Thursday 25 July 2019

मप्र : कांग्रेस की चाल पर भाजपा के जवाब की प्रतीक्षा

भाजपा कहती रह गई और कांग्रेस ने कर दिखाया। कर्नाटक की सरकार गिरने के बाद मप्र में भाजपा के नेतागण ऐसा माहौल बनाने में जुट गये मानों वे कमलनाथ सरकार को चुटकी बजाते गिरा देंगे लेकिन कल शाम पता चला उसके अपने दो विधायकों ने ही सदन में सरकार के पक्ष में मतदान कर दिया जबकि शेष विधायक बहिर्गमन कर चुके थे। जिन दो विधायकों ने कांग्रेस का दमन थामने का निर्णय लिया वे पहले उसी में थे जिन्हें शिवराज सरकार के दौर में तोड़कर भाजपा में लाया गया था। दोनों इसी आधार पर इसे अपनी घर वापिसी बता रहे हैं और कांग्रेस इस बात पर फूली नहीं समा रही कि उसने भाजपा के हवाई किले को ध्वस्त कर दिया। उसके कुछ नेताओं का दावा है कि कुछ और भाजपा विधायक उसके सम्पर्क में हैं जो मौका पाते ही पाला बदल लेंगे। इधर भाजपा कांग्रेस द्वारा किए इस गुरिल्ला शैली के हमले से भौचक है और फिलहाल कुछ कहने की स्थिति में नहीं है। पार्टी के कुछ नेताओं का कहना है कि चंद बड़े नेताओं के बड़बोलेपन के कारण किरकिरी की नौबत आ गई। अतीत में कांग्रेस के उपनेता राकेश चौधरी सदन में शिवराज सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव के दौरान ही कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए थे। शिवराज सिंह चौहान ने अपने कार्यकाल में कांग्रेस में काफी सेंध लगाई थी। बाहर से आये विधायकों को महत्वपूर्ण पद भी दिए गए। कटनी जिले के संजय पाठक इसका उदहारण हैं। इसी तरह तेंदूखेडा के संजय शर्मा जैसे चेहरे भी रहे जो 2013 में भाजपाई बनकर विधायक बने और 2018 में फिर कांग्रेस टिकिट लेकर विधानसभा में जा बैठे। इस अप्रवासियों की वजह से पार्टी के भीतर भी असंतोष पनपा। 2013 में संजय पाठक से बेहद कम मतों से पराजित पद्मा शुक्ल तो पिछले चुनाव में कांग्रेस में शरीक होकर विजयराघवगढ़ सीट पर श्री पाठक के विरुद्ध चुनाव भी लड़ बैठीं। उल्लेखनीय है गुना लोकसभा सीट से हाल ही में ज्योतिरादित्य सिंधिया को हराने वाले भाजपा उम्मीदवार कुछ समय पहले तक श्री सिंधिया के बगलगीर हुआ कारते थे। ये सब देखते हुए कल के घटनाक्रम पर भाजपाइयों को आश्चर्य नहीं हुआ उलटे ये पूछा जाने लगा कि फलां-फलां अब तक कांगेस में क्यों नहीं लौटा? वैसे इस समय प्रदेश भाजपा में नेतृत्व को लेकर जबर्दस्त अनिश्चितता है। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव , पूर्व मंत्री नरोत्तम मिश्रा और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राकेश सिंह के बीच कोई समन्वय नहीं दिखाई देता। इंदौर के दिग्गज कैलाश विजयवर्गीय भी बयानों के तीर बीच-बीच में छोड़ा करते हैं। ऐसा दिखाया जा रहा था कि कमलनाथ सरकार इन नेताओं के रहमो-करम पर टिकी है और जिस पल ये निगाहें टेढ़ी कर लेंगे वह भरभराकर गिर जायेगी। लेकिन गत दिवस भाजपा के अपने किले की ईंटें खिसक गईं और उसे भनक तक नहीं लगी। कल तक सरकार गिराने का दम भर रहे भाजपाई दिग्गजों को समझ नहीं आ रहा कि कहें तो क्या कहें ? ये भी प्रचारित हो रहा है कि कांग्रेस ने जो खेल शुरू किया उसे भाजपा खत्म करेगी। इधर कांग्रेस के खेमे में इसे नहले पर दहला मानकर विजयी भाव दिखाई दे रहा है। कहने वाले तो यहाँ तक कह रहे हैं कि कमलनाथ ने अमित शाह को ही सीधे चुनौती दे डाली है। बीच-बीच में ये खबरें उड़ा करती थीं कि भाजपा हाईकमान महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के विधानसभा चुनाव के बाद मप्र सरकार को गिराने के लिए प्रयासरत होगा लेकिन भोपाल में बैठे पार्टी के नेताओं ने रोजाना सरकार गिराने की धमकियां देकर पूरी रणनीति की हवा ही निकाल दी। जिन चार नेताओं का नाम ऊपर उल्लेख किया गया है उनमें आपसी समन्वय का नितान्त अभाव होने से भी पार्टी की दिशा तय नहीं हो पा रही। यही वजह रही कि आत्ममुग्धता में डूबकर ये भुला दिया गया कि सामने वाला भी राजनीति का खिलाड़ी है और उसके शब्दकोश में भी नैतिकता नामक शब्द विलुप्त हो चुका है। इतना अवश्य हुआ कि कमलनाथ के इस अप्रत्याशित हमले ने भाजपा को उस अपराधबोध से मुक्त कर दिया जो गोवा और कर्नाटक के हालिया घटनाचक्र के कारण उसके साथ जुड़ गया था। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की छवि भी सरकार गिराने वाले सरगना की बन गई थी। हालाँकि कमलनाथ ने विधानसभा चुनाव के दौरान भी भाजपा में सेंध लगाईं थीं लेकिन गत दिवस जो दांव उन्होंने चला उसके बाद भाजपा के मन से भी संकोच निकल गया और जैसा उसके नेता दावा करते आ रहे थे यदि उनमें सच्चाई है तो आने वाले दिनों में मप्र में भी राजनीतिक उठापटक तेज हो जायेगी और विधायकों के पालाबदल का खेल देखने मिल सकेगा। अभी तक कांग्रेस, भाजपा पर कर्नाटक में करोड़ों रूपये देकर विधायक खरीदने का जो आरोप लगाती रही वही अब भाजपा मप्र में उस पर लगाएगी। फिलहाल पहली चाल कमलनाथ ने चल दी है और वह भी आक्रामक अंदाज में। देखना ये है कि भाजपा जवाब में अपने मोहरे किस तरह बढ़ाती है। एक बात जरुर हो गयी कि अब भाजपा अपने बुने जाल में खुद उलझकर रह गई है। यदि उसने कांग्रेस द्वारा छापामार शैली में किये हमले का जवाब सर्जिकल स्ट्राइक से नहीं दिया तब उसके बड़बोलेपन की पोल खुल जायेगी और बड़ी बात नहीं कुछ और कबूतर उसकी अटारी से उड़कर दूसरे की छत पर जा बैठें। राजनीति की मौजूदा संस्कृति में सफलता से बढ़कर सफलता दूसरी नहीं होती वाले सिद्धांत को मान्यता दे दी गयी है। साध्य के साथ ही साधन की पवित्रता की गांधी और दीनदयाल मार्का सोच कालातीत हो चुकी है। उस दृष्टि से कर्नाटक में भाजपमप्र : कांग्रेस की चाल पर भाजपा के जवाब की प्रतीक्षा
भाजपा कहती रह गई और कांग्रेस ने कर दिखाया। कर्नाटक की सरकार गिरने के बाद मप्र में भाजपा के नेतागण ऐसा माहौल बनाने में जुट गये मानों वे कमलनाथ सरकार को चुटकी बजाते गिरा देंगे लेकिन कल शाम पता चला उसके अपने दो विधायकों ने ही सदन में सरकार के पक्ष में मतदान कर दिया जबकि शेष विधायक बहिर्गमन कर चुके थे। जिन दो विधायकों ने कांग्रेस का दमन थामने का निर्णय लिया वे पहले उसी में थे जिन्हें शिवराज सरकार के दौर में तोड़कर भाजपा में लाया गया था। दोनों इसी आधार पर इसे अपनी घर वापिसी बता रहे हैं और कांग्रेस इस बात पर फूली नहीं समा रही कि उसने भाजपा के हवाई किले को ध्वस्त कर दिया। उसके कुछ नेताओं का दावा है कि कुछ और भाजपा विधायक उसके सम्पर्क में हैं जो मौका पाते ही पाला बदल लेंगे। इधर भाजपा कांग्रेस द्वारा किए इस गुरिल्ला शैली के हमले से भौचक है और फिलहाल कुछ कहने की स्थिति में नहीं है। पार्टी के कुछ नेताओं का कहना है कि चंद बड़े नेताओं के बड़बोलेपन के कारण किरकिरी की नौबत आ गई। अतीत में कांग्रेस के उपनेता राकेश चौधरी सदन में शिवराज सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव के दौरान ही कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए थे। शिवराज सिंह चौहान ने अपने कार्यकाल में कांग्रेस में काफी सेंध लगाई थी। बाहर से आये विधायकों को महत्वपूर्ण पद भी दिए गए। कटनी जिले के संजय पाठक इसका उदहारण हैं। इसी तरह तेंदूखेडा के संजय शर्मा जैसे चेहरे भी रहे जो 2013 में भाजपाई बनकर विधायक बने और 2018 में फिर कांग्रेस टिकिट लेकर विधानसभा में जा बैठे। इस अप्रवासियों की वजह से पार्टी के भीतर भी असंतोष पनपा। 2013 में संजय पाठक से बेहद कम मतों से पराजित पद्मा शुक्ल तो पिछले चुनाव में कांग्रेस में शरीक होकर विजयराघवगढ़ सीट पर श्री पाठक के विरुद्ध चुनाव भी लड़ बैठीं। उल्लेखनीय है गुना लोकसभा सीट से हाल ही में ज्योतिरादित्य सिंधिया को हराने वाले भाजपा उम्मीदवार कुछ समय पहले तक श्री सिंधिया के बगलगीर हुआ कारते थे। ये सब देखते हुए कल के घटनाक्रम पर भाजपाइयों को आश्चर्य नहीं हुआ उलटे ये पूछा जाने लगा कि फलां-फलां अब तक कांगेस में क्यों नहीं लौटा? वैसे इस समय प्रदेश भाजपा में नेतृत्व को लेकर जबर्दस्त अनिश्चितता है। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव , पूर्व मंत्री नरोत्तम मिश्रा और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राकेश सिंह के बीच कोई समन्वय नहीं दिखाई देता। इंदौर के दिग्गज कैलाश विजयवर्गीय भी बयानों के तीर बीच-बीच में छोड़ा करते हैं। ऐसा दिखाया जा रहा था कि कमलनाथ सरकार इन नेताओं के रहमो-करम पर टिकी है और जिस पल ये निगाहें टेढ़ी कर लेंगे वह भरभराकर गिर जायेगी। लेकिन गत दिवस भाजपा के अपने किले की ईंटें खिसक गईं और उसे भनक तक नहीं लगी। कल तक सरकार गिराने का दम भर रहे भाजपाई दिग्गजों को समझ नहीं आ रहा कि कहें तो क्या कहें ? ये भी प्रचारित हो रहा है कि कांग्रेस ने जो खेल शुरू किया उसे भाजपा खत्म करेगी। इधर कांग्रेस के खेमे में इसे नहले पर दहला मानकर विजयी भाव दिखाई दे रहा है। कहने वाले