Friday 12 July 2019

राम जन्मभूमि : सर्वोच्च न्यायालय साहस दिखाए

अयोध्या में राम जन्मभूमि संबंधी विवाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित मध्यस्थता पैनल को 18 जुलाई तक अपनी प्रगति रिपोर्ट देने कहा गया है। जिसे देखने के बाद न्यायालय ये तय करेगा कि पैनल अपने कार्य में सफल हुआ या नहीं। यदि उसे लगेगा कि आपसी बातचीत या मध्यस्थता से विवाद नहीं सुलझेगा तब वह 25 जुलाई से इस मामले की रोजाना सुनवाई कर सकता है। वैसे अभी तक जो जानकारी उपलब्ध है उसके मुताबिक पैनल ने विवाद से जुड़े सभी पक्षों से बातचीत की लेकिन वह किसी भी प्रकार की सहमति नहीं बना सका। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि मध्यस्थता पैनल जैसी व्यवस्था बहुत देर से किये जाने के कारण उसको वह स्वीकार्यता नहीं मिल सकी जो शायद पहले मिल जाती। ये भी विचारणीय है कि 2010 में आये अलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद सर्वोच्च न्यायालय में जो अपीलें पेश हुई उन पर फैसला लेने में बरसों का समय छोटी-छोटी बातों को लेकर खराब किया गया वरना अभी तक इस प्रकरण का निराकरण हो सकता था। सर्वोच्च न्यायालय में यूँ तो अनेक चर्चित मामले लम्बे समय से विचाराधीन हैं लेकिन राम जन्मभूमि का विवाद कोई साधारण मसला नहीं है। बीते तीन दशक से देश की राजनीति को ये प्रभावित करता आ रहा है। केंद्र और राज्यों की कई सरकारें इसके चलते बनी और गिरीं तथा साम्प्रदायिक विद्वेष भी बढ़ा। भले ही ये प्रकरण जमीन के स्वामित्व का है जो पचास के दशक से चला आ रहा था लेकिन नब्बे के दशक से ये एक राजनीतिक मसला बना हुआ है। इसे हल नहीं कर पाने के लिए राजनेता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। वोट बैंक की राजनीति ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की खाई पाटने की बजाय उसे और चौड़ा कर दिया। ये कहने में कुछ भी बेजा नहीं होगा कि दोनों समुदायों के सुलझे हुए लोगों को इस विवाद से दूर रखा गया। जहां तक बात कट्टरता की है तो ये हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों के बीच पाई जाती है लेकिन सरकार में बैठे नेताओं में इतना साहस नहीं था कि वे उसकी उपेक्षा कर पाते। इसकी वजह भी वोटों की थोक बंदी ही है। जब केंद्र में अटल जी की सरकार बनी तब हिन्दुओं को लगा था कि वे इस विवाद को निबटा देंगे लेकिन उनके साथ जुडी तमाम पार्टियाँ चूँकि धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़े हुई थीं लिहाजा मामला अनसुलझा रह गया। यूपीए सरकार से तो इस बारे में कोई उम्मीद करना ही बेकार था। 2014 में नरेंद्र मोदी जब भाजपा को मिले पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आये तब पूरे हिन्दू समाज को विश्वास हो गया कि वे इस बारे में ठोस निर्णय अवश्य करेंगे। हो सकता है उन्होंने वैसा सोचा भी हो लेकिन कानून बनाकर राम जन्मभूमि का मामला हल करने में राज्यसभा का अल्पमत बाधा बनता रहा। इसके आलावा सर्वोच्च न्यायालय में भी जमकर टालमटोली होती रही। पूर्व प्रधान न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा के कार्यकाल में जब ऐसा लगा कि रोजाना सुनवाई के जरिये विवाद सुलझ जावेगा तब न्यायाधीशों के एक गुट ने उन्हीं के विरुद्ध बगावती तेवर दिखाते हुए श्री मिश्रा को विवादों में फंसा दिया। वर्तमान प्रधान न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई भी उस गुट के प्रमुख थे। मध्यस्थता पैनल उन्हीं के दिमाग की उपज बताई जा रही है। लेकिन प्रश्न ये उठता है कि जब राम जन्मभूमि का समूचा मसला मूलरूप से एक सामान्य भूमि स्वामित्व विवाद है तब सर्वोच्च न्यायालय ने उसको हल करने में तत्परता क्यों नहीं दिखाई? अलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद सर्वोच्च न्यायालय के पास आया प्रकरण काफी हद तक स्पष्ट हो चुका था। उसके बाद भी किसी न किसी बहाने से उसे टाला जाता रहा। गत वर्ष मुस्लिम पक्ष के वकील के रूप में वरिष्ठ कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने सर्वोच्च न्यायालय से अपील की कि लोकसभा चुनाव तक इस प्रकरण पर कोई फैसला न किया जाए क्योंकि चुनाव पर उसका असर पड़ेगा। हालाँकि बाद में कांग्रेस ने भी श्री सिब्बल को उस मामले से हटने की सलाह दे डाली लेकिन ऐसा लगता है भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार भी नहीं चाहती थी कि लोकसभा चुनाव के पहले कोई निर्णय हो। इसीलिये उसकी तरफ  से भी मध्यस्थता पैनल का विरोध नहीं किया गया। उसकी एक वजह आर्ट आफ  लिविंग के प्रणेता श्री श्री रविशंकर का उसमें होना भी था जो भाजपा के काफी चहेते रहे हैं। लेकिन उनका विरोध अयोध्या के साधु-संतों के ही बीच सुनाई दिया। वैसे श्री श्री पहले भी मुस्लिम पक्ष से मिलकर विवाद सुलझाने की असफल कोशिश अपने निजी स्तर पर कर चुके थे। पैनल के दो अन्य सदस्य आम जनता के बीच उतने प्रसिद्ध नहीं थे। संतुलन बनाये रखने के लिए एक सेवा निवृत्त मुस्लिम न्यायाधीश को पैनल का प्रमुख बनाया तो जरूर लेकिन सम्बन्धित किसी भी पक्ष द्वारा उसे गम्भीरता से नहीं लिया गया। पता नहीं सर्वोच्च न्यायालय को ये सपना कहां से आ गया कि जो मामला वह आठ साल में सुनवाई के स्तर तक नहीं ला सका उसे एक पैनल मात्र 8 सप्ताह में अंजाम तक पहुंचा देगा। बहरहाल अब ये स्पष्ट हो गया है कि पैनल बनाने का मकसद पूरा नहीं हो सका और अंत में सर्वोच्च न्यायालय को कहना ही पड़ा कि यदि उसकी रिपोर्ट से समाधान नहीं मिला तब वह 25 जुलाई से नियमित सुनवाई कर प्रकरण को निबटाने की ओर बढ़ेगा। यदि यही काम श्री दीपक मिश्रा के कार्यकाल में शुरू हो जाता तब बड़ी बात नहीं अभी तक उसका फैसला भी आ गया होता। खैर, देर आयद दुरुस्त आयद वाली उक्ति का पालन करते हुए सर्वोच्च न्यायालय को अब साहस दिखाते हुए राम जन्मभूमि विवाद का निबटारा कर देना चाहिए। वैसे भी सभी पक्ष उसके निर्णय को मानने की प्रतिबद्धता व्यक्त कर चुके हैं। केंद्र में भारी-भरकम बहुमत वाली मजबूत सरकार है। उप्र में भी यही स्थिति है। सर्वोच्च न्यायालय को इस अवसर का लाभ उठाते हुए नियमित सुनवाई के जरिये इस बहुप्रतीक्षित मसले पर निर्णय दे देना चाहिए क्योंकि श्री गोगोई भी कुछ महीनों बाद सेवा निवृत्त होने वाले हैं। यदि उनके कार्यकाल में फैसला नहीं हो सका तब नये प्रधान न्यायाधीश भी जमने में थोड़ा समय लेंगे जिससे मामला और टल जाएगा। इसके पहले कि राजनीति फिर कोई बखेड़ा खड़ा कर दे न्यायालयीन प्रक्रिया पूरी हो जाना देश के हित में होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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