Wednesday 31 July 2019

मोदी की बजाय मुस्लिम महिलाओं की जीत है ये

यदि ये मान भी लिया जाए कि भाजपा ने इसके जरिये अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध किया तब भी इस बात से कौन इंकार करेगा कि एक ही झटके में तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कहकर अपनी बीवी को छोड़ देने वाली प्रथा किसी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकती। 1947 में मुस्लिम राष्ट्र के नाम पर अलग हुए कट्टरपंथी इस्लामी पाकिस्तान ने 1956 में ही इस प्रथा को खत्म कर दिया था। लेकिन भारत सरीखे धर्मनिरपेक्ष देश को वैसा करने में सात दशक से भी ज्यादा लग गये और वह भी तब जब सर्वोच्च न्यायालय ने दो वर्ष पूर्व एक मुस्लिम महिला सायरा बानो की याचिका पर फैसला सुनाते हुए आनन-फानन में तीन तलाक दिए जाने को अवैध मानकर केंद्र सरकार को निर्देशित किया कि वह कानून बनाकर इसे रोकने का पुख्ता इंतजाम करे। नरेंद्र मोदी सरकार ने तदनुसार कदम आगे बढ़ाये लेकिन कांग्रेस सहित कुछ और पार्टियों ने राज्यसभा में अपने संख्याबल की ताकत पर उसे रोक दिया। नई लोकसभा के गठन के बाद सत्ता में लौटी मोदी सरकार ने बिना समय गँवाए प्राथमिकता के तौर पर इस दिशा में पहल की। लोकसभा में तो खैर उसका बहुमत था ही लेकिन राज्यसभा में भी गत दिवस आखिरकार एक साथ तीन तलाक बोलकर विवाह विच्छेद करने की प्रथा पर कानूनी रोक लगा दी गई। बीते दो साल से यह मुद्दा राजनीतिक दलों के साथ ही मुस्लिम समाज के भीतर बहस और विवाद की वजह  बना हुआ था। सरकार ने कानून में तीन तलाक को दंडनीय अपराध बनाने का जो प्रावधान किया उसे लेकर सबसे ज्यादा एतराज था। कानून के विरोध  में ये तर्क दिया गया कि इसके जरिये मुस्लिम पुरुषों को प्रताडि़त किया जाएगा। महज शिकायत के आधार पर गिरफ्तारी और बिना पीडि़त महिला के बयान सुने जमानत नहीं  दिए जाने जैसे प्रावधानों को मुस्लिम विरोधी बताया गया। लेकिन कानून मंत्री ने स्पष्ट कर दिया कि आधारहीन शिकायत पर पत्नी यदि पति के पक्ष में बयान देती है तब उसे तत्काल रिहाई मिल जायेगी। दंडाधिकारी ऐसे मामलों में सुलह करवाकर भी विवाद हल कर सकेगा। असदुद्दीन ओवैसी और माजिद मेमन सरीखे कानून के जानकार सांसदों ने क्रमश: लोकसभा और राज्यसभा में कानून के दुरूपयोग के साथ ही इस्लामिक व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप पर ऐतराज जताया लेकिन कानून को गहराई में जाकर समझने से मोटे तौर पर एक बात तो साफ़  है कि मिस्र जैसे इस्लामी राष्ट्र द्वारा 1929 में तीन तलाक़ पर रोक लगाकर जो शुरुवात की गई थी उसके बाद पाकिस्तान, सीरिया, ट्यूनीशिया, श्रीलंका, बू्रनेई, ईरान, मोरक्को, सायप्रस, जॉर्डन, अल्जीरिया, कतर, संयुक्त अरब अमीरात और ईराक जैसे देशों ने शरीया की व्याख्या करते हुए एक साथ तीन तलाक कहे  जाने को एक तलाक मानकर आगे की कार्रवाई करने का कानून बनाया। ये सब देखते हुए जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी तीन तलाक को अवैध मानकर सरकार से उसे रोकने के बारे में कानून बनाए कहा तभी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अलावा भारत में मुस्लिमों की मान्यता प्राप्त धर्मिक संस्थाएं और धर्मगुरु अगर सकारात्मक रवैया दिखाकर सार्थक पहल करते हुए मुस्लिम महिलाओं को संरक्षण और सम्मान दिलवाने आगे आते तब शायद उन्हें उस पराजयबोध का शिकार नहीं होना पड़ता जो संसद द्वारा कानून पारित करने के बाद उनके चेहरे से देखा जा सकता है। परदे में रहने वाली मध्यम और उससे भी नीचे की सामाजिक हैसियत वाली मुस्लिम महिलाओं ने जिस अंदाज में खुशियाँ मनाईं उसे मुस्लिम समाज में बड़े बदलाव की शुरुवात के तौर पर देखा जाना चाहिए। आश्चर्य की बात है कि राहुल गांधी सरीखे शिक्षित और आधुनिक ख्यालात वाले नेता के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी तक ने इस मुद्दे पर विरोध किया। कहा गया है कि बुद्धिमान इंसान अपनी गलतियों से सीखता है लेकिन कांग्रेस ने गलतियों को दोहराने की नासमझी की। 1986 में शाह बानो नामक तलाकशुदा मुस्लिम महिला द्वारा गुजारा भत्ता की जो याचिका सर्वोच्च न्यायालय में लगाई, उसे मंजूरी मिल गई थी। लेकिन 400 सीटों के विशाल बहुमत वाली राजीव गांधी की सरकार ने संसद में उस फैसले को उलट दिया। उसकी वजह से कांग्रेस को कितना नुक्सान हुआ ये बताने की जरूरत नहीं है। उसके बाद भी छद्म धर्मनिरपेक्षता की चादर उतारकर मुस्लिम महिलाओं की बेहतरी के लिए बनाये जा रहे क़ानून में योगदान देने से वह केवल इसलिए पीछे हट गयी कि उससे भाजपा को राजनीतिक लाभ मिलेगा। अनेक दूसरी पार्टियां भी कानून के विरोध में थीं लेकिन उन्होंने बुद्धिमत्ता दिखाते हुए मतदान में  हिस्सा नहीं लिया जिससे राज्यसभा में अल्पमत के बाद भी सरकार को मदद मिल गयी। नरेन्द्र मोदी का राजनीतिक प्रबंधन और समय चयन एक बार फिर कसौटी पर खरा उतरा। मुस्लिम महिलाओं के हित में कानून बनवाकर उन्होंने समान नागरिक संहिता की तरफ  एक कदम और बढ़ा दिया है। सर्वोच्च न्यायालय भी अनेक अवसरों पर उसकी जरूरत बता ही चुका है। बेहतर होगा यदि मुस्लिम समाज के सुशिक्षित लोग उन कुरीतियों के विरुद्ध कमर कसने का साहस दिखाएँ जिनकी वजह से देश की दूसरी बड़ी आबादी विकास की मुख्य धारा में शामिल होने से वंचित रह गई। हमारे देश में वैसे तो हर मसले को राजनीति के चश्मे से देखे जाने का चलन है लेकिन तीन तलाक कानून को मोदी की बजाय मुस्लिम महिलाओं की जीत के तौर पर देखा जाए तो ज्यादा बेहतर रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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