Monday 22 July 2019

ये पुण्य कार्य आपने क्यों नहीं किया मनमोहन जी

पूर्व प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह की बौद्धिकता और पेशेवर योग्यता असंदिग्ध है। भले ही एक राजनीतिक के रूप में वे उतने  प्रभावशाली नहीं रहे और प्रधानमन्त्री के तौर पर भी  इतिहास उन्हें ज्यादा महत्व नहीं देगा लेकिन बतौर आर्थिक चिन्तक उन्होंने देश को मुक्त अर्थव्यवस्था का जो रास्ता  दिखाया उसकी आलोचना करने वाली पार्टियाँ भी उसी पर चलने को मजबूर हो गईं। यहाँ तक कि वामपंथी राज्य सरकारें भी विदेशी निवेश के पीछे चक्कर लगाते  देखी जाने लगीं। इसीलिये जब डा. सिंह सुप्रसिद्ध वामपंथी नेता और सीपीआई दिग्गज स्व. इन्द्रजीत गुप्ता की जन्मशती पर आयोजित समारोह में शिरकत करने आये तब किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। लेकिन उक्त अवसर पर चुनाव सुधार विषय पर बोलते हुए उन्होंने जो कुछ भी कहा वह  जरुर चौंकाने वाला रहा। पूर्व प्रधानमन्त्री ने स्व. इन्द्रजीत गुप्ता की अध्यक्षता में चुनाव सुधार हेतु बनी उस समिति की सिफारिशों  को लागू करने की  आवश्यकता जताई जिसमें  चुनावी खर्च सरकार  द्वारा वहन करने का सुझाव दिया गया था। कामरेड गुप्ता के साथ मनमोहन सिंह जी भी उस समिति के सदस्य थे। लेकिन उस सिफारिश को लागू करने का जो कारण उन्होंने बताया वह जरुर आश्चर्य  में डालता है। बकौल डा. सिंह अब जबकि 90 फीसदी चुनावी चन्दा एक ही दल को मिल रहा हो तब सरकार द्वारा चुनाव का खर्च उठाने की गुप्ता समिति की सिफारिश को लागू कर देना चाहिए। वैसे  ये मांग  नई नहीं है। सत्तर के दशक में जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टी इसकी मांग करती थीं। वामपंथी भी उनके सुर में सुर मिलाया करते थे। उस दौर में कांग्रेस को कुल चुनावी चंदे का 90 फीसदी तो क्या उससे भी ज्यादा हिस्सा मिल जाया करता था। आज तो कम से कम चुनाव आयोग एवं अन्य स्रोतों से विभिन्न पार्टियों को मिलने वाले सफेद धन रूपी चंदे के आंकड़े सामने आ जाते हैं लेकिन उस जमाने  में राजनीतिक दलों को अपना हिसाब किताब पेश करने की न वैधानिक बाध्यता थी और न ही नैतिक। लम्बे समय तक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे स्व. सीताराम केसरी के बारे में तो कहा  जाता था न खाता न बही, जो केसरी कहें वो सही। चुनाव सुधारों को  असली गति टीएन शेषन के चुनाव आयुक्त बनने के बाद मिली लेकिन वह तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार को हजम नहीं हुई और उसने आयोग को तीन सदस्य वाला बनाते हुए श्री शेषन को मुख्य आयुक्त बना दिया। यदि वे अकेले कुछ समय और आयुक्त बने रहते तब चुनाव  प्रक्रिया में काफी सुधार और हो सकते थे हॉलांकि उसके बाद भी बीते दो दशक में आयोग ने जो कदम उठाये उनका बहुत सकारात्मक प्रभाव देखने मिला। फिर भी चुनाव प्रचार पर होने वाले खर्च में ऊपरी कमी चाहे जितनी दिखती हो किन्तु सच्चाई ये है कि चुनाव में पैसा पानी की तरह बहता है। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के लिए आयोग द्वारा निर्धारित खर्च की राशि मजाक बनकर रह गयी है। ऐसे में डा. सिंह ने सरकार द्वारा चुनाव का खर्च वहन  किये जाने विषयक  इन्द्रजीत गुप्ता समिति की सिफारिश लागू किये जाने संबंधी बात उन्हीं की जन्मशती समारोह के मंच से छेड़कर बेहद सामयिक मुद्दा उठाया लेकिन उसी के साथ पूर्व प्रधानमन्त्री को इस बात का स्पष्टीकरण भी देना चाहिए कि जब उस समिति के सदस्य के तौर पर वे उस सिफारिश से सहमत थे तब 10 वर्ष तक देश के प्रधानमंत्री रहते हुए उन्हें उस सिफारिश को लागू करने का ख्याल क्यों नहीं आया? बहरहाल उनकी इस बात के लिए अवश्य प्रशंसा होनी चाहिए कि उन्होंने बिना नाम लिए ये स्वीकार किया कि भाजपा को चूंकि चुनावी चंदे का अधिकतर भाग मिलने लगा है और कांग्रेस उस दृष्टि से विपन्नता की शिकार है इसलिए सरकार द्वारा चुनाव का खर्च वहन  करने की व्यवस्था लागू करने का समय आ गया है। लेकिन डा. सिंह ने प्रधानमन्त्री रहते हुए या उस पद से हटने के पांच साल के भीतर कभी इन्द्रजीत गुप्ता समिति की सिफारिश लागू करने की मांग की हो ऐसा कभी नहीं सुनाई नहीं दिया। ये भी स्वीकार किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री रहते हुए भी कांग्रेस के लिए चन्दा बटोरने में उनकी भूमिका न के बराबर रही होगी लेकिन वे चाहते तो सरकार द्वरा चुनाव खर्च वहन किये जाने का मुद्दा उठाकर उस पर राष्ट्रीय बहस तो करवा ही सकते थे। उस समय ऐसा कहने की बात उन्होंने शायद इसलिए नहीं सोची क्योंकि सत्ता में रहते हुए कांग्रेस के पास भरपूर चंदा आता रहा। ये भी सही है कि 2014 में यदि कांग्रेस 100 के लगभग सीटें भी लोकसभा में ले आती तब चंदे के बाजार में उसका भाव इतना नहीं गिरता। बची - खुची  कसर पूरी हो गई 2019 के लोकसभा चुनाव में। बीते दिनों चुनावी चंदे के जो आंकड़े आये  उनके अनुसार भाजपा के मुकाबले कांग्रेस बहुत ही पीछे रह गयी। उसके बाद खबर आ गई कि उसके पास पार्टी के नियमित संचालन के लिए भी धन की तंगी है।  हालाँकि परसों ही प्रियंका वाड्रा ने उप्र के सोनभद्र में हुए हत्याकांड पीडि़त परिवारों को कांग्रेस की ओर से 10- 10 लाख देने की घोषणा कर दी जो तंगी के दौर में विरोधाभासी लगती है। ऐसा लगता है कांग्रेस ने ही डा. सिंह के माध्यम से चुनाव सुधार संबंधी ये सुझाव उछलवाये पुण्य कार्य आपने क्यों नहीं किया मनमोहन जी
पूर्व प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह की बौद्धिकता और पेशेवर योग्यता असंदिग्ध है। भले ही एक राजनीतिक के रूप में वे उतने  प्रभावशाली नहीं रहे और प्रधानमन्त्री के तौर पर भी  इतिहास उन्हें ज्यादा महत्व नहीं देगा लेकिन बतौर आर्थिक चिन्तक उन्होंने देश को मुक्त अर्थव्यवस्था का जो रास्ता  दिखाया उसकी आलोचना करने वाली पार्टियाँ भी उसी पर चलने को मजबूर हो गईं। यहाँ तक कि वामपंथी राज्य सरकारें भी विदेशी निवेश के पीछे चक्कर लगाते  देखी जाने लगीं। इसीलिये जब डा. सिंह सुप्रसिद्ध वामपंथी नेता और सीपीआई दिग्गज स्व. इन्द्रजीत गुप्ता की जन्मशती पर आयोजित समारोह में शिरकत करने आये तब किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। लेकिन उक्त अवसर पर चुनाव सुधार विषय पर बोलते हुए उन्होंने जो कुछ भी कहा वह  जरुर चौंकाने वाला रहा। पूर्व प्रधानमन्त्री ने स्व. इन्द्रजीत गुप्ता की अध्यक्षता में चुनाव सुधार हेतु बनी उस समिति की सिफारिशों  को लागू करने की  आवश्यकता जताई जिसमें  चुनावी खर्च सरकार  द्वारा वहन करने का सुझाव दिया गया था। कामरेड गुप्ता के साथ मनमोहन सिंह जी भी उस समिति के सदस्य थे। लेकिन उस सिफारिश को लागू करने का जो कारण उन्होंने बताया वह जरुर आश्चर्य  में डालता है। बकौल डा. सिंह अब जबकि 90 फीसदी चुनावी चन्दा एक ही दल को मिल रहा हो तब सरकार द्वारा चुनाव का खर्च उठाने की गुप्ता समिति की सिफारिश को लागू कर देना चाहिए। वैसे  ये मांग  नई नहीं है। सत्तर के दशक में जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टी इसकी मांग करती थीं। वामपंथी भी उनके सुर में सुर मिलाया करते थे। उस दौर में कांग्रेस को कुल चुनावी चंदे का 90 फीसदी तो क्या उससे भी ज्यादा हिस्सा मिल जाया करता था। आज तो कम से कम चुनाव आयोग एवं अन्य स्रोतों से विभिन्न पार्टियों को मिलने वाले सफेद धन रूपी चंदे के आंकड़े सामने आ जाते हैं लेकिन उस जमाने  में राजनीतिक दलों को अपना हिसाब किताब पेश करने की न वैधानिक बाध्यता थी और न ही नैतिक। लम्बे समय तक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे स्व. सीताराम केसरी के बारे में तो कहा  जाता था न खाता न बही, जो केसरी कहें वो सही। चुनाव सुधारों को  असली गति टीएन शेषन के चुनाव आयुक्त बनने के बाद मिली लेकिन वह तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार को हजम नहीं हुई और उसने आयोग को तीन सदस्य वाला बनाते हुए श्री शेषन को मुख्य आयुक्त बना दिया। यदि वे अकेले कुछ समय और आयुक्त बने रहते तब चुनाव  प्रक्रिया में काफी सुधार और हो सकते थे हॉलांकि उसके बाद भी बीते दो दशक में आयोग ने जो कदम उठाये उनका बहुत सकारात्मक प्रभाव देखने मिला। फिर भी चुनाव प्रचार पर होने वाले खर्च में ऊपरी कमी चाहे जितनी दिखती हो किन्तु सच्चाई ये है कि चुनाव में पैसा पानी की तरह बहता है। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के लिए आयोग द्वारा निर्धारित खर्च की राशि मजाक बनकर रह गयी है। ऐसे में डा. सिंह ने सरकार द्वारा चुनाव का खर्च वहन  किये जाने विषयक  इन्द्रजीत गुप्ता समिति की सिफारिश लागू किये जाने संबंधी बात उन्हीं की जन्मशती समारोह के मंच से छेड़कर बेहद सामयिक मुद्दा उठाया लेकिन उसी के साथ पूर्व प्रधानमन्त्री को इस बात का स्पष्टीकरण भी देना चाहिए कि जब उस समिति के सदस्य के तौर पर वे उस सिफारिश से सहमत थे तब 10 वर्ष तक देश के प्रधानमंत्री रहते हुए उन्हें उस सिफारिश को लागू करने का ख्याल क्यों नहीं आया? बहरहाल उनकी इस बात के लिए अवश्य प्रशंसा होनी चाहिए कि उन्होंने बिना नाम लिए ये स्वीकार किया कि भाजपा को चूंकि चुनावी चंदे का अधिकतर भाग मिलने लगा है और कांग्रेस उस दृष्टि से विपन्नता की शिकार है इसलिए सरकार द्वारा चुनाव का खर्च वहन  करने की व्यवस्था लागू करने का समय आ गया है। लेकिन डा. सिंह ने प्रधानमन्त्री रहते हुए या उस पद से हटने के पांच साल के भीतर कभी इन्द्रजीत गुप्ता समिति की सिफारिश लागू करने की मांग की हो ऐसा कभी नहीं सुनाई नहीं दिया। ये भी स्वीकार किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री रहते हुए भी कांग्रेस के लिए चन्दा बटोरने में उनकी भूमिका न के बराबर रही होगी लेकिन वे चाहते तो सरकार द्वरा चुनाव खर्च वहन किये जाने का मुद्दा उठाकर उस पर राष्ट्रीय बहस तो करवा ही सकते थे। उस समय ऐसा कहने की बात उन्होंने शायद इसलिए नहीं सोची क्योंकि सत्ता में रहते हुए कांग्रेस के पास भरपूर चंदा आता रहा। ये भी सही है कि 2014 में यदि कांग्रेस 100 के लगभग सीटें भी लोकसभा में ले आती तब चंदे के बाजार में उसका भाव इतना नहीं गिरता। बची - खुची  कसर पूरी हो गई 2019 के लोकसभा चुनाव में। बीते दिनों चुनावी चंदे के जो आंकड़े आये  उनके अनुसार भाजपा के मुकाबले कांग्रेस बहुत ही पीछे रह गयी। उसके बाद खबर आ गई कि उसके पास पार्टी के नियमित संचालन के लिए भी धन की तंगी है।  हालाँकि परसों ही प्रियंका वाड्रा ने उप्र के सोनभद्र में हुए हत्याकांड पीडि़त परिवारों को कांग्रेस की ओर से 10- 10 लाख देने की घोषणा कर दी जो तंगी के दौर में विरोधाभासी लगती है। ऐसा लगता है कांग्रेस ने ही डा. सिंह के माध्यम से चुनाव सुधार संबंधी ये सुझाव उछलवाया जिसे शेष विपक्षी दल भी समर्थन देंगे क्योंकि भाजपा को मिलने वाला चुनावी चंदा किसी को पच नहीं रहा। लेकिन डा. मनमोहन सिंह को इस बात का जवाब तो देना ही चाहिए कि उनकी सरकार ने ये पुण्य कार्य क्यों नहीं किया जबकि उनके प्रथम कार्यकाल में वामपंथी भी उनको समर्थन देते रहे थे। या जिसे शेष विपक्षी दल भी समर्थन देंगे क्योंकि भाजपा को मिलने वाला चुनावी चंदा किसी को पच नहीं रहा। लेकिन डा. मनमोहन सिंह को इस बात का जवाब तो देना ही चाहिए कि उनकी सरकार ने ये पुण्य कार्य क्यों नहीं किया जबकि उनके प्रथम कार्यकाल में वामपंथी भी उनको समर्थन देते रहे थे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment