Thursday 11 July 2019

मप्र का बजट : आर्थिक कम राजनीतिक ज्यादा

मप्र के वित्तमंत्री तरुण भनोट वैसे तो दूसरी बार के विधायक ही हैं लेकिन उनकी परवरिश राजनीतिक माहौल में होने के कारण वे एक मंजे हुए राजनीतिक नेता के तौर पर स्थापित हो चुके हैं। 2013 में पहली बार विधायक बनने के पहले वे दो बार विधानसभा चुनाव हारे भी थे। उनके पिताश्री विधायक और चाचा राज्य सरकार में मंत्री रह चुके थे। शायद यही वजह रही जिसके कारण कमलनाथ ने उन्हें अपनी सरकार में वित्त जैसा महत्वपूर्ण विभाग देकर अपना भरोसा जताया। हालाँकि श्री भनोट की शैक्षणिक योग्यता पर अनेक सवाल उठे लेकिन उनके राजनीतिक अनुभव के आगे सारी आलोचनाएं ठंडी पड़ गईं। गत दिवस उन्होंने प्रदेश का जो बजट विधानसभा में पेश किया उसमें सभी वर्गों के लिए सौगातों का पिटारा तो दरियादिली से खोल दिया गया लेकिन कोई नया कर नहीं लगाये जाने की वजह से बजट की व्यवहारिकता पर प्रश्न उठ रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण राज्य सरकार के सिर पर लदा 1 लाख 85 हजार करोड़ का कर्ज है। हालाँकि इसके लिए कमलनाथ सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि बीते वित्तीय वर्ष में ही 30 हजार करोड़ का कर्ज बढ़ गया। शिवराज सरकार ने चुनावी साल में जमकर खजाना उलीचा जिसका खामियाजा मौजूदा सरकार को भुगतना पड़ रहा है। सत्ता सँभालते ही नया कर्ज लेने की नौबत आना इसका प्रमाण है। लेकिन दिग्विजय सिंह  जब 2003 में सत्ता छोड़कर गये थे तब तो मप्र बीमारू राज्य कहलाता था। दरअसल लोकप्रिय बजट के फेर में सरकारें घाटे की अर्थव्यवस्था को जारी रखने में जरा भी नहीं झिझकतीं। कमलनाथ सरकार के पास चूँकि स्पष्ट बहुमत नहीं है इस कारण उसके स्थायित्व को लेकर पहले दिन से संशय बना हुआ है। भाजपा वाले तो ऐसा दावा खुले आम करते रहते हैं कि वे सरकार को जब चाहे गिरा सकते हैं। ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि कर्नाटक का अभियान पूरा होते ही अमित शाह का आपरेशन लोटस मप्र में भी शुरू होगा। ऐसी स्थितियों में श्री भनोट के समक्ष ऐसा बजट पेश करने की अनिवार्यता थी जो जनता पर किसी तरह का बोझ न डाले और जिससे सभी वर्ग भले ही खुश न हों तो कम से कम नाराज भी न हों। उस दृष्टि से उनके बजट का मूल्यांकन आर्थिक आधार पर करने की बजाय राजनीतिक दृष्टिकोण से करना ही सही होगा क्योंकि उसका पूरा फोकस भी भावी राजनीतिक चुनौतियों पर ही है। यदि भाजपा के दावों के विपरीत ये सरकार चलती भी रही तब उसे निकट भविष्य में ही स्थानीय निकायों के चुनावों का सामना करना पड़ेगा। ये कहना भी गलत नहीं है कि विधानसभा चुनाव में मिली सफलता के बाद कांग्रेस में जो उत्साह और दमखम दिखाई देने लगा था वह लोकसभा चुनाव के बाद कमजोर तो पड़ा ही है। केंद्र की सत्ता में दोबारा लौटने के बाद भाजपा मप्र में अपनी वापिसी के लिए पूरे उत्साह से मैदान में उतरने के लिए तत्पर है। कर्ज माफी में देरी से किसानों और स्थानान्तरणों का कम जारी रहने से नौकरशाही में नाराजगी बढ़ी है। वहीं बिजली आपूर्ति की स्थिति गड़बड़ाने की वजह से आम जनता में कांग्रेस के प्रति गुस्सा है। ये बात सही है कि सरकार अपने कामकाज को ठीक तरह से संभाल पाती उसके पहले ही लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लागू हो गई जिसकी वजह से चुनावी वायदों को पूरा करने में बाधा आई। किसानों के कर्जे समय पर माफ नहीं होने से भी कांग्रेस की साख गिरी जिसका असर लोकसभा चुनाव में मिली जबर्दस्त पराजय के रूप में सामने आया। ऐसे में श्री भनोट के सामने सिर मुड़ाते ही ओले पडऩे वाली स्थिति खड़ी थी जिसकी वजह से उन्हें एक रक्षात्मक बजट पेश करना पड़ा वरना अमूमन सरकार अपने पहले बजट में जनता की नाराजगी लेने का जोखिम उठाने में नहीं डरती। ताजा उदाहरण सत्ता में लौटने के बाद मोदी सरकार का पहला बजट है जिसमें वित्तमंत्री  निर्मला सीतारमण ने न तो मध्यम वर्ग को संतुष्ट किया और न ही उद्योग-व्यापार जगत को। प्रधानमंत्री भी अतीत में कह चुके थे कि वे चार साल सरकार चलाते और चुनावी साल में राजनीति करते हैं। लेकिन श्री भनोट के पास ये दुस्साहस करने की गुंजाइश नहीं थी और इसीलिये उन्होंने ऐसा बजट पेश किया जिससे लोगों में कांग्रेस के प्रति विधानसभा चुनाव वाला लगाव बना रहे। हालाँकि ऐसा करने के बाद उनकी मुसीबतें कम हो गईं हों ऐसा नहीं है क्योंकि जिन विकास योजनाओं की घोषणा बजट में की गई उनके लिए संसाधन जुटाना आसान नहीं होगा। बजट का एक तिहाई से भी ज्यादा तो वेतन और पेंशन की भेंट चढ़ जाएगा। वहीं 14 हजार करोड़ से भी ज्यादा ब्याज चुकाने पर खर्च होंगे। हालाँकि केन्द्रीय बजट में पेट्रोल-डीजल पर दो रु. प्रति लिटर बढ़ाए जाते ही मप्र सरकार ने भी उसकी आड़ में उतनी ही वृद्धि कर बजट के पहले ही जनता के जेब पर कैंची चलाने की चालाकी दिखाते हुए राजस्व बटोरने का इंतजाम कर लिया लेकिन जीएसटी लागू होने के बाद करों का हिस्सा केंद्र से मिलने की जो व्यवस्था बन चुकी है उसकी वजह से राज्य सरकार की वित्तीय स्वायत्तता में काफी कमी आई है और उसे केन्द्रांश पर निर्भर रहना पड़ता है। बावजूद इसके प्रदेश की कांग्रेसी सरकार के इस बजट ने जनता की नाराजगी से बचने का जो प्रयास किया वही इसकी उपलब्धि है। मौजूदा राजनीतिक और वित्तीय हालातों में श्री भनोट इससे ज्यादा या बेहतर और कुछ कर भी नहीं सकते थे। रही बात विपक्ष द्वारा की जा रही आलोचना की तो वह अपना धर्म निभा रहा है। यदि यही बजट भाजपा का होता तब कांग्रेस भी यही करती होती। वैसे वित्तमंत्री के समक्ष असली चुनौती तो बजट के प्रावधानों को अमली जामा पहिनाने की होगी क्योंकि पैसे का काम पैसे से ही होता है अच्छी-अच्छी बातों से नहीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment