Monday 12 June 2023

अफीम से भी खतरनाक नशा है मुफ्तखोरी



अरविंद केजरीवाल इस बात से परेशान हैं कि मुफ्त बिजली का उनका चुनाव जिताऊ मंत्र अन्य पार्टियों ने भी सीख लिया । हाल ही में उनका एक बयान आया जिसमें वे खीजते हुए कह रहे थे कि चलो अच्छा हुआ बाकी पार्टियां भी उनकी नकल करते हुए जनता को लाभ पहुंचाने तैयार हुईं। वैसे भी इस समय देश में मुफ्त उपहार बांटने  की होड़ लगी हुई है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने पहले महिलाओं को मोबाइल फोन के साथ तीन साल तक का डेटा मुफ्त देने की बात कही। जब एक करोड़ से ज्यादा मोबाइल खरीदने की व्यवस्था न हो सकी तब ये ऐलान कर दिया गया कि उसकी कीमत उनके खातों में जमा कर दी जावेगी।  म.प्र में भी कांग्रेस ने भाजपा सरकार द्वारा लाड़ली बहना योजना नामक ब्रह्मास्त्र के अंतर्गत 1 हजार प्रतिमाह दिए जाने के जवाब में 1500 रु. हर महीने देने का वायदा कर दिया है ,मुफ्त और सस्ती बिजली के अलावा सस्ता रसोई गैस सिलेंडर और पुरानी पेंशन की बहाली अलग से। जिन भी राज्यों में चुनाव होने वाले हैं वहां मतदाताओं को ग्राहक की तरह लुभाने के लिए राजनीतिक पार्टियां डिस्काउंट सेल की तर्ज पर अपनी दुकानें खोलकर बैठ गई हैं । ऐसे में क्षेत्रीय से राष्ट्रीय पार्टी बनकर पूरे देश में छा जाने को बेताब आम आदमी पार्टी को ये चिंता सताने लगी है कि जब सभी पार्टियां मुफ्त उपहारों की बरसात करेंगी तब मतदाता उसे क्यों आजमाएंगे ? उदाहरण के लिए हिमाचल और गुजरात में मुफ्त बिजली और मोहल्ला क्लीनिक की गारंटी वाला उसका दांव औंधे मुंह गिरा। पंजाब में कांग्रेस की अंतर्कलह और भाजपा - अकाली गठबंधन टूटने का लाभ जरूर उसे मिला। लेकिन धीरे - धीरे ही सही मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाली इन योजनाओं से भी जनता को विरक्ति होने लगेगी , यदि उसकी रोजमर्रा की दिक्कतें जस की तस बनी रहीं तो। उदाहरण के लिए म.प्र में शिवराज सरकार ने महिलाओं को 1 हजार रु. हर महीने देने की बात कही तो कांग्रेस 1500 का वायदा लेकर आ गई। इस पैंतरे का मुकाबला करने के लिए मुख्यमंत्री ने लाड़ली बहना योजना के अंतर्गत दी जा रही राशि को क्रमशः बढ़ाते हुए 3 हजार तक ले जाने की घोषणा कर डाली। साथ ही उसकी पात्रता आयु घटाकर 21 वर्ष कर दी। कांग्रेस इसका क्या जवाब देती है ये भी देखना होगा। राजनीतिक पार्टियों की इस दरियादिली को देखकर जनता के एक वर्ग में इस बात की नाराजगी है कि केवल चुनाव के समय ही इतनी उदारता क्यों दिखाई जाती है ? और फिर जो करदाता हैं उनके भीतर  भी ये सवाल रह - रहकर कौंधता है कि उनसे वसूले जाने वाले कर का उपयोग वोटों की खरीद - फरोख्त के लिए किया जा रहा है। हालांकि अपवाद स्वरूप कुछ को छोड़ सभी राजनीतिक दल चुनाव में  बाजारवाद को लेकर कूदने लगे हैं। यद्यपि जरूरतमंदों की जिंदगी आसान करने के लिए सरकार द्वारा सहायता का हाथ बढ़ाना लोक कल्याणकारी राज्य का मूलभूत सिद्धांत है। शिक्षा , स्वास्थ्य , रोजगार हमारे देश की प्रमुख जरूरत है। ऐसा नहीं है कि इस दिशा में कुछ नहीं हुआ  किंतु  वह अपर्याप्त है। और इसीलिए जनता के मन में व्यवस्था के प्रति असंतोष और आक्रोश बढ़ता जा रहा है। जब तक कांग्रेस का एकाधिकार रहा तब तक उसे मुफ्त उपहार की चिंता नहीं रही। लेकिन जब सत्ता बदलने लगी तब राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनाव दर चुनाव  नए वायदों के साथ मैदान में उतरने की नीति अपनाई जाने लगी। बात आरक्षण  और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण से जातिवाद तक आने के बाद  धार्मिक ध्रुवीकरण पर आकर टिकी किंतु अंततः नजर मतदाता की जेब पर गई और फिर शुरू हुआ मुफ्त खैरातें बांटने का सिलसिला जो रुकने का नाम नहीं ले रहा। स्व.अर्जुन सिंह ने म.प्र में एक बत्ती कनेक्शन के जरिए मुफ्त बिजली देने की शुरुवात की और साथ में गरीबों को सरकारी जमीनों के  पट्टे भी बांटे जाने लगे। नतीजा ये  हुआ कि देश का सबसे समृद्ध म. प्र विद्युत मंडल बदहाली के कगार पर जा पहुंचा।और सरकारी जमीन पर कब्जे की होड़ में झुग्गी - झोपड़ियों का जाल फैलता गया। आने वाली सभी सरकारों ने कमोबेश इसी नीति को जारी रखा। नाम और स्वरूप जरूर  बदलते गए। धीरे -  धीरे ये चलन राष्ट्रव्यापी हो गया। होना तो ये चाहिए था कि  गरीबों की सामाजिक , आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में सुधार किया जाता । लेकिन जिस तरह आरक्षण का दायरा बढ़ाने  के बाद भी अनु. जाति/जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों की  बेरोजगारी खत्म नहीं की जा सकी उसी तरह से मुफ्त उपहारों की ये प्रतिस्पर्धा भी मतदाताओं को लुभाने में कहां तक सफल होगी ये बड़ा सवाल है। सबसे बड़ी बात ये है  कि इन घोषणाओं और प्रलोभनों से चुनाव जीतने में भले आसानी होती होगी किंतु बुनियादी समस्याएं यथावत हैं। उदाहरण के तौर पर आजादी के 75 साल बाद भी आरक्षण अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल साबित हुआ । उसके नाम पर चुनाव भले जीते जाते रहे हों लेकिन समाज को जातियों में तोड़ने का बड़ा अपराध भी हुआ। इसी तरह चुनावी खैरातों का अंतिम परिणाम समाज में  असंतोष को बढ़ावा देने वाला ही होगा क्योंकि इसके दूरगामी नतीजे आर्थिक खोखलेपन को जन्म देंगे। बेहतर है देश में अधोसंरचना के कामों पर अधिकाधिक खर्च हो और  मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने की जगह करों का बोझ कम करते हुए महंगाई को नियंत्रित करते हुए समाज के सभी वर्गों को राहत देने की व्यवस्था की जाए। मसलन राजस्थान और म.प्र में सबसे महंगा पेट्रोल - डीजल है लेकिन कोई भी पार्टी इनको सस्ता किए जाने की बात नहीं कर रही जबकि ऐसा होने पर महंगाई पर तत्काल नियंत्रण किया जा सकता है। समय आ गया है जब केवल चुनाव जीतने और फिर सत्ता में बने रहने के लिए सौदेबाजी करने की  बजाय करोड़ों लोगों का उपयोग उत्पादकता बढ़ाने हेतु किया जावे । ध्यान रहे जरूरत से ज्यादा मुफ्तखोरी अफीम से भी ज्यादा खतरनाक नशा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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