Wednesday 23 September 2020

सुरक्षा परिषद : भारत की स्थायी सदस्यता के बिना चीन पर नियन्त्रण असंभव




संरासंघ महासभा का वार्षिक अधिवेशन प्रतिवर्ष सितम्बर में होता है। वैसे तो यह एक औपचारिकता है जिसका उद्देश्य सदस्य देशों को ये एहसास कराना है कि इस विश्व संस्था का मंच उन सभी को अपनी बात कहने का अवसर प्रदान करता है। लेकिन कोरोना नामक महामारी ने इस वर्ष महासभा के अधिवेशन की चमक फीकी कर दी। संरासंघ की 75 वीं सालगिरह पर इस साल दुनिया भर से राष्ट्राध्यक्ष अपने सन्देश वीडियो के माध्यम से भेज रहे हैं। गत दिवस भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोनों के वीडियो भाषण महासभा में प्रसारित किये गये। चीनी राष्ट्रपति ने कोरोना वायरस फैलाने संबंधी आरोप का खंडन करते हुए ये भी कहा कि चीन किसी से न शीतयुद्ध चाहता है और न ही गर्म युद्ध। उन्होंने भारत के साथ चल रहे सीमा विवाद को स्वाभाविक बताते हुए बातचीत से हल निकालने की बात भी कही। दूसरी तरफ अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन को कोरोना फैलाने के लिए कठघरे में खड़ा करते हुए मांग की कि उसे इसके लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। ट्रंप ने कोरोना को एक बार फिर चीनी वायरस कहकर उस पर सीधा हमला किया। लेकिन श्री मोदी ने संरासंघ पर मंडरा रहे विश्वास के संकट का जो जिक्र किया वह बेहद प्रासंगिक है। उन्होंने खुले शब्दों में पूरी दुनिया को ये बता दिया कि इस विश्व संगठन के मौजूदा ढांचे में आमूल परिवर्तन की जरूरत है जिसके बिना दुनिया के सामने विद्यमान चुनौतियों का सामना करने में वह असमर्थ है। हालाँकि उन्होंने इसे स्पष्ट नहीं किया किन्तु कूटनीतिक वक्तव्यों में संकेतों का बड़ा महत्व होता है। उस दृष्टि से प्रधानमंत्री ने सुरक्षा परिषद के पुनर्गठन का सवाल उठाते हुए स्थायी सदस्य के तौर पर भारत की दावेदारी एक बार फिर पेश कर दी। उल्लेखनीय है दूसरे विश्व युद्ध के उपरान्त लीग ऑफ  नेशन्स के स्थान पर संरासंघ की स्थापना की गयी जिसका मुख्यालय जिनेवा से हटाकर अमेरिका की आर्थिक राजधानी न्यूयॉर्क ले जाया गया। दो महायुद्धों की विभीषिका से त्रस्त अधिकतर देश इस संस्था से जुड़ते चले गये। लेकिन विश्वयुद्ध विजेता के तौर पर उभरे अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और ताईवान को विशेष अधिकार संपन्न बनाते हुए सुरक्षा परिषद नामक एक संस्था संरसंघ के भीतर ही बनाई गई। उसमें उक्त देश स्थायी सदस्य बन बैठे जिन्होंने वीटो नामक ब्रह्मास्त्र अपने पास रखा। हालाँकि परिषद में अनेक अस्थायी सदस्य भी होते हैं जो एक निश्चित समयावधि के लिए चुने जाते हैं । लेकिन वीटो से वंचित रहने के कारण अपनी बात को लागू करवाने के लिए उनको स्थायी सदस्यों के रहमो - करम पर निर्भर रहना होता है। अस्सी के दशक में जब चीन को संरासंघ की सदस्यता दी गयी तब ताईवान की जगह उसे सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाकर वीटो से सुसज्जित कर दिया गया। कूटनीतिक जगत में ये बात अक्सर चर्चा में आती रही है कि विश्व की बड़ी ताकतें भारत को परिषद में स्थायी सदस्य के तौर पर स्थापित करना चाहती थीं लेकिन हमारे विदेश नीति निर्धारकों ने चीन के पक्ष में अपना दावा छोड़ दिया। देश आजाद होते ही कश्मीर का मसला उलझ गया जिसे पंडित नेहरू लॉर्ड माउन्टबेटन की सलाह पर संरासंघ ले गए। वहां अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश भारत के विरोध में अपने वीटो का उपयोग करते रहे। जबकि रूस हमारे  समर्थन में खड़ा रहा वरना कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष मजबूत हो जाता। लेकिन चीन को वीटो मिल जाने के बाद भारत की चिंताएं और बढ़ गईं। बीते कुछ वर्षों में आतंकवाद और कश्मीर जैसे अनेक मसलों पर चीन ने जिस प्रकार भारत के विरोध में वीटो का उपयोग किया उसके कारण उनका औचित्य सामने आ गया। इसी कमी को दूर करने के लिए ही भारत लंबे समय से सुरक्षा परिषद का पुनर्गठन कर स्थायी सदस्यता हासिल करने की मुहिम चला रहा है जिसे विश्व बिरादरी में काफी समर्थन भी मिलने लगा है। बाजारवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था के उदय के उपरान्त पश्चिमी देशों को भी भारत की अहमियत महसूस होने लगी है। विशेष रूप से चीन के आर्थिक महाशक्ति बन जाने से एशिया में उसको टक्कर देने में भारत की क्षमता को अमेरिका और उसके समर्थक देश समझने लगे हैं। श्री मोदी ने गत दिवस संरासंघ  के विश्वास के संकट से गुजरने की चर्चा के साथ मौजूदा ढांचे में सुधार के बिना वर्तमान वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में असमर्थता का जो जिक्र किया वह सुरक्षा परिषद की  स्थायी सदस्यता के दावे को दोहराने का प्रयास ही है। कोरोना के बाद वैश्विक शक्ति संतुलन नये सिरे से होने की संभावनाएं है क्योंकि विश्व व्यापार संगठन बना तो अमेरिका और उसके समर्थक देशों के लाभ के लिये था किन्तु उसका सर्वाधिक लाभ चीन ने उठाया। लेकिन कोरोना ने पूरी दुनिया को ये अवसर दे दिया कि चीन की ताकत के असीमित विस्तार पर रोक लगाई जाए। 2020 की शुरुवात में ये बात असंभव दिखती थी लेकिन बीते आठ - नौ महीने के भीतर अब चीन को घेरने की नीति वैश्विक स्तर पर विचाराधीन है और इसके लिए संरासंघ और उसके ढांचे में बदलाव या सुधार भी निकट भविष्य में किए जा सकते हैं। मौजूदा स्थिति में भारत के महत्व को दुनिया ने बिना लागलपेट के स्वीकार किया है। शायद इसीलिये प्रधानमंत्री ने संरासंघ महासभा को प्रेषित संबोधन मे सीधे-सपाट शब्दों में उसके मौजूदा ढांचे को कालातीत बताते हुए पुनर्गठन पर बल दिया। कोरोना काल के बाद की दुनिया में भारत की भूमिका के मद्देनजर श्री मोदी ने जो कूटनीतिक दांव चला वह हमारे बढ़ते हुए आत्मविश्वास का परिचायक है। सौभाग्यवश इस मुद्दे पर देश में किसी भी प्रकार का राजनीतिक मतभेद नहीं है। पिछली सरकार भी ऐसा ही करती रही हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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