तो यहाँ तक कह रहे हैं कि कमलनाथ ने अमित शाह को ही सीधे चुनौती दे डाली है। बीच-बीच में ये खबरें उड़ा करती थीं कि भाजपा हाईकमान महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के विधानसभा चुनाव के बाद मप्र सरकार को गिराने के लिए प्रयासरत होगा लेकिन भोपाल में बैठे पार्टी के नेताओं ने रोजाना सरकार गिराने की धमकियां देकर पूरी रणनीति की हवा ही निकाल दी। जिन चार नेताओं का नाम ऊपर उल्लेख किया गया है उनमें आपसी समन्वय का नितान्त अभाव होने से भी पार्टी की दिशा तय नहीं हो पा रही। यही वजह रही कि आत्ममुग्धता में डूबकर ये भुला दिया गया कि सामने वाला भी राजनीति का खिलाड़ी है और उसके शब्दकोश में भी नैतिकता नामक शब्द विलुप्त हो चुका है। इतना अवश्य हुआ कि कमलनाथ के इस अप्रत्याशित हमले ने भाजपा को उस अपराधबोध से मुक्त कर दिया जो गोवा और कर्नाटक के हालिया घटनाचक्र के कारण उसके साथ जुड़ गया था। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की छवि भी सरकार गिराने वाले सरगना की बन गई थी। हालाँकि कमलनाथ ने विधानसभा चुनाव के दौरान भी भाजपा में सेंध लगाईं थीं लेकिन गत दिवस जो दांव उन्होंने चला उसके बाद भाजपा के मन से भी संकोच निकल गया और जैसा उसके नेता दावा करते आ रहे थे यदि उनमें सच्चाई है तो आने वाले दिनों में मप्र में भी राजनीतिक उठापटक तेज हो जायेगी और विधायकों के पालाबदल का खेल देखने मिल सकेगा। अभी तक कांग्रेस, भाजपा पर कर्नाटक में करोड़ों रूपये देकर विधायक खरीदने का जो आरोप लगाती रही वही अब भाजपा मप्र में उस पर लगाएगी। फिलहाल पहली चाल कमलनाथ ने चल दी है और वह भी आक्रामक अंदाज में। देखना ये है कि भाजपा जवाब में अपने मोहरे किस तरह बढ़ाती है। एक बात जरुर हो गयी कि अब भाजपा अपने बुने जाल में खुद उलझकर रह गई है। यदि उसने कांग्रेस द्वारा छापामार शैली में किये हमले का जवाब सर्जिकल स्ट्राइक से नहीं दिया तब उसके बड़बोलेपन की पोल खुल जायेगी और बड़ी बात नहीं कुछ और कबूतर उसकी अटारी से उड़कर दूसरे की छत पर जा बैठें। राजनीति की मौजूदा संस्कृति में सफलता से बढ़कर सफलता दूसरी नहीं होती वाले सिद्धांत को मान्यता दे दी गयी है। साध्य के साथ ही साधन की पवित्रता की गांधी और दीनदयाल मार्का सोच कालातीत हो चुकी है। उस दृष्टि से कर्नाटक में भाजपा और मप्र में कांग्रेस के ताजा आचरण में फर्क करना मुश्किल है। वैसे भी नैतिकता को लेकर सबने अपनी अलग-अलग परिभाषा और मापदंड तय कर लिए हैं जिसमें तुम्हारे पैर, पैर हमारे पैर चरण वाली मानसिकता का बोलबाला है। ा और मप्र में कांग्रेस के ताजा आचरण में फर्क करना मुश्किल है। वैसे भी नैतिकता को लेकर सबने अपनी अलग-अलग परिभाषा और मापदंड तय कर लिए हैं जिसमें तुम्हारे पैर, पैर हमारे पैर चरण वाली मानसिकता का बोलबाला है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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