Saturday 26 September 2020

किसानों के दम पर बने ढेर नेता : फिर भी वह नेतृत्वविहीन




भाजपा के बौद्धिक पूर्वज पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी ने गत दिवस पार्टी कार्यकर्ताओं को अपने संबोधन में नए किसान कानूनों के विरोध को निरर्थक ठहराते हुए विपक्ष पर आरोप लगाया कि वह किसानों को बरगला रहा है। उन्होंने नए कानूनों को किसानों के हित में लिया गया ऐतिहासिक निर्णय बताते हुए कहा कि इससे छोटे किसान सबसे ज्यादा लाभान्वित होंगे जिनकी संख्या 85 फीसदी है। प्रधानमन्त्री ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया जिससे ये लगता कि उनकी सरकार इस मामले में कदम पीछे खींचने को तैयार है। बल्कि उन्होंने पार्टी कायकर्ताओं का आह्वान किया कि वे किसानों के बीच जाकर उनकी गलतफहमी दूर करें। दूसरी तरफ कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो किसानों से इन कानूनों का विरोध करने के लिए आजादी के आन्दोलन जैसा संघर्ष करने कहा है। यूँ भी नए कानूनों का जैसा विरोध पंजाब और हरियाणा में हो रहा है, वैसा अन्य राज्यों में नजर नहीं आया। कल आयोजित बंद में भी प. उत्तरप्रदेश के किसानों ने आम तौर पर शान्ति बनाये रखी। जबकि इस क्षेत्र को किसान आन्दोलन की जमीन माना जाता है। लेकिन जैसी खबरें आ रही हैं उनके अनुसार गैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारें नए कानून को लागू नहीं करने के संकेत दे रही हैं। पंजाब सरकार तो पूरे प्रदेश को एक मंडी बनाने जैसे कानून पर विचार कर रही है जिससे उसे मिलने वाला टैक्स यथावत रहे। छतीसगढ़ में भी ऐसी ही चर्चाएँ सुनने में आ रही हैं। हालाँकि किसान को यदि अखिल भारतीय स्तर पर अपना उत्पादन बेचकर ज्यादा दाम मिलने की सम्भावना होगी तब वह राज्य स्तर पर लगाई जाने वाली बंदिशों को शायद ही स्वीकार करेगा। लेकिन भाजपा, कांग्रेस अथवा अन्य पार्टियां किसानों से सीधा संवाद करने की क्षमता खो चुकी हैं। देश में कहने को तो किसानों के स्वयंभू नेता अनगिनत हैं लेकिन सही मायनों में वे नेतृत्वविहीन हैं। पंजाब में अनेक स्थानों पर राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को आन्दोलनकारी किसानों ने खदेड़ दिया। एक जमाना था जब महेंद्र सिंह टिकैत ने प. उत्तरप्रदेश में बड़े किसान आन्दोलन की नींव रखी थी। लेकिन कालान्तर में वह प्रयोग अपनी मौत मरता गया। प्रधानमंत्री की कुर्सी तक जा पहुंचे स्व. चौधरी चरण सिंह और एचडी देवगौड़ा खुद को किसान कहते रहे लेकिन उनकी राजनीतिक विरासत किसी किसान की बजाय उनके बेटे और पोतों के हाथ में आई जिनका दूरदराज तक गाँव, खेत और किसान से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। और यही किसानों के साथ हुआ सबसे बड़ा मजाक है। पंजाब और हरियाणा के किसान जिस बैनर के तले आन्दोलनरत हैं वह राष्ट्रीय स्तर पर कितना प्रभावशाली है ये कल के आन्दोलन से सामने आ गया। कांग्रेस के साथ अन्य विपक्षी पार्टियाँ यदि पीछे से साथ न दें तो किसानों के अपने संगठन उतने दमदार नहीं रहे जो सरकार तक अपनी बात पहुंचा सकें। सही बात तो ये है कि राजनीतिक दलों ने बड़ी ही कुटिलता से किसानों के बीच गैर राजनीतिक नेतृत्व पनपने ही नहीं दिया। एक जमाने में वामपंथी पार्टियां मजदूरों और किसानों की हितचिन्तक होने का दावा किया करती थीं । लेकिन उदारीकरण के बाद अव्वल तो श्रमिक संगठन अप्रासंगिक होते जा रहे हैं वहीं किसानों के बीच वामपंथी प्रभाव बहुत ज्यादा कभी नहीं रहा। सही बात तो ये है कि जिस दिन सीपीएम के तत्कालीन महासचिव स्व. हरिकिशन सिंह सुरजीत ने साम्प्रदायिकता के विरोध का बहाना लेते हुए डा. मनमोहन सिंह की सरकार को टेका लगाया उसी दिन से वामपंथी अपनी सैद्धांतिक पहिचान खो बैठे जिसका प्रमाण बंगाल में उनका मजबूत किला धराशायी होने के रूप में सामने आया। आज के माहौल में किसानों के दम (वोट) पर बने नेता तो ढेर सारे हैं लेकिन फिर भी किसानों का कोई नेता नहीं है। ऐसे में मौजूदा आन्दोलन भी या तो हिंसक होने के बाद अपराधबोध का शिकार होकर हाँफने लगेगा या दिशाहीन होने से भटकाव का शिकार बनकर रह जाएगा। देश की दोनों प्रमुख पार्टियों के दो बड़े नेताओं ने गत दिवस जो आह्वान किये उनके सन्दर्भ में ये कहना गलत न होगा कि न तो भाजपा में अब ऐसे कार्यकर्ता हैं जो प्रधानमन्त्री के आह्वान पर गाँव-गाँव घूमकर किसानों को नए कानूनों के फायदे समझाएं और न ही राहुल में गांधी जी जैसी क्षमता है जो स्वाधीनता संग्राम जैसा आन्दोलन खड़ा कर सकें। वास्तविकता तो ये है कि राजनीतिक दलों में जब मिशनरी भाव से काम करने वाले नेता ही नहीं रहे तब कार्यकर्ताओं से अपेक्षा करना बेमानी ही है। हालांकि भाजपा और काँग्रेस दोनों ने किसानों के बीच काम करने हेतु अपने-अपने प्रकोष्ठ बना रखे हैं। लेकिन वे सब नेतागिरी चमकाने के मंच बनकर रह गए। ऐसी स्थिति में किसानों को नए कानूनों के फायदे और नुकसान बताने वाला तंत्र राजनीतिक दलों में लगभग समाप्त हो चुका है। ऐसे में प्रधानमन्त्री को चाहिए वे इन कानूनों पर सीधे किसानों से टीवी के माध्यम से मुखातिब होकर अपनी बात रखें। केंद्र सरकार के छह मंत्री पत्रकार वार्ता के जरिये किसानों के मन में व्याप्त आशंकाओं को दूर करने आगे आये। बाद में कृषि मंत्री ने भी मोर्चा संभाला लेकिन पंजाब और हरियाणा के किसानों ने उनके आश्वासनों को तवज्जो नहीं दी। पंजाब में भाजपा का जनाधार उतना अच्छा नहीं है लेकिन हरियाणा में तो उसकी अपनी सरकार है। फिर भी यदि वहां के किसान सड़कों पर हैं तब ये कहना गलत नहीं होगा कि अधिकतर राजनीतिक नेता जनसंवाद की कला भूल चुके हैं। सोशल मीडिया के जरिये सियासत करने वाले नेताओं से पसीना बहाने की उम्मीद करना वैसे भी व्यर्थ है।


- रवीन्द्र वाजपेयी


No comments:

Post a Comment