Friday 30 June 2023

तब क्या राज्य का शासन जेल से चलेगा



तमिलनाडु के एक मंत्री  सेंथिल बालाजी  14 जून को भ्रष्टाचार के मामले में ईडी द्वारा गिरफ्तार  किए गए थे। उनकी न्यायिक हिरासत 12 जुलाई तक बढ़ा दी गई है। उसके बाद भी न तो उन्होंने इस्तीफा दिया और न ही मुख्यमंत्री स्टालिन ने उन्हें हटाने की पहल की। आज की भारतीय राजनीति में ये बेहद साधारण घटना कही जायेगी किंतु राज्यपाल आर. एन.रवि ने उक्त मंत्री को ये कहते हुए बर्खास्त करने का फैसला कर डाला कि पद पर रहते हुए वे जांच को प्रभावित कर रहे हैं। मंत्री की नियुक्ति या बर्खास्तगी यद्यपि करते राज्यपाल या राष्ट्रपति ही हैं लेकिन इसके लिए मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री की सिफारिश जरूरी मानी जाती है। इस प्रकरण में राज्यपाल की कार्रवाई पर विवाद इसलिए उठा क्योंकि उन्होंने बिना मुख्यमंत्री की सलाह के ही भ्रष्टाचार के मामले में फंसे मंत्री की बर्खास्तगी का फरमान जारी कर दिया। जब मुख्यमंत्री ने इसे अदालत में चुनौती देने की घोषणा की तब केंद्र सरकार की समझाइश पर राज्यपाल ने अपने निर्णय को स्थगित करते हुए एटार्नी जनरल से सलाह लेने के उपरांत आगे बढ़ने का फैसला किया। अब इस बात पर  बहस चल पड़ी है कि राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख होने के बावजूद क्या किसी मंत्री को बिना मुख्यमंत्री की सहमति के बर्खास्त कर सकते हैं ? आजादी के बाद अपनी तरह का ये पहला मामला होने से   कानूनी अनिश्चितता की स्थिति बन गई है। हालांकि राज्यपाल ही मंत्रियों की नियुक्ति करते हैं और वे ही उनको शपथ भी दिलवाते हैं । लेकिन हमारे संविधान में निर्वाचित मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री सरकार का मुखिया होता है इसलिए संवैधानिक प्रमुख होने के बावजूद राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधिकार सीमित होते हैं। इस प्रकरण में भी यदि राज्यपाल श्री रवि भ्रष्टाचार के आरोप में ईडी द्वारा गिरफ्तार मंत्री को मंत्री पद से हटाए जाने के लिए मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर अपनी मंशा बताते तब दबाव श्री स्टालिन पर बना होता। राज्यपाल ने जो कार्रवाई की वह केंद्र के इशारे पर थी या स्वविवेक से किया गया फैसला , ये तो स्पष्ट नहीं है किंतु जिस तरह से उन्होंने अपने ही फैसले को स्थगित किया उससे स्पष्ट है केंद्र सरकार भी ये मान बैठी कि उक्त फैसला राजनीतिक तौर पर विवाद का कारण  बनने के साथ ही वैधानिक  दृष्टि से गलत साबित हो सकता है। इसीलिए बिना देर किए उस पर अमल रोक दिया गया। दरअसल मौजूदा राजनीतिक हालात में केंद्र सरकार तमिलनाडु की द्रमुक सरकार से टकराव को टालना चाहेगी। खैर , कानून की नजर में राज्यपाल के फैसले की वैधानिकता तय करना अदालत का काम है लेकिन इस प्रकरण का जो नैतिक पहलू है उस पर भी विचार किया जाना समय की मांग है। पहले ये परंपरा थी कि सरकार में बैठे किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी होने के पहले ही वह पद से इस्तीफा दे दिया करता था। म.प्र की पूर्व मुख्यमंत्री उमाश्री भारती ने कर्नाटक के हुबली शहर में 144 धारा तोड़ने के प्रकरण में गिरफ्तारी वारंट आने के बाद जब पुलिस उन्हें गिरफतार करने भोपाल आई तो इस्तीफा दे दिया जबकि वहां पहुंचते ही उनको  तत्काल रिहाई भी मिल गई। ये बात अलग है कि भाजपा की आंतरिक राजनीति के चलते वे दोबारा सत्ता में नहीं आ सकीं। और भी अनेक मामले हैं जिनमें सत्ताधारी मंत्री को गिरफ्तारी के चलते इस्तीफा देना पड़ा। उल्लेखनीय है शासकीय कर्मचारी या अधिकारी को सेवा शर्तों के अनुसार 48 घंटे तक हिरासत में रहने पर  निलंबित कर दिया जाता है। उस दृष्टि से मंत्री भी लोक सेवक है और सरकारी खजाने से  वेतन - भत्ते और अन्य सुविधाएं प्राप्त करता है। लिहाजा उसके बारे में भी ऐसा नियम क्यों नहीं है,  ये बड़ा सवाल है। राजनीति में डूबे लोग जब अपने सिर पर तलवार लटकती है तब राजनीतिक प्रतिशोध का हल्ला मचाते हुए बच निकलना चाहते हैं। तमिलनाडु के मंत्री ने जेल जाने पर यदि पद नहीं छोड़ा तो उसके लिए उनके सामने प्रेरणा के तौर पर उद्धव ठाकरे और अरविंद केजरीवाल सरकार के दो मंत्रियों के मामले थे जिन्हें जेल जाने के बावजूद मंत्री बनाए रखा गया । लेकिन तमिलनाडु का कोई सरकारी कर्मचारी अथवा अधिकारी यदि  सीबीआई , आयकर अथवा ईडी जैसी केंद्रीय एजेंसी द्वारा गिरफ्तार कर जेल भेजा जाता तब भी क्या मुख्यमंत्री राजनीतिक दुर्भावना का आरोप लगाकर उसका निलंबन रोके रहते ? इस तरह के सवाल आजकल लगातार उठ रहे हैं। हालांकि इसके लिए किसी एक या कुछ राजनीतिक दलों को ही कठघरे में खड़ा करना पक्षपात होगा क्योंकि ज्यादातर का आचरण काफी कुछ एक जैसा हो चला है। स्व.लालबहादुर शास्त्री द्वारा रेल दुर्घटना होने पर मंत्री पद छोड़ देने का अनुसरण करने की अपेक्षा दूसरे दल से तो की जाती है किंतु खुद उस पर अमल करने कोई तैयार नहीं है। तमिलनाडु के राज्यपाल ने संविधान के अनुसार सही किया या गलत इसका फैसला सर्वोच्च न्यायालय को करना चाहिए जिससे भविष्य में ऐसा विवाद उत्पन्न न हो। लेकिन इसके साथ ही उसे  भ्रष्टाचार के मामले में जेल जाने के बाद भी मंत्री को न  हटाए जाने की नई राजनीतिक शैली पर भी अपनी राय स्पष्ट शब्दों  में देना चाहिए क्योंकि कल को किसी मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तारी के जेल जाना पड़े और वह त्यागपत्र देने से इंकार करे तब राज्य का शासन क्या जेल से चलेगा ? 


-रवीन्द्र वाजपेयी 

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