Thursday 4 July 2019

कांग्रेस से ज्यादा ये गांधी परिवार की हार है

राहुल गाँधी को अनुभवहीन कहना तो उनके प्रति अन्याय होगा लेकिन 2019 के जनादेश को लेकर उनकी अब तक की जो प्रतिक्रियाएं रहीं उनसे उनका निराशाबोध साफ झलकता है। 25 मई को पार्टी अध्यक्ष पद से दिए अपने त्यागपत्र पर अभी तक जो अनिश्चितता थी उसे उन्होंने गत दिवस एक लम्बा और भाव भरा पत्र लिखकर समाप्त कर दिया। एक बात और भी उन्होंने स्पष्ट कर दी कि प्रियंका वाड्रा उनका स्थान लेने नहीं जा रहीं। अपने पत्र में स्वयं को चुनावी हार के लिए जिम्मेदार मानकर जो ईमानदारी दिखाई वह स्वागतयोग्य है। हालाँकि वे ऐसा नहीं कहते तब भी हर कोई उनको ही इसके लिए जिम्मेदार मानता क्योंकि केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि पूरे विपक्ष के तौर पर उन्हीं को देखा जा रहा था। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को बिना नाम लिये चोर कहने का जो दुस्साहस वे करते रहे उसकी वजह से उन्हें  काफी प्रचार भी मिला। लेकिन परिणाम आने के बाद साफ हो गया कि उनको लेकर देश का जनमानस आश्वस्त नहीं हो सका, जिसकी वजह वे स्वयं हैं। कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद संगठन को मजबूत करते हुए देश की परिस्थितियों का जमीनी अध्ययन करने की बजाय वे अपनी विदेश यात्राओं में समय व्यर्थ गंवाते रहे जिनमें अनेक गुप्त रहीं। हालाँकि उनकी निजता को भंग करने का अधिकारर किसी को नहीं है लेकिन प्रधानमन्त्री पद के दावेदार नेता की विदेश यात्राओं को गोपनीय रखने की वजह से लोगों के मन में जिस तरह की बातें उठीं उनका जवाब नहीं मिलने से श्री गांधी की छवि एक गैर जिम्मेदार नेता की बन गयी। अपने त्यागपत्र में उन्होंने और भी लोगों को हार के लिए जिम्मेदार बताया। बीते दिनों उनकी तरफ से ये उलाहना दिया गया था कि उनके पद त्याग के बाद भी बाकी लोग संगठन और सत्ता छोडऩे तैयार नहीं हैं। अपने पत्र में भी सत्ता लोलुपता पर उन्होंने तंज कसे हैं। उनके उलाहने के बाद बाद कुछ लोगों ने हिम्मत दिखाई भी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे उनकी वजनदारी बढ़ती।  पत्र  में उन्होंने आदर्श और  सिद्धांत भी खूब बघारे हैं। भाजपा और रास्वसंघ को लेकर भी काफी कुछ कहा है। जीवन भर लड़ते रहने का हौसला भी दिखाया है। लेकिन उनके विचारों से ये लगता है कि लगातार दो लोकसभा चुनाव  हार जाने के बाद भी वे इस बात को समझने में असमर्थ हैं कि जनता ने 2014 में कांग्रेस की नीतियों और 2019 में उनके और उनके परिवार के नेतृत्व को सिरे से नकार दिया है। नरेंद्र मोदी की पहली जीत निश्चित रूप से डा. मनमोहन सिंह की सरकार के विरुद्ध जनादेश था लेकिन विगत 23 मई को जो परिणाम आये वे मोदी सरकार के पांच वर्षीय शासन के पक्ष में आया फैसला है जिसे घुमा-फिराकर अस्वीकार करना ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि राहुल में सच्चाई को स्वीकार करने का या तो साहस नहीं है या फिर उनके भीतर समाया श्रेष्ठता का भाव उन्हें वैसा करने से रोकता है। कांग्रेस 1977 में पहली मर्तबा हारकर सत्ता से बाहर हुई थी। इंदिरा जी की वापिसी यद्यपि ढाई साल बाद हो गयी लेकिन वे पहले जैसी  असरदार नहीं दिखाई दीं। यदि उनकी हत्या नहीं हुई होती तब अगले चुनाव में वे हार जातीं। दुर्घटनावश प्रधानमन्त्री बने राजीव गांधी भी महज 5 साल बाद ही जनता की नजर से उतर गए और उसके बाद से कांग्रेस कंभी अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पाई तो उसकी वजह दूसरी पंक्ति के नेतृत्व को तैयार नहीं करना ही रहा। पहले सोनिया गांधी और फिर राहुल गांधी के हाथों में पूरी निर्णय प्रक्रिया छोडऩे का दुष्परिणाम ये हुआ कि पार्टी में चिंतन-मनन की प्रक्रिया या कहें कि संस्कार ही खत्म होकर रह गए। जिसके कारण वह दिशाहीन होकर रह गयी। भाजपा को साम्प्रदायिक बताने के बावजूद राहुल ने हिंदुत्व का चोला पहिना लेकिन वे उस ढोंग से जनमानस में भरोसा नहीं जता सके। नीतिगत विरोध प्रजातंत्र का  आधारभूत सिद्धांत है लेकिन उसके औचित्य को साबित करना भी जरूरी होता है,  जो राहुल और उनके नेतृत्व में कांग्रेस नहीं कर सकी। देश की सुरक्षा और आतंकवाद जैसे विषयों पर मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग वाली कहावत का अनुसरण करने की वजह से भी राहुल की नेतृत्व क्षमता और परिपक्वता सवालों के घेरे में आ गयी। गत दिवस उन्होंने पार्टी के भीतर लोकतंत्र की बात कहकर जो आदर्श बघारे यदि उनका पालन पहले किया गया होता तब कांग्रेस की ये दशा नहीं होती। खुद को कार्यकर्ता बताने वाले श्री गांधी क्या ये बताएँगे कि कितने पार्टी कार्यकर्ताओं को उनकी तरह सीधे राष्ट्रीय महासचिव, उपाध्यक्ष और फिर अध्यक्ष बनने का अवसर मिला? प्रियंका वाड्रा का ऐसा कौन सा योगदान था जिसके आधार पर उन्हें सीधे उठाकर महासचिव बना दिया गया। सवाल और भी हैं लेकिन राहुल उनके जवाब जानने से बचते हैं  क्योंकि पार्टी संगठन में  जिस लोकतंत्र की याद उन्हें कल आई उसका अंतिम संस्कार तो पं. नेहरु साठ के दशक में ही कर चुके थे जब राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे कद्दावर नेता को पार्टी अध्यक्ष पद छोडऩे मजबूर किया गया और बाद में यू. एन. ढेबर को हटाकर उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाया। बाद का इतिहास सभी को पता है। राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल किस लोकतान्त्रिक तरीके से चुने गये ये शोध का विषय है। ऐसे में जब उनके नेतृत्व में पार्टी अपने सबसे बुरे दौर में आ खड़ी हुई तब लोकतन्त्र के आधार पर नया अध्यक्ष का चुनाव करने का उपदेश देकर श्री गांधी भले ही खुद को त्याग और आदर्शवाद का प्रतीक साबित करने की कितनी भी कोशिश कर लें लेकिन ये कहना कतई गलत नहीं होगा कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का इस दुरावस्था तक पहुंचना गांधी परिवार के एकाधिकार का ही दुष्परिणाम है। भाजपा और नरेंद्र मोदी को कोसते हुए संवैधानिक संस्थाओं पर संघ के कब्जे जैसी बातें श्री गांधी की हताशा का ताजा प्रगटीकरण है। उन्हें ये स्वीकार करना ही होगा कि देश की जनता ने कांग्रेस को नहीं अपितु राहुल और उनके परिवार की उस सोच को पूरी तरह से खारिज कर दिया जिसके मुताबिक पार्टी और देश उनके बिना नहीं चल सकता। कांग्रेस के लिए भी ये गम्भीर चिंतन का समय है। एक परिवार के शिकंजे से आजाद होकर अपनी नीतियों और सिद्धांतों को लेकर जनता के बीच जाने का ये अवसर यदि वह चूक गयी तब उसके पुनरुद्धार की रही-सही संभावनाएं भी क्षीण हो जायेंगीं। भाजपा भी 1984 में दो सीटों पर सिमट गई थी लेकिन उसके पास वैचारिक आधार था जिसकी वजह से वह दोबारा खड़ी हो सकी लेकिन कांग्रेस की नीतियाँ और सिद्धांत पार्टी की बजाय एक परिवार के बंधुआ हो जाने से वह लगातार कमजोर होते-होते इस दुर्दशा तक आ पहुँची। सोनिया जी और राहुल ने पार्टी में नये नेतृत्व को उभरने से जिस तरह रोका उसका ही परिणाम है कि आज कोई ऐसा चेहरा सामने नहीं आ रहा जो जनमानस तो क्या कांग्रेसजनों में ही उत्साह का संचार कर सके। राहुल ने पराजय के  लिए अपने अलावा और लोगों को भी जिम्मेदार माना है लेकिन ये गलत है क्योंकि कांग्रेस में नीति निर्धारण और निर्णय करने का अधिकार केवल और केवल गांधी परिवार को ही था। यदि चुनाव अनुकूल होते और राहुल प्रधानमन्त्री बन जाते तब उनकी उत्तराधिकारी प्रियंका वाड्रा ही होतीं। चुनाव परिणाम के बाद राहुल की जितनी किरकिरी हुई उससे भी ज्यादा फजीहत तो बीते एक महीने में उनके त्यागपत्र को लेकर चले आ रहे नाटकीय घटनाक्रम से हो गई।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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