Tuesday 20 June 2023

गीता प्रेस का विरोध मानसिक खोखलेपन का प्रमाण



जब भी सनातन धर्म से जुड़े शुद्ध और प्रामाणिक साहित्य के प्रकाशन का जिक्र आता है तब दुनिया भर में फैले करोड़ों हिन्दू उ.प्र के गोरखपुर नगर में स्थित गीता प्रेस का स्मरण करते हैं। कुछ साल पहले जब ये समाचार फैला कि आर्थिक संकट के चलते गीता प्रेस बंद होने के कगार पर पर है तो सोशल मीडिया सहित विभिन्न माध्यमों में लाखों लोगों ने उसकी सहायता की पेशकश की जिसे उक्त संस्थान ने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। 1923 में स्थापित गीता प्रेस ने अब तक करोड़ों धार्मिक पुस्तकों का न सिर्फ प्रकाशन किया अपितु उसे नाममात्र के मूल्य पर पाठकों तक पहुंचाने का भागीरथी कार्य भी  करता आया है। उसकी मासिक पत्रिका कल्याण के लाखों पाठक हैं। इसका वार्षिक विशेषांक भी अपने आप में एक शोध प्रबंध होता है। लंबे समय तक गीता प्रेस के संपादक रहे ब्रह्मलीन हनुमान प्रसाद पोद्दार ने भारत के प्राचीन आध्यात्मिक ज्ञान को साहित्य के माध्यम से सहेजने का जो महान कार्य किया उसके लिए उनको भारत रत्न दिए जाने की मांग भी होती रही है। गीता प्रेस चाहता तो अपने प्रकाशनों में विज्ञापन छापकर करोड़ों रु. कमा सकता था किंतु उसने सदैव व्यावसायिकता से दूर रहते हुए सनातन धर्म की साहित्य रूपी विरासत को अक्षुण्ण रखने के प्रति अपने को समर्पित रखा । और इसीलिए उसके प्रति श्रद्धा रखने वाले अनगिनत लोग हैं। ऐसे संस्थान का शताब्दी वर्ष निश्चित रूप से सनातन धर्म के करोड़ों अनुयायियों के लिए हर्ष और आत्मगौरव का विषय है। केंद्र सरकार को इस बात के लिए बधाई दी जानी चाहिए जिसने वर्ष 2021 का गांधी शांति पुरस्कार गीता प्रेस को दिए जाने का निर्णय लिया। हालांकि यह संस्थान किसी पुरस्कार अथवा सम्मान का मोहताज नहीं है किंतु सकारात्मक और उच्च स्तरीय आध्यात्मिक साहित्य का जो प्रकाशन उसके द्वारा किया गया वह सनातन धर्म की सबसे बड़ी सेवा कही जा सकती है। पुरस्कार की घोषणा होते ही दुनिया भर से बधाई संदेश आने लगे । लेकिन देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के अति उच्च शिक्षित प्रवक्ता जयराम रमेश ने गीता प्रेस को पुरस्कृत किए जाने की तुलना सावरकर और गोडसे को पुरस्कृत किए जाने से करते हुए अपनी खिसियाहट निकाली। लेकिन उनकी यह प्रतिक्रिया कांग्रेस के ही अनेक नेताओं को रास नहीं आई। आचार्य प्रमोद कृष्णम ने तो गीता प्रेस के विरोध को हिंदू धर्म के विरोध की पराकाष्ठा बताते हुए चेतावनी दी कि पार्टी के जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को ऐसे बयान नहीं देने चाहिए जिनसे होने वाले नुकसान की भरपाई में सदियां लग जाएं। यद्यपि पार्टी की अधिकृत प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आना चौंकाता है क्योंकि राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा इन दिनों कांग्रेस को हिंदुत्व से जोड़ने में लगे हुए हैं। उल्लेखनीय है कि राहुल की भारत जोड़ो यात्रा के अंतिम चरण में जब  दिग्विजय  सिंह ने सेना की सर्जिकल स्ट्राइक पर संदेह जताया था तब श्री रमेश ने ही सबसे पहले उस बयान को श्री सिंह की निजी राय कहकर पार्टी का बचाव किया था। उनकी छवि एक सुलझे हुए नेता की रही है किंतु गीता प्रेस को दिए पुरस्कार की आलोचना कर श्री रमेश ने  अपने मानसिक खोखलेपन को ही उजागर किया है। याद रहे शरद पवार की समझाइश के बाद सावरकर जी के  बारे में तो बोलने की हिम्मत तो श्री गांधी भी नहीं बटोर पा रहे। रही बात गोडसे की तो गीता प्रेस ने स्पष्ट किया कि उसके स्थापना काल से ही महात्मा गांधी के साथ उसके निकट संबंध रहे और बापू के लेख वह उनके जीवनकाल और उनके बाद भी प्रकाशित करता रहा है। इस संस्थान की नीति पुरस्कार नहीं लेने की रही है। फिरभी अपनी शताब्दी पूरी होने पर उसने गांधी शांति पुरस्कार लेने पर तो सहमति दी परंतु उसके साथ मिलने वाली 1 करोड़ रु. की धनराशि स्वीकार करने से साफ इंकार कर दिया। गांधीवादी शैली पर चलते हुए 100 साल का सफर सफलता के साथ पूरा करने वाले संस्थान को पुरस्कृत करने  का  शायद ही कोई समझदार व्यक्ति विरोध करेगा किंतु लगता है या तो श्री रमेश को बुद्धि का अजीर्ण हो गया है या वे राहुल को खुश करने के लिए यह मूर्खता कर बैठे। गीता प्रेस ने सनातन धर्म से जुड़े ग्रंथों के साथ पूजा - पद्धति  और कर्मकांड आदि को साहित्य रूप में प्रकाशित करने का जो कार्य किया वह किसी तपस्या से कम नहीं है। सबसे बड़ी बात उनके प्रकाशन सस्ते होने पर भी गुणवत्ता के पैमाने पर खरे उतरते हैं क्योंकि उनमें गलतियाँ नहीं रहतीं। खास बात ये है अपने आपको सनातन धर्म तक सीमित रखते हुए गीता प्रेस ने कभी भी किसी अन्य धर्म की आलोचना नहीं की । और इसीलिए किसी विवाद में नहीं फंसा। श्रीमद भगवत गीता से शुरू उसका अभियान धीरे - धीरे विस्तृत होता चला गया। ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गीता प्रेस न होता तो सनातन धर्मी न जाने कितने प्राचीन ग्रंथों से अनजान रहते और ऋषि - मुनियों द्वारा प्रवर्तित ज्ञान पर विस्मृतियों की धूल जम चुकी होती। ये देखते हुए  कांग्रेस पार्टी को श्री रमेश की टिप्पणी पर क्षमा मांगने की बुद्धिमत्ता दिखानी चाहिए। वरना आचार्य प्रमोद कृष्णम की बात सच हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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