Wednesday 10 July 2019

सत्ता और चन्दे ने बिगाड़ा चाल,चरित्र और चेहरा


राजनीति शास्त्र की एक अत्यंत प्रचलित कहावत है कि सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूर्ण भ्रष्ट करती है। इसी संदर्भ में दो खबरें एक साथ आईं। मप्र के उज्जैन में भाजपा के संभागीय संगठन मंत्री प्रदीप जोशी की अश्लील बातचीत और वीडियों सार्वजानिक हो गये जिसके बाद पार्टी ने उन्हें सभी दायित्वों से अलग कर दिया। दूसरी खबर भाजपा को मिलने वाले चंदे की राशि को लेकर है। उसके अनुसार वर्ष 2016-18 में कार्पोरेट घरानों से उसको 950 करोड़ से ज्यादा की धनराशि मिली जबकि कांग्रेस को मात्र 55 करोड़। भाजपा की झोली भरने वाले उद्योगपतियों की संख्या भी 17 सौ से ज्यादा रही वहीं कांग्रेस को उपकृत करने वाले 150 ही बचे। सबसे कम चंदा मिला सीपीआई को जो मात्र 7 लाख ही रहा। एक जमाने में उद्योगों से मिलने वाले चंदे में कांग्रेस अव्वल रहा करती थी लेकिन तब चंदा काले धन की शक्ल में ज्यादा मिलता था जबकि अब बाकायदा नंबर एक का पैसा दिए जाने की अनुमति मिल गयी है। हालाँकि अभी भी काले धन की आवक में कमी आई हो ऐसा नहीं है लेकिन जो आंकड़े आये हैं उनके मुताबिक तो भाजपा के अच्छे दिन तबियत से आ गये लगते हैं और इसी का दुष्परिणाम उसके संगठन में आ रही उन बुराइयों के रूप में सामने आने लगा है जो पार्टी विथ डिफरेंस के उसके दावे को रद्दी की टोकरी में फेंक देता है। प्रदीप जोशी पहले संगठन मंत्री नहीं हैं जो इस तरह की गतिविधियों के चलते हटाये गए हों। पार्टी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री संजय जोशी का काण्ड तो पूरे देश में चर्चित हुआ था। अभी हाल ही में विदिशा जिले में कार्यरत एक युवा संगठन मंत्री भी यौन शोषण के आरोप की गिरफ्त में आकर जमानत मांगते फिर रहे हैं। छुटपुट शिकायतें और भी जगहों से आती रहती हैं। जो सार्वजानिक नहीं हो पातीं उन्हें संगठन को बदनामी से बचाने के लिए दबाते हुए दोषी व्यक्ति को दायित्वमुक्त कर बाहर कर दिया जाता है। लेकिन इससे अलग एक बात और सामने आई है कि ऐसे अधिकांश मामलों को उजागर करने में पार्टी के ही लोगों का हाथ होता है। संजय जोशी की अश्लील वीडियो बनवाने के आरोप तो पार्टी के ही चंद बड़े नेताओं पर लगे थे। उज्जैन के संगठन मंत्री की करतूतें सार्वजनिक करने में भी पार्टी के लोगों की भूमिका कही जा रही है। वैसे इस तरह की बातें राजनीतिक दलों में नई नहीं हैं। जिस तेजी से महिलायें महत्वाकांक्षा पालकर राजनीति में आगे आ रही हैं उसकी वजह से फिल्मी दुनिया की कास्टिंग काउच नामक बुराई राजनीति का हिस्सा भी बनने लगी है। लेकिन भाजपा के संगठन मंत्रियों की अश्लील गतिविधियों पर न केवल उसके आलोचक अपितु प्रशंसक भी इसलिए ज्यादा ध्यान देते हैं क्योंकि कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर संगठन मंत्री रास्वसंघ के प्रचारक होते हैं जिन्हें भाजपा में भेजा जाता है। प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का संगठन महामंत्री भी संघ का प्रचारक ही बनता है। जनसंघ की स्थापना के समय पं. दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, सुंदर सिंह भंडारी और कुशाभाऊ ठाकरे जैसे प्रचारकों को संघ ने जनसंघ को सौंपा था। ज्यों-ज्यों उसका प्रभाव क्षेत्र बढ़ा त्यों-त्यों प्रदेश, संभाग और जिला स्तर पर भी संगठन मंत्री के रूप में संघ के प्रचारक आते गये और यह परम्परा भाजपा में भी बदस्तूर जारी है। जब तक पार्टी विपक्ष में रही तब तक तो सब ठीक-ठाक चला लेकिन 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के साथ ही सत्ता का सान्निध्य मिलने के बाद से चाल, चरित्र और चेहरा तीनों में विकृति की शुरुवात हुई जो अब सतह पर नजर आने लगी है। वैसे कमोबेश इस तरह की बुराइयां तो सभी राजनीतिक दलों के बीच आती जा रही हैं लेकिन भाजपा चूँकि चरित्र का ढिंढोरा कुछ ज्यादा ही पीटती है इसलिए जब उससे जुड़ी ऐसी कोई बात होती है तब उसे ज्यादा प्रचार मिलता है। अनेक प्रदेशों में लम्बे समय तक सत्ता में रहने के साथ ही केन्द्रीय सत्ता पर कब्जे के बाद भाजपा में जो राजसी ठसक आई उससे संघ के प्रचारक रहे कतिपय संगठन मंत्री भी अछूते नहीं रहे और उन पर भी आर्थिक और चारित्रिक आरोप लगने लगे। हालांकि इसके पीछे भी राजनीतिक विद्वेष होता है और सभी एक जैसे नहीं होते। लेकिन भाजपा के साथ ही संघ के लिए भी ये चिंता और चिन्तन का विषय है कि ऐसा क्यों होने लगा है? जाहिर है भाजपा में अब चने खाकर संगठन का काम करने वाला दौर खत्म हो चुका है लेकिन सत्ता और संपन्नता दोनों के एक साथ आ जाने से जो बुराइयां सामान्य मनुष्य के साथ जुड़ जाती हैं, वही पार्टी के संगठन मंत्री जैसे उन नेताओं में घुस आईं जो संघ के संस्कारों से दीक्षित होकर राजनीति में शुचिता और समर्पण का भाव जगाने आते हैं। भाजपा का दिल्ली स्थित राष्ट्रीय कार्यालय किसी सात सितारा होटल से कम नहीं है। वहां जाने वाले अधिकतर लोगों का अनुभव ये है कि वह पार्टी दफ्तर की बजाय किसी औद्योगिक समूह का मुख्यालय प्रतीत होता है। अमित शाह ने पार्टी की कमान सँभालने के बाद देश भर में सर्व आधुनिक सुविधायुक्त कार्यालय बनाने का अभियान भी चलाया। इसकी वजह से भाजपा का आभामंडल तो बढ़ा लेकिन संघ कार्यालय की सादगी से निकलकर सुविधाओं और ठाटबाट के निकट आते ही संगठन मंत्रियों के मन में सांसारिकता का आकर्षण जागने लगा। भले ही ऐसे लोगों की संख्या बेहद नगण्य हो लेकिन हांडी के एक चावल वाली उक्ति को इस संदर्भ में अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता। ऐसा लगता है संघ को भी अब अपने प्रचारकों को कुछ समय बाद भाजपा से वापिस बुलाने की प्रणाली शुरू करनी चाहिए क्योंकि भाजपा की नीतियाँ और सिद्धांत कितने भी अच्छे हों लेकिन अब वह एक विशुद्ध राजनीतिक पार्टी है जिसका पूरा ध्यान सत्ता हासिल करना, उसमें बने रहना और फिर दोबारा हासिल करना रह गया है। ऐसे में विश्वामित्र की तपस्या भंग होने जैसे पौराणिक वृतांतों के दोहराए जाने से उसका बचना कठिन है। लेकिन राजनीतिक पार्टियाँ तो गन्दगी के बीच रहने की आदी होती हैं परंतु संघ को अपनी प्रतिष्ठा की चिंता करनी चाहिए क्योंकि उसके घोर विरोधी तक दबे छुपे ही सही उसकी प्रशंसा करते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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