Friday 19 April 2019

एक तिहाई मतदाता की उदासीनता चिंताजनक

लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण के मतदान आंकड़े भले ही राजनीतिक दलों को संतोषप्रद लगते हों लेकिन ऐसा लगता है कि देश के बड़े राज्यों और बड़े शहरों में अभी भी एक तबका मतदान में रूचि नहीं रखता। चुनाव आयोग द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार 95 सीटों के लिए हुए चुनाव में औसतन 66 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का उपयोग किया।  इसमें से यदि नोटा में पड़े हुए मत घटा दिए जावें तब तो प्रतिशत और घट जाएगा। यह आंकड़ा भी तब आया जब मणिपुर, पुडुचेरी तमिलनाडु और बंगाल में 75 से 80 प्रतिशत तक मतदान हुआ। यदि वहां के मतदाता भी अन्य राज्यों की तरह ही मतदान करते तब औसत आंकड़ा घटकर 60 फीसदी के करीब पहुंच सकता था। इसका चुनाव परिणामों पर क्या असर पड़ेगा ये अलग बात है लेकिन चुनाव आयोग द्वारा किये जाने वाले इंतजाम और राजनीतिक दलों के जोरदार प्रचार के बावजूद यदि देश का लगभग एक तिहाई मतदाता उदासीन है तो इसका संज्ञान लिया जाना जरूरी है। 66 फीसदी मत भी तब पड़े जब नए-नए मतदाता बने युवाओं ने पहली बार पूरे उत्साह के साथ मताधिकार का प्रयोग किया।  इससे ये आशय भी लगाया जा सकता है कि अतीत में मत देते आये अनेक मतदाता उदासीनता की चादर ओढ़कर घर बैठे रहे।  उप्र में जहां भाजपा, सपा-बसपा गठबंधन और कांग्रेस के बीच जबर्दस्त त्रिकोणीय संघर्ष है और जहाँ से नरेंद्र मोदी, सोनिया गांधी, मायावती, राहुल गांधी और अखिलेश यादव जैसे दिग्गज मैदान में हों वहां का औसत मतदान केवल 62 फीसदी के आसपास रहना विचारणीय प्रश्न है क्योंकि ये कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता लखनऊ अर्थात उप्र से होकर ही जाता है। इसी तरह महाराष्ट्र में जहां भाजपा-शिवसेना और कांग्रेस-राकांपा के बीच जोरदार मुकाबला है वहाँ का मतदान प्रतिशत 57 फीसदी रहा जो केवल राजनीति में रूचि रखने वालों के लिए ही नहीं अपितु समाजशास्त्र के अध्ययनकर्ताओं के लिए भी शोध का विषय है।  2014 के चुनाव में भाजपा को केवल 31 फीसदी मतों के साथ जब 282 लोकसभा सीटें मिल गईं तब विपक्ष सहित राजनीतिक टिप्पणीकार लगातार ये मुद्दा उठाते रहे कि  एक तिहाई जनसमर्थन के बल पर प्रधानमन्त्री बने नरेंद्र मोदी ये दावा करते फिरते हैं कि जनादेश उनके पास है।  वैसे बात गलत नहीं है लेकिन आज़ादी के बाद से शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा जब केंद्र की सत्ता में रही पार्टी के पास 50 फीसदी से ज्यादा मतदाताओं का समर्थन रहा हो। भारतीय लोकतंत्र जिस वयस्क मताधिकार पर आधारित है उसमें मत देना ऐच्छिक है।  बीते कुछ समय से नोटा नामक जो व्यवस्था की गई उससे उन लोगों का भी पता चल जाता है जो चुनाव लड़ रहे किसी भी प्रत्याशी को पसंद नहीं करते हुए तटस्थ रहना पसंद करते हैं। राजनीतिक दल हालाँकि अधिकाधिक मतदान के लिए हरसम्भव प्रयास करते हैं। आजकल चुनाव आयोग की ओर से भी जागरूकता अभियान के अंतर्गत तरह-तरह के  आयोजनों पर पैसा फूंका जाता है।  लेकिन उसके बाद भी एक तिहाई और कहीं-कहीं तो उससे भी ज्यादा मतदाता यदि अपने और देश के भविष्य के प्रति इतने उदासीन रहते हों तब इसे अच्छा लक्षण नहीं माना जा सकता।  बीते। 70 सालों में हमारे देश के सामाजिक जीवन पर राजनीति की छाया इतनी व्यापक और घनी  हो चुकी है कि गाँव में बैठे अनपढ़ से लेकर अभिजात्यवर्गीय क्लब और अन्य उच्चवर्गीय जमावड़ों में भी प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर अधिकाँश समय राजनीति ही चर्चा का विषय रहती है।  सोशल मीडिया पर जितनी सामग्री परोसी जाती है उसमें भी बड़ा हिस्सा सियासत का पाया जाता है लेकिन ये सक्रियता और जागरूकता मतदान के दिन कहाँ चली जाती है , ये शोध का विषय होना चाहिए।  राजनीतिक दलों की सारी कवायद चूंकि सत्ता प्राप्ति के लिए होती है इसलिए वे एक चुनाव संपन्न होते ही आगे के चुनाव में जुट जाते हैं लेकिन उनको इस बात पर भी  विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसा क्या कारण है कि मतदाताओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मतदान करने के प्रति उदासीन बना रहता है। शायद इसका सबसे बड़ा कारण उन वायदों का पूरा नहीं हो पाना है जो घोषणापत्र रूपी चाशनी में लपेटकर बांटे जाते हैं।  सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात ये है कि आम मतदाता के मन में केवल सत्ताधारियों के प्रति ही नहीं वरन विपक्ष के प्रति भी वितृष्णा और अविश्वास का भाव गहराई तक बैठ चुका है।  हर चुनाव में नया मतदाता तो उत्साह के साथ मतदान करता है किन्तु पहले वाले निराश होकर घर बैठ जाते हैं। जिन राज्यों या सीटों पर 75 और 80 फीसदी मतदान हुआ वहां के मतदाताओं की जागरूकता का चुनाव आयोग को प्रचार करना चाहिए। लोकतंत्र जनता के द्वारा संचालित तंत्र है। ऐसे में नेतृत्व की चयन प्रक्रिया में चयनकर्ता की सक्रिय भागीदारी बेहद जरूरी है। देखने में आया है कि मतदान के दिन घर में बैठकर टीवी देखने वाले कथित बुद्धिजीवी ही चुनाव के बाद व्यवस्था नहीं सुधरने को लेकर  सबसे ज्यादा मुंह चलाते हैं।  पुरानी कहावत थी जैसा राजा तैसी प्रजा। लेकिन आज के ज़माने में जैसी प्रजा तैसा राजा होता है। इसलिए राजा या नेता चुनने वाले ही यदि उदासीन हैं तब सत्ता पर बैठे लोगों से सक्रियता और दायित्व बोध की उम्मीद करना भी व्यर्थ है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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