Saturday 12 September 2020

चीन दबाव में है लेकिन हमें खुशफहमी से बचना होगा



दो देशों के बीच मित्रता और शत्रुता दोनों के समय यदि कोई बात कायम रहती है तो वह कूटनीति ही है। अनेक उदाहरण हैं जब सेनाओं के बीच घमासान चलता रहता है वहीं सरकार के स्तर पर राजनयिक वार्ताओं के जरिये शान्ति की कोशिश भी जारी रहती हैं। ये भी देखने में भी आया है कि दो देशों के बीच के मतभेद दूर करने के लिए कोई तीसरा देश मध्यस्थता भी करता है। भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 के युद्ध के बाद तत्कालीन सोवियत संघ ने ताशकंद बुलाकर भारत के प्रधानमंत्री स्व.लालबहादुर शास्त्री और उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे अयूब खान के बीच समझौता करवाया था। दूसरे विश्व युद्ध के उपरान्त चीन में साम्यवादी क्रांति के बाद अमेरिका के साथ उसका राजनयिक रिश्ता नहीं था। सुरक्षा परिषद में भी चीन की जगह ताईवान को स्थायी सदस्य के तौर पर अमेरिका ने बिठा रखा था। लेकिन 1972 में अचानक अमेरिका के रुख में बदलाव आया और उसके विदेश सचिव हेनरी कीसिंजर पकिस्तान की मदद से चीन की गुप्त यात्रा पर गये और उससे राजनयिक रिश्ते बनाकर सुरक्षा परिषद में ताईवान की जगह उसे रखवाने में सहायता दी। उसके बाद चीन और अमेरिका वैचारिक मतभेदों के बावजूद आर्थिक क्षेत्र में बेहद नजदीक आ गए। आज उनके बीच तनाव चरम पर है किन्तु दोनों ही एक दूसरे के यहाँ इतना ज्यादा पूंजी निवेश कर चुके हैं कि पूरी तरह नाता तोड़ने में उन्हें हजार बार सोचना पड़ेगा। संयोगवश भारत भी इन दिनों ऐसी ही परिस्थिति से गुजर रहा है। 1962 में चीन ने दोस्ती की आड़ में धोखा देकर हमला किया और हमारी हजारों वर्गमील जमीन पर कब्जा ली। बाद में उसने पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर का अक्साई चिन इलाका भी बतौर उपहार ले लिया। उसके बाद भी भारत और चीन के बीच सीमा विवाद के बावजूद सामान्य सम्बन्ध बने रहे। और फिर वैश्विक अर्थव्यवस्था विकसित होने के बाद आर्थिक सम्बन्ध इस तेजी से विकसित होते गये कि सीमा विवाद मानो भुला सा दिया गया। हालाँकि बीच-बीच में चीन अपने स्वभाव के मुताबिक कुटिलता दिखाता रहा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसके कारण दुश्मनी सतह पर आती। भारतीय अर्थव्यवस्था पर चीन की छाया इतनी व्यापक हो गई कि पूरा बाजार मेड इन चायना से भर गया। इसका दुष्प्रभाव घरेलू उद्योगों पर पड़ने के बावजूद भारत ने चीन से आयात पर किसी तरह की रोक नहीं लगाई। यहाँ तक कि नरेंद्र मोदी तक चीन के साथ इकतरफा व्यापार को रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग से उनकी दोस्ती बड़ी राजनायिक कामयाबी मानी गई। लेकिन चीन कश्मीर और आतंकवाद के मसले पर सदैव पाकिस्तान की तरफदारी करता रहा। और फिर आ गया कोरोना जिसके बाद पूरी दुनिया उसे खलनायक मान बैठी। भारत में भी ये मानने वाले कम नहीं हैं कि दुनिया को इस महामारी के चंगुल में फंसाने वाला चीन ही है फिर भी उसके साथ व्यापारिक