Wednesday 7 June 2023

कांग्रेस के बदले रुख से विपक्षी एकता पर खतरे के बादल



विपक्षी एकता के प्रयास अंजाम तक पहुंचने के पूर्व ही में  खटाई में  पड़ते नजर आ रहे हैं। इसका संकेत तब मिला जब 12 जून को पटना में होने वाली विपक्षी दलों की बैठक को टालना पड़ा।  इसका कारण कांग्रेस  अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के पास समय न होना बताया गया है । लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कर्नाटक चुनाव में प्राप्त सफलता के बाद कांग्रेस का हौसला बुलंद  है और वह विपक्षी दलों को यह संदेश देना चाहती है कि उसकी स्थिति उतनी कमजोर नहीं जितनी वे  मान बैठे हैं ।जैसा कि सुनने में आया था नीतीश कुमार और अखिलेश यादव ने 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 250 सीटों पर लड़ने की समझाइश दी थी जिससे सभी सीटों पर भाजपा के  विरुद्ध एक संयुक्त प्रत्याशी उतारकर विपक्षी मतों का विभाजन रोका जा सके। लेकिन इसका संकेत मिलते ही कांग्रेस के रणनीतिकारों ने 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच 350 सीटों पर सीधी टक्कर का हवाला देते हुए इससे कम सीटों पर रजामंद होने से मना कर दिया ।और यहीं से  एकता के प्रयासों में दरार पढ़नी शुरू हो गई। जैसी की जानकारी है नीतीश  भाजपा के विरोध में विपक्ष के जिस मोर्चे  को आकार देने की मुहिम चला रहे हैं उसमें तृणमूल , सपा ,  आम आदमी पार्टी , तेलुगु देशम , वाईएसआर कांग्रेस  और बीआरएस जैसी पार्टियों को शामिल करने का भी इरादा है  । लेकिन कांग्रेस को इनके साथ गठबंधन करने में एतराज भी है और संकोच भी। पंजाब और दिल्ली में कांग्रेस के अनेक नेता आम आदमी पार्टी से हाथ मिलाने के खिलाफ हैं। वहीं ममता बैनर्जी , अखिलेश यादव , के.सी. राव जैसे नेता कांग्रेस को अपने राज्य में पैर जमाने का अवसर नहीं देना चाहते। चंद्रबाबू नायडू के दोबारा भाजपा के साथ आने की अटकलें तेज हैं वहीं जगन मोहन रेड्डी भाजपा से  अघोषित निकटता बनाए रखने की नीति पर चल रहे हैं। कांग्रेस को ये बात भी गंवारा नहीं हो रही कि नीतीश इस मोर्चे के शिल्पकार बनकर विपक्षी एकता का चेहरा बनें। दरअसल भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस को ये लगने लगा है कि राहुल अब पप्पू की छवि को ध्वस्त करते हुए नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर उभर रहे हैं । विभिन्न सर्वेक्षणों में हालांकि वे श्री मोदी की तुलना में  काफी पीछे हैं किंतु नीतीश सहित बाकी विपक्षी नेता तो मुकाबले में हैं ही नहीं।  कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस सोचने लगी  है कि विपक्षी गठबंधन की जरूरत अब उससे ज्यादा क्षेत्रीय दलों को है। बिहार  और  महाराष्ट्र सहित कुछ और राज्य हैं जहां कांग्रेस के किनारा कर लेने से उन दलों की स्थिति कमजोर हो जायेगी। जहां तक बात उ.प्र की है तो वहां उसके पास खोने को कुछ नहीं बचा जबकि उसके साथ होने से सपा को कम मतों से हारी सीटों पर ताकत मिल सकती है। दरअसल नीतीश कुमार विपक्षी मोर्चे के संयोजक बनकर दबे पांव प्रधानमंत्री की दौड़ में बने रहना चाहते हैं । उन्हें उन परिस्थितियों की पुनरावृत्ति होने की उम्मीद  है जिनमें एच. डी.देवगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल की लॉटरी खुल गई थी। लेकिन कांग्रेस इस बार किसी भी प्रकार का खतरा मोल लिए बिना गठबंधन के अस्तित्व में आने के साथ ही प्रधानमंत्री पद का निर्णय भी कर लेना चाहती है। इसीलिये कांग्रेस को 250 सीटों पर लड़ने का प्रस्ताव  मंजूर नहीं है क्योंकि  यह फॉर्मूला प्रधानमंत्री की कुर्सी पर उसका दावा कमजोर कर सकता है । इस प्रकार विपक्ष की 12 जून को होने वाली बैठक का टलना कांग्रेस की नई रणनीति का हिस्सा है जिसके अंतर्गत वह क्षेत्रीय दलों की शर्तों की बजाय अपनी शर्तों पर विपक्षी एकता को शक्ल देना चाह रही है । उसे ये भी समझ में आने लगा है कि ममता , के.सी.राव और अरविंद केजरीवाल के साथ गठजोड़ चुनाव बाद की परिस्थितियों में उसके लिए नुकसानदेह होगा। सुनने में आया है कि राहुल गांधी चाह रहे हैं कि इसी साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव तक विपक्षी गठबंधन  को लंबित रखा जाए। और यदि उनमें भी उसे हिमाचल और कर्नाटक जैसी सफलता मिल गई तब उसका हाथ सौदेबाजी में काफी ऊंचा हो जायेगा। उल्लेखनीय है म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उसका भाजपा से सीधा मुकाबला है। आम आदमी पार्टी यहां उपस्थिति दर्ज कराने हाथ पैर मार रही है जिससे कांग्रेस में चिंता है। विपक्षी मोर्चे के बनने के पहले वह इस बात की प्रति आश्वस्त होना चाहेगी कि क्षेत्रीय दल उसके लिए नुकसानदेह न हों। हालांकि पटना बैठक की संभावना अभी खत्म नहीं हुई है किंतु कांग्रेस ने 12 जून को उसका आयोजन रोककर आशंकाओं को जन्म दे दिया है। पार्टी को नीतीश का मेजबान बनना भी अच्छा नहीं लग रहा । बड़ी बात नहीं कांग्रेस अगली बैठक दिल्ली में आयोजित करे और खुद उसकी आयोजक बनकर बड़े भाई की भूमिका में वापस लौटे। ऐसा करने से उसे उन विपक्षी दलों की पहिचान हो जायेगी जो गठबंधन में रहते हुए भी उसे पसंद नहीं करते। जाहिर है ममता , अखिलेश और के.सी.राव जैसे नेता कांग्रेस की मेजबानी शायद ही स्वीकार करेंगे। बहरहाल इन सबसे ये लगने लगा है कि नीतीश कुमार द्वारा जिस उत्साह के साथ पटना में विपक्षी जमावड़ा किया जा रहा रहा वह ठंडा पड़ने लगा है। सही मायनों में कांग्रेस विपक्षी एकता का श्रेय और नेतृत्व आसानी से किसी और नेता को देने तैयार नहीं है। राहुल की अमेरिका यात्रा से भी पार्टी में उत्साह है। उसे लगने लगा है कि श्री गांधी ही विपक्षी नेताओं में अकेले हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर पहिचान रखते हैं ।  इसलिए विपक्षी मोर्चे की कमान भी उसी के हाथ में होना चाहिए। देखना ये है कि नीतीश , ममता , अखिलेश , के.सी राव और अरविंद केजरीवाल क्या कांग्रेस के झंडे के नीचे खड़ा होना पसंद करेंगे और राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार स्वीकार करने की शर्त उनको मंजूर होगी ?

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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