Tuesday 30 July 2019

दक्षिण में भाजपा का भविष्य तय करेगा कर्नाटक

कर्नाटक में लगभग महीने भर से चले आ रहे राजनीतिक नाटक के एक भाग का पटाक्षेप हो गया। जिसके अंतर्गत कुमारस्वामी सरकार का गिरना , येदियुरप्पा की ताजपोशी और इस्तीफा देने वाले 17 विधायकों को अयोग्य ठहराकर विधानसभा अध्यक्ष द्वारा अपने पद से इस्तीफा देने जैसे दृश्य दिखाई दिए। इसके बाद योग्य विधायकों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में अपील पर  सबकी निगाहें रहेंगीं। हालाँकि अभी तक इस तरह के मामलों में अध्यक्ष के फैसले को ही अंतिम माना  जाता रहा है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय चाहे तो अपनी तरफ से कोई  नई व्यवस्था भी दे सकता है क्योंकि दलबदल कानून की तरह से ही अध्यक्ष के अधिकारों के दुरुपयोग को  लेकर भी कानूनी विवाद खड़े होने लगे हैं। बहरहाल गत दिवस ध्वनि मत से विश्वास मत जीतने के बाद येदियुरप्पा ने पहली बाधा तो पार कर ली लेकिन अयोग्य ठहरा दिए  गये विधायकों को सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन नहीं दिया तब 17   उपचुनाव छह महीने के भीतर करवाने पड़ेंगे। यदि भाजपा उनमें से भी जीत लेती है तब भी उसका बहुमत बहुत ही कम होगा और दो - चार विधायक भी नाराज हुए तब येदियुरप्पा को भी कुमारस्वामी की तरह ही परेशानी का सामना करना पड़ेगा। इसकी वजह भाजपा में दूसरी पार्टी से आकर विधायक चुने लोग बन  सकते हैं जिनका उद्देश्य किसी भी तरह सत्ता में बने रहना है।  यदि 17 विधायकों की सदस्यता बरकरार रहती तब वे सभी येदियुरप्पा मंत्रीमंडल में शामिल होने का दबाव बनाते। पूरे के पूरे 17 उपचुनाव भाजपा जीत ले ये सामान्य तौर पर संभव नहीं दिखाई देता। और इसीलिये कर्नाटक का राजनीतिक परिदृश्य आगे भी धुंधला बना रहने की आशंका है। यदि सत्ता के बलबूते भाजपा कुमारस्वामी के 10 - 12  विधायक खींचकर जनता दल (एस) में विभाजन  करवा दे तब भी दलबदलुओं की मांगें और नखरे उसका सिरदर्द बने रहेंगे। ऐसी सूरत में येदियुरप्पा से किसी सुशासन की उम्मीद करना कोरा आशवाद होगा। इसलिए बेहतर यही होगा कि कुछ समय राज करने के बाद येदियुरप्पा विधानसभा भंग करवाकर नया जनादेश प्राप्त करें। लोकसभा चुनाव में कर्नाटक में विरोधी सरकार के रहते हुए भी मोदी लहर ने जबर्दस्त असर दिखाया। पूर्व प्रधानमन्त्री देवेगौड़ा और उनका पौत्र तो हारे ही लोकसभा में कांग्रेस दल के नेता रहे मल्लिकार्जुन खडग़े भी परास्त हो गए। जाहिर है इसी का असर कुमारस्वामी सरकार पर पड़ा वरना 17 विधायक इस्तीफा देने का दुस्साहस नहीं कर पाते। अब जबकि अयोग्य होकर वे  उपचुनाव लडऩे से वंचित कर दिए गये तब उनकी राजनीतिक उपयोगिता भाजपा के लिए कितनी रह गई ये कहना भी कठिन है। ऐसी स्थिति में तलवार की धार पर चलते रहने से येदियुरप्पा कर्नाटक  की जनता की आकांक्षाओं को किस सीमा तक पूरा कर सकेंगे ये यक्ष प्रश्न है। भाजपा आलाकमान को भी कर्नाटक के बारे में  गंभीरता से  रणनीति बनानी चाहिए क्योंकि दक्षिण का यह प्रवेश द्वार पार्टी के भविष्य की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। आन्ध्र में तो उसके लिए फिलहाल कोई गुंजाईश है नहीं और तेलंगाना में भी उसकी मंजिल दूर है। तमिलनाडु में पार्टी अभी भी अपरिचित सी बनी हुई है लेकिन केरल में उसकी संभावनाएं निरंतर मजबूत होती जा रही हैं और उस दृष्टि से कर्नाटक का प्रदर्शन दक्षिण की राजनीति में उसका स्थान निश्चित करने वाला होगा। इस सम्बन्ध में एक बात और भी विचारणीय है कि येदियुरप्पा 76 वर्ष के हो गए हैं। यद्यपि उनके प्रबल प्रतिद्वंदी अनंत  कुमार नहीं रहे लेकिन भाजपा आलाकमान ने लोकसभा चुनाव के दौरान अनेक युवाओं को टिकिट देकर भविष्य का नेतृत्व तैयार करने की दिशा में कदम बढ़ा दिए थे जिसके अनुकूल परिणाम भी आये। ऐसी स्थिति में येदियुरप्पा के लिये यही बेहतर होगा कि वे जल्द  चुनाव करवाएं जिससे कि भाजपा में अंदरूनी खींचातानी से बचा जा सके। ये बात सच है कि मुख्यमंत्री कर्नाटक के जातीय समीकरणों की दृष्टि से काफी ताकतवर हैं। कांग्रेस और जनता दल (एस) में फिलहाल उनकी टक्कर का कोई नेता नहीं होने से भी उनकी पकड़ मजबूत हुई है लेकिन उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं लगभग पूरी हो चुकी हैं और ऐसे में बेहतर यही रहेगा कि वे समय रहते किसी सक्षम उत्तराधिकारी के हाथों बागडोर देकर मार्गदर्शक की भूमिका में आ जाएँ। वरना बड़ी बात नहीं उनकी दशा भी गुजरात के पूर्व भाजपाई मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल जैसी होकर रह जाये।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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