रिश्ते बरकऱार रखते हुए कोरोना संबंधी अनेक उपकरण और बचाव के साधन वहां से मंगाए गये। लेकिन वैश्विक महामारी के इस दौर का लाभ लेकर उसने लद्दाख क्षेत्र में घुसपैठ कर दशकों से शांत पड़ी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सैन्य हलचल बढ़ा दी। परन्तु इस बार उसे भारत से जो जवाब मिला उसके कारण वह न सिर्फ  चौंका बल्कि शर्मिन्दगी का शिकार भी हुआ। उसने नेपाल, बांग्लादेश, श्री लंका और पाकिस्तान के जरिये भी भारत पर दबाव बनाना चाहा लेकिन वह  योजना कारगर नहीं हुई। भारत ने सीमा पर दो-दो हाथ करने के इरादे तो दिखाए ही, साथ में आर्थिक मोर्चे पर चोट पहुँचाने के लिए भी ताबड़तोड़ फैसले करते हुए उसके आर्थिक बहिष्कार के प्रति जनमत पैदा कर दिया। हालाँकि चीन के नेता, राजनयिक और सरकार नियंत्रित समाचार माध्यम भारत के दावों का मजाक बनाते हुए गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी देने से बाज नहीं आये लेकिन सैन्य और राजनयिक स्तर पर बातचीत करते हुए विवाद को हल करने की पहल भी बीजिंग की तरफ से होती रही। इसका ताजा उदाहरण रूस में बीते कुछ दिनों के भीतर पहले भारत और चीन के रक्षा मंत्रियों और फिर विदेश मंत्रियों के बीच हुई लम्बी वार्ताएं हैं। ये लोग मास्को में आयोजित सम्मेलनों में शिरकत करने गये थे। लेकिन इन वार्ताओं की पेशकश चीन की तरफ  से होना ये साबित करता है कि 1962 के बाद पहली बार वह इतना झुका है। लेकिन सीमा पर हरकतें और सैन्य अधिकारियों के साथ चल रही वार्ताओं में उसके अड़ियलपन से ये अनुमान लगाया जा सकता है कि वह विश्व बिरादरी को दिखाने के लिए तो बातचीत करने का ढोंग रचता है किन्तु सीमा पर युद्ध के हालात बनाये रखकर धमकाने का कोई अवसर नहीं छोड़ता। हालांकि चीनी मामलों के जानकार मानते हैं कि वह फिलहाल युद्ध से बचना चाहेगा क्योंकि उसे ये अंदेशा है कि इस बार भारत सैन्य मोर्चे पर जोरदार टक्कर देगा जिससे उसके महाशक्ति होने के दावे को धक्का पहुंचेगा। जून महीने में गलवान घाटी और अगस्त के अंतिम सप्ताह में पेंगांग झील पर भारत के साथ सैन्य टकराहट में उसे जिस तरह का प्रतिरोध झेलना पड़ा वह उसके लिए जितना अप्रत्याशित था उतना ही अपमानजनक भी। गत दिवस विदेश मंत्री स्तर की वार्ता के दौरान दोनों देशों के बीच जिन पांच बिन्दुओं पर सहमति बनी उनमें विश्वास बहाली भी है जिसका आशय व्यापार को पहले जैसा बनाना ही है। इस दृष्टि से भारत सरकार ने पहली बार सैन्य, आर्थिक और राजनयिक तीनों मोर्चों पर जिस तरह चीन के समक्ष  चुनौती पेश की वह उत्साहित करने वाली है। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विशषज्ञों का मानना है कि नरेंद्र मोदी को सीधे जिनपिंग से बात करना चाहिए जो तनाव खत्म करने में कारगर साबित हो सकेगी क्योंकि उनके बीच पूर्व में काफी अच्छा संपर्क  और संवाद रहा है। लेकिन वक्त की नजाकत ये कहती है कि भारत को किसी भी तरह की जल्दबाजी की बजाय बराबरी के साथ बात करनी चाहिए। चीन निश्चित तौर पर बड़ी ताकत है लेकिन हाल के वