस विवाद की शुरुवात हुई। लेकिन बात वहीं तक सीमित रहती तब तो उसे व्यक्तिगत मानकर उपेक्षित कर दिया जाता क्योंकि मी टू विवाद के बाद इस तरह की बातें आम हो चली थीं किन्तु जब मामला सर्वोच्च न्यायालय में फिक्सिंग और कार्पोरेट घराने के हस्तक्षेप तक जा पहुंचा तब वह बहुआयामी हो गया जिसे लेकर कुछ न्यायाधीश भी प्रवचन नुमा शैली में आग से न खेलने जैसी नसीहत दे रहे हैं। श्री गोगोई के साथ पत्रकार वार्ता में शामिल रहे तीन न्यायाधीश भले ही सेवा से निवृत्त हो गये हों किन्तु मानसिक तौर पर तो स्वस्थ एवं चैतन्य होंगे ही और ऐसे में उनकी इस मुद्दे में उदासीनता आश्चर्यचकित करने वाली है। श्री चेल्मेश्वर, श्री लोकुर और श्री जोसफ नामक उक्त तीनों न्यायाधीश बीते एक वर्ष के दौरान ही सेवा से निवृत्त हुए हैं इसलिए मौजूदा विवाद के मुद्दों से उनका अनभिज्ञ होना गले नहीं उतरता। रही बात उनके पद पर नहीं होने की तो बतौर एक जिम्मेदार नागरिक और विधि विशेषज्ञ देश उनसे अपेक्षा करता है कि वे मुखर होकर सामने आयें। जब पद पर रहते हुए वे अपने वरिष्ठ मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध विद्रोह की शक्ल में आगे आने से नहीं डरे तो अब जबकि वे सेवा शर्तों से जुड़े अनुशासन से मुक्त हैं तब सर्वोच्च न्यायालय की तार-तार हो रही गरिमा को बचाने के प्रति पूरी तरह उदासीन क्यों हैं इस सवाल का जवाब पूरा देश उनसे मांग रहा है। और फिर उनका अपना पुराना जुझारू साथी एक ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया है जिससे निकलने में वह खुद को असहाय महसूस कर रहा है। इस समूचे विवाद में श्री गोगोई की स्थिति उस दुस्साहसी व्यक्ति जैसी हो गयी है जो शेर पर सवार तो हो गया लेकिन अब उतर नहीं पा रहा। न्यायपालिका के बारे में जो-जो भी निम्नस्तरीय बातें सामने आ रही हैं वे नई नहीं हैं। फर्क केवल ये है कि अभी तक जो कान में कहा जाता रहा वह अब सरे आम चिल्लाकर बोला जा रहा है और वह भी ऐसे समय जब देश नई सरकार चुनने की प्रक्रिया में हो। ऐसे में ये अपेक्षा गलत नहीं है कि गंगा की तरह से ही न्यायपालिका की पवित्रता पुनस्र्थापित करने के प्रति भी राजनेता अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करें। जिन दलों और नेताओं ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के विरुद्ध भड़की चिंगारी को पेट्रोल छिड़ककर आग में बदल दिया था वे मुंह में दही जमाए क्यों बैठे हैं ये प्रश्न भी बेहद प्रासंगिक है। केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली को छोड़कर अभी तक किसी भी पार्टी या नेता ने मौजूदा विवाद में अपना मत नहीं व्यक्त किया जबकि चुनाव के मौसम में स्थानीय स्तर के मुद्दों तक पर पूरे देश में बवाल मचा दिया जाता है। अभी 240 से ज्यादा लोकसभा सीटों पर मतदान बाकी है। तब क्या न्यायपालिका में चल रही कीचड़ फेंक प्रतियोगिता पर देश के राजनीतिक नेतृत्व को चुप बैठना चाहिए। सत्ता से जुड़े लोगों के सामने तो फिर भी कुछ व्यवहारिक परेशानियाँ हो सकती हैं लेकिन जब औद्योगिक घरानों की कारस्तानियों से न्यायपालिका की सर्वोच्च आसंदी की गरिमा और प्रतिष्ठा दांव पर लग गई हो और देश को चलाने का अधिकार मांगने वाले चुप बने रहें तब कुछ और सवाल भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो रहे हैं। दीपक मिश्र के विरुद्ध तो बात महाभियोग तक जा पहुंची थी लेकिन श्री गोगोई को लेकर लगे गम्भीर आरोप पर कपिल सिब्बल जैसे कानूनी दिग्गज तक शांत हैं। माना कि अभी आरोपों की जाँच नहीं हुई और उनसे जुड़े अन्य विवादों पर न्यायपालिका ने अपने स्तर पर कदम उठा लिए हैं लेकिन चुनाव लड़ रही विभिन्न पार्टियों को भी न्यायपालिका के मौजूदा सूरते हाल पर अपनी स्थिति और नीति स्पष्ट करनी चाहिए। वरना उनकी खामोशी के गलत अर्थ निकाले जायेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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