Tuesday 6 June 2023

मुफ्त उपहार और जाति के समक्ष फीका पड़ जाता है विकास का मुद्दा





जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं वहां जातीय समीकरणों को साधने का प्रयास चल रहा है। हाल ही में संपन्न कर्नाटक के चुनाव में बाकी मुद्दों पर लिंगायत और वोक्कालिंगा भारी पड़े । सिद्धारमैया सरकार में मंत्रीमंडल के सदस्यों का परिचय  उनके जातीय समूह के तौर पर देते हुए ये भी बताया गया कि ऐसा आगामी लोकसभा चुनाव की व्यूह रचना की दृष्टि से किया गया है। हालांकि इसके लिए केवल कर्नाटक ही एकमात्र उदाहरण नहीं है। इस वर्ष जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं वहां की सरकारें और राजनीतिक पार्टियां विभिन्न जातियों को अपने पक्ष में गोलबंद करने में जुटी हुई हैं। ये देखते हुए अपने को जातियों का रहनुमा प्रचारित करने वाले राजनीतिक नेता भी चुनाव के पहले से ही सौदेबाजी करने लग जाते हैं। जातिगत समीकरणों का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि सवर्णों की पार्टी समझी जाने वाली भाजपा सोशल इन्जीनियरिंग नामक हथियार का इस्तेमाल करते हुए सपा और बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए प्रयासरत है तो पिछड़ों की पार्टी कही जाने वाली पार्टी के नेता अखिलेश यादव  ब्राह्मणों को रिझाने परशुराम जी की मूर्ति का अनावरण करने जाते हैं। मायावती ने तो दलितों की सबसे बड़ी प्रतिनिधि पार्टी बसपा का महासचिव पद सतीशचंद्र मिश्र नामक ब्राह्मण को सौंपकर सामाजिक समीकरण अपने पक्ष में झुकाने का दांव चला।जिसके बल पर 2005 में वे स्पष्ट बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बन सकीं। म. प्र में सत्तारूढ़ भाजपा और उसकी प्रमुख प्रतिद्वंदी कांग्रेस भी जातियों के सम्मेलन आयोजित कर उन्हें अपने पाले में लाने के लिए हाथ - पांव मार रही हैं। इसके अलावा मुफ्त उपहारों की भी बरसात हो रही है। कहीं रसोई गैस का सिलेंडर  सस्ता किया जा रहा है तो कहीं महिलाओं के खाते में भी सीधे राशि  जमा हो रही है। विद्यार्थियों को टैबलेट और महिलाओं को मोबाइल बंट रहे हैं । नए - नए विकास कार्य स्वीकृत करने का काम तेजी पर है । गत दिवस राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने गृहनगर जोधपुर में लगभग 50 शिलान्यास और लोकार्पण कर डाले। ऐसा ही नजारा उन सभी राज्यों में है जहां  चुनाव होने वाले हैं। हालांकि आजादी के बाद से ही ये सब होता आया है । जब आचार संहिता वाली बंदिश नहीं थी तब तो मतदान के दो दिन पहले तक सत्ताधारी पार्टी जनता की छोटी - छोटी शिकायतें दूर कर दिया करती थी। लेकिन अब चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद सरकारी वाहन और विश्राम गृह का उपयोग करने के अलावा नई घोषणा करने से सरकार को रोक दिया जाता है। इसलिए चुनाव नजदीक आते - आते तक सरकारें ताबड़तोड़ घोषणाएं करते हुए मतदाताओं को लुभाती हैं । इन सबसे ये साबित होता है कि जिन विकास कार्यों और जन कल्याणकारी योजनाओं के प्रचार पर राज्य सरकारें करोड़ों रुपए लुटाती हैं वे चुनाव आते - आते तक अपना असर खो देती हैं। अन्यथा जातिगत गोलबंदी और चुनाव के ठीक पहले राहत का पिटारा खोलने का क्या मतलब हो सकता है ? म.प्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने एक बार कहा था कि चुनाव मैनेजमेंट से जीते जाते हैं , विकास से नहीं। हालांकि 2003 में बिजली , सड़क और पानी के मुद्दे पर उनकी सरकार  चली गई थी। उसके बाद म.प्र में हर क्षेत्र में जबरदस्त विकास हुआ और वह बीमारू राज्य के कलंक से मुक्त भी हुआ किन्तु 2018 में शिवराज सिंह चौहान सत्ता गंवा बैठे। इसका सबसे अच्छा उदाहरण 2004 का लोकसभा चुनाव है जब राष्ट्रीय राजमार्गों के विकास की स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के अंतर्गत दक्षिण के जिन राज्यों में सड़कों का निर्माण शुरू हुआ वहां भाजपा को नाकामयाबी मिलने से अटल बिहारी वाजपेयी के हाथ से  सत्ता खिसक गई। अविभाजित आंध्र को विकास की नई ऊंचाइयों पर ले जाने वाले चंद्रबाबू नायडू भी सत्ता से बाहर हो गए। ऐसे में ये सवाल काफी तेजी से विचार में आता है। कि क्या भारत की  चुनावी राजनीति में विकास प्रभावशाली मुद्दा नहीं रह गया है और सत्ता में आने और उसके बाद उसमें बने रहने के लिए दूसरे टोटके करने जरूरी हैं । यद्यपि उ.प्र विधानसभा का पिछला चुनाव योगी सरकार के राज में बेहतर कानून व्यवस्था के कारण भाजपा के पक्ष में गया किंतु ये भी उतना ही सही है कि जातीय समीकरणों का इस्तेमाल करते हुए सपा  अपनी सीटें दोगुनी करने में कामयाब रही। यही कारण है कि ममता बैनर्जी और लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं ने अपने राज्य के विकास की बजाय चुनाव जीतने के अन्य तरीके अपनाए। ये निश्चित रूप से दुर्भग्यपूर्ण है। हालांकि आजकल प्रत्येक जनप्रतिनिधि पर अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास का दबाव रहता है किंतु चुनाव के दौरान उत्पन्न तात्कालिक मुद्दे उसकी उपलब्धियों पर पानी फेर देते हैं जो वाकई विचारणीय विषय है । अक्सर ये कहा जाता है कि चुनाव में धर्म और जाति की बजाय शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे  विषयों पर चर्चा होनी चाहिए किंतु जब धर्म और जाति सामने आते हैं तब शिक्षा , स्वास्थ्य और बाकी बातें निरर्थक हो जाती हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी विद्यालयों में सुधार जैसा मुद्दा उठाया किंतु उसकी जीत में मुफ्त बिजली और पानी ज्यादा सहायक बने। आने वाले महीनों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में जिस तरह के प्रलोभन दिए जा रहे हैं उनको देखकर लगता है कि राजनीति विचार  नहीं उपहार पर आधारित हो गई है और जाति की दीवारें तोड़ने के बजाय उन्हें और मजबूत किया जाने लगा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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