Monday 29 July 2019

सावधान : हम सब खा रहे धीमा जहर

हमारे देश में किसी भी चीज की लहर सी आती है। मप्र में इन दिनों नकली दूध और उससे बनने वाले पदार्थों की धरपकड़ का दौर चल रहा है। सरकारी अमला पूरे जोश में है। शहरी बस्तियों के बीच नकली, दूध, घी, पनीर, मावा जैसी चीजें बनाने का  सुनियोजित कारोबार लम्बे से से चला आ रहा था। नकली दूध में प्रयुक्त होने वाली चीजों को लेकर होने वाला खुलासा चौंकाने वाला है। मिठाइयों सहित अनेक खाद्य सामग्रियों में भी दूध, घी, मावा और पनीर का उपयोग होता है इसलिए ये सीधे-सीधे जनस्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। आज खबर आ गई कि प्रदेश सरकार के अपने उपक्रम दुग्ध संघ के कुछ टैंकरों को भी मिलावटी दूध के संदेह में रोक लिया गया। उल्लेखनीय है दुग्ध संघ भी दुग्ध उत्पादकों से दूध खरीदकर बेचता है और उसकी अपनी कोई डेरी नहीं है। नकली दुग्ध उत्पाद बनाना आर्थिक दृष्टि से बेहद सस्ता पड़ता है और जाहिर है जो व्यापारी इन्हें खरीदता है वह भी मुनाफे के फेर में लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करता है। ये कारोबार नया नहीं है। बरसों से केवल मप्र ही नहीं वरन पूरे देश में मिलावटी खाद्य सामग्री का व्यापार धड़ल्ले से चला आ रहा है। बीच-बीच में दिखावे के तौर पर सरकारी विभाग धरपकड़ सप्ताह या पखवाड़े की तर्ज पर छापामारी करते हुए अपनी ईमानदारी और कार्यकुशलता का झंडा फहराते घूमते हैं और फिर उसके बाद सब जैसे थे की स्थिति में लौट आता है। मिलावटखोरों से जप्त किये गये सैम्पल जाँच संस्थानों में भेजे जाते हैं लेकिन उनकी रिपोर्ट क्या और कब आती है ये पता ही नहीं चलता। सैकड़ों में से एकाध को अपवादस्वरूप सजा मिल पाती है और वह भी अपील में छूट जाता हो तो बड़ी बात नहीं। साल में दो-चार बार ये अभियान समाचार माध्यमों की सुर्खियाँ बनता है। रक्षाबंधन, दीपावली, होली जैसे त्यौहारों के पहले मिठाई वालों के यहाँ दबिश देकर कार्रवाई करने का ढोंग किया जाता है। लेकिन दो-चार दिन की धमाचौकड़ी के बाद हालात सामान्य हो जाते हैं। मिठाई वालों का तर्क है कि वे बाजार से दूध, मावा और पनीर जैसी चीजें खरीदते हैं जिनकी शुद्धता पता लगाने का कोई साधन उनके पास नहीं है। यही बात मावा बेचने वाले कहते हैं कि वे तो बाहर से माल मंगवाते और बेचते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि दूध और उससे बने उत्पादों की शुद्धता और प्रामाणिकता की जाँच करने के इंतजाम क्यों नहीं किये गये? इस सबके बीच एक और तथ्य परेशान करने वाला है कि देश में दूध की मांग और पूर्ति में बड़ा असंतुलन है। बढ़ती आबादी और घटते पशुधन के कारण प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता भी जरूरत के लिहाज से बेहद कम है। ऐसे में दुग्ध उत्पादों से बनने वाली खाद्य सामग्री की आपूर्ति में बेतहाशा वृद्धि चौंकाने वाली है। शासन के खाद्य विभाग के दिमाग में इतनी सी छोटी सी बात न आती हो ये मान लेना कठिन है। और फिर दूध और उससे बनी चीजें ही नहीं बल्कि खाने-पीने की लगभग हर वस्तु की शुद्धता संदेह के घेरे में है। यहाँ तक कि बोतल बंद पीने के पानी तक में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक चीजें होने की बात भी अक्सर चर्चा में आती रही हैं। पैक की हुई खाद्य सामग्री को खराब होने से बचाने के लिए उनमें मिलाये जाने वाले रासायनिक तत्व भी मानव स्वास्थ्य के लिए घातक प्रमाणित हो चुके हैं लेकिन उनके उपयोग को रोकने की फिक्र भी किसी को नहीं है। उपभोक्ताओं के हितों के लिए कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाएं हालाँकि अपने स्तर पर समुचित प्रयास करती हैं लेकिन मिलावटखोरों की ताकत के आगे सरकारी अमला पूरी तरह घुटनाटेक रहता है। न्यायिक दंड प्रक्रिया भी इतनी लम्बी और जटिल है कि अधिकतर अपराधी बच निकलते हैं। जहां तक बात जनसाधारण में जागरूकता की है तो शिक्षा का अभाव भी बहुत बड़ी बाधा है। खाद्य सामग्री पर लिखी गई जानकारी यहाँ तक कि एक्सपायरी तारीख तक पढऩे की फिक्र अच्छे खासे शिक्षित लोगों तक में नहीं होती। प्रश्न ये भी उठता है की यदि सरकारी एजेंसी द्वारा बेची जाने वाली खाद्य सामग्री को लेकर भी संदेह पैदा हो जाए तब आम उपभोक्ता क्या करे? सभी जानते हैं कि मप्र में मिलावटी और नकली दूध तथा उससे बनी चीजों के विरूद्ध चलाया जा रहा सरकारी अभियान क्षणजीवी है। कुछ दिन के हल्ले के बाद बाद हालात फिर ढर्रे पर लौट आयेंगे लेकिन समय आ गया है जब केवल सरकार ही नहीं बल्कि पूरा समाज जागरूक होकर इस स्थिति को सुधारने कमर कसे। भारत पाम आयल का सबसे बड़ा आयातक है। इसका उपयोग खाद्य तेलों में होने की जानकारी आने के बाद भी सरकारी एजेंसियों के हाथ बंधे हुए हैं। मोदी सरकार ने आम जनता के लिए आयुष्मान भारत योजना शुरू की है जिसके अंतर्गत पांच लाख तक के इलाज की सुविधा दी जाती है लेकिन खाद्य सामग्री में होने वाली खतरनाक मिलावट को रोका जा सके तो लोगों को असाध्य बीमारियों से बचाकर देश को स्वस्थ रखा जा सकता है। हालाँकि ये काम बेहद कठिन है क्योंकि हमारे देश में इंसानी चरित्र की शुद्धता ही संदिग्ध हो चली है। मिलावट करने वाला जानता है कि उसकी करतूत लोगों के लिए कितनी नुकसानदेह है लेकिन पैसे की अंधी वासना उसे लालच के गहरे कुए में उतारती चली जाती है। जहर खाकर जान देने वाले की मौत तो खबर बन जाती है लेकिन देश के करोड़ों लोगों को धीमा जहर देकर उनकी जिन्दगी को खतरे में डालने के कारोबार को लेकर न दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर कोई धरना देता है और न ही संसद में हंगामा होता है। दरअसल आम जनता कारोबारियों की नजर में उपभोक्ता और नेताओं के लिए महज मतदाता बनकर रह गई है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment