Tuesday 2 July 2019

कश्मीर :चुनाव से ज्यादा जरूरी है राष्ट्रीय सुरक्षा


जम्मू - कश्मीर में राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ाने वाला प्रस्ताव संसद में पारित हो गया। शुरू - शुरू में विपक्ष ने लोकतंत्र का हवाला देते हुए राज्य में तत्काल चुनाव के लिए दबाव बनाया लेकिन गृहमंत्री अमित शाह कश्मीर की वास्तविक स्थिति से संसद के दोनों सदनों को अवगत करवाते हुए सर्वसम्मति बनाने में कामयाब हो गए। राज्यसभा में जहां सरकार  का बहुमत नहीं है  वहां भी तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे घोर भाजपा विरोधी दलों तक ने आखिर में राष्ट्रपति शासन बढ़ाने को मंजूरी दे दी। उसके पहले श्री  शाह ने आश्वस्त किया कि चुनाव के लिए अनुकूल हालात होते ही वहां लोकतान्त्रिक प्रक्रिया बहाल कर दी जायेगी। उन्होंने ये भरोसा भी दिलाया कि चुनाव का कार्यक्रम चुनाव आयोग निश्चित करेगा जिसे केंद्र सरकार बिना संकोच किये स्वीकार कर लेगी। जैसे संकेत मिल रहे हैं उनके मुताबिक इस साल के अंत तक वहां नई विधानसभा गठित कर दी जायेगी। फिलहाल निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन की प्रक्रिया पर भी विचार हो रहा है। एक खबर ये भी है कि घाटी के आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में बचे हुए भारत विरोधी तत्वों के पूरी तरह से सफाए के बाद ही चुनाव की प्रक्रिया शुरू होगी। वैसे इस राज्य में विधानसभा को बहाल करने की उतनी जरूरत नहीं है जितनी आतंकवादियों की जड़ों को पूरी तरह से उखाड़ फेंकने की। अमित शाह ने गृह विभाग का कार्यभार सँभालते ही सुरक्षा बलों को निर्धारित समय-सीमा के भीतर आतंवादियों के खात्मे का जो लक्ष्य दिया उसमें काफी सफलता मिल रही है। नित्यप्रति आतंवादियों को घेरकर ऊपर पहुँचाया जा रहा है। अलगाववादी संगठनों के सभी बड़े नेता बंद कर दिए गए हैं। उनको विदशों से मिलने वाली आर्थिक सहायता भी काफी हद तक रोक दी गयी। इसका अनुकूल असर भी दिखने लगा। बीते सप्ताह श्री शाह की कश्मीर घाटी यात्रा के दौरान अलगाववादी संगठनों द्वारा बंद या हड़ताल का आह्वान नहीं किया जाना भी इस बात का प्रमाण था कि सुरक्षा बलों के प्रयास रंग ला रहे हैं। यूँ भी कश्मीर में विधानसभा का गठन उतना जरुरी नहीं जितना कि अलगाववादी ताकतों का सिर कुचलना है। गत वर्ष जून से वहां राष्ट्रपति शासन लागू है। यद्यपि इसी दौरान पुलवामा जैसी बड़ी वारदात  हो गयी लेकिन उसके अलावा हालात नियन्त्रण में रहे। लोकसभा के लम्बे चुनाव अभियान के दौरान केंद्र सरकार बड़ा नीतिगत निर्णय लेने से बचती रही लेकिन शपथ ग्रहण के तत्काल बाद गृहमंत्री ने कड़े तेवरों के साथ शुरुवात की जिससे कश्मीर घाटी में कार्यरत सुरक्षा बलों का मनोबल भी बढ़ा और वे दबाव बनाने में कामयाब हो गए। नेशनल काफ्रेंस और पीडीपी जैसी स्थानीय पार्टियों को जरुर विधानसभा भंग होने से परेशानी हो रही होगी लेकिन कश्मीर के साथ ही दूरगामी राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर ये जरूरी हो गया है कि वहां की क्षेत्रीय ताकतों को निर्णय प्रक्रिया से दूर रखा जावे। भाजपा और पीडीपी के गठबंधन का कड़वा अनुभव किसी से छुपा नहीं है। रही बात लोकतंत्र की तो राष्ट्रपति शासन भी संसद द्वारा स्वीकृत होने से पूरी तरह संविधान सम्मत हो जाता है। और फिर ये पहला अवसर नहीं है जब जम्मू कश्मीर को राष्ट्रपति शासन के अधीन रख गया हो। इसके पहले आठ बार वहां ऐसा हो चुका है। जनवरी 1990 में लगा राष्ट्रपति शासन तो 6 वर्ष 264 दिन चला। हालाँकि तब वहां की स्थिति नियन्त्रण से बाहर थी। मौजूदा केंद्र सरकार ने पिछले कार्यकाल में भी कश्मीर घाटी से भारत विरोधी ताकतों के सफाए की काफी कोशिशें कीं किन्तु राजनीति के चलते वह चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर सकी। ऐसा लगता है नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी दूसरी पारी में कश्मीर समस्या के निर्णायक हल की तरफ  बढऩा चाहती है। धारा 370 हटाने को लेकर तो उसने अपने इरादे अभी तक व्यक्त नहीं किये लेकिन श्री शाह का संसद में ये स्पष्टीकरण काफी मायने रखता है कि वह अस्थायी धारा  है। कश्मीर मसले को संरासंघ में ले जाने के पं नेहरू के फैसले पर भी गृहमंत्री के कटाक्ष सरकार की दिशा दर्शा रहे हैं। बहरहाल अब चूँकि संसद में राष्ट्रपति शासन का समय बढ़ाने की अनुमति सरकार को मिल गई है इसलिए एक अनिश्चित्तता समाप्त हो गयी। राज्यसभा में सरकार के लिए बहुमत जुटाना दिक्कत भरा था लेकिन विपक्ष ने समझदारी  दिखाते हुए उसका साथ दिया। चुनाव आयोग इस राज्य में निर्वाचन की प्रक्रिया को लेकर अपने स्तर पर सक्रिय है लेकिन देश के राजनीतिक दलों को भी देखना और  सोचना चाहिए कि कश्मीर घाटी में विधि सम्मत  , निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव क्या मुमकिन हैं ? और यदि नहीं तब महज औपचारिकता के निर्वहन के लिए ऐसा करने से वहां की सत्ता गैर जिम्मेदार हाथों में जाने का खतरा रहेगा जिसका नुक्सान पूरे देश को उठाना पड़ सकता है। घाटी की जो राजनीतिक स्थिति है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि फारुख अब्दुल्ला आयु  और महबूबा मुफ्ती जनाधार घटने की वजह से पहले जैसे प्रभावशाली नहीं रहे। गुलाम नबी आज़ाद दिल्ली में भले ही कुछ भी  बोला कर्रें लेकिन इस राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री होने के बावजूद उनका कोई असर नहीं है। ऐसे हालात में जम्मू-कश्मीर में चुनाव की जल्दबाजी  करने की जगह आतंकवाद की जड़ों को नष्ट करने के मौजूदा अभियान को सफलता के चरम बिंदु तक ले जाने की जरूरत है। कश्मीर देश के अन्य राज्यों से अलग है। इसलिए उसको लेकर जो नीति या निर्णय हो उसके पीछे राष्ट्रहित होना चाहिए। रही बात सियासत की तो उसके लिए इतना बड़ा देश पड़ा है। ये देखते हुए यदि वहां राष्ट्रपति शासन आगे भी जारी रखने से स्थिति सुधरती है तो केंद्र सरकार को जरा भी संकोच नहीं करना चाहिए। वैसे भी राज्यसभा में उसकी स्थिति लगातार मजबूत हो रही है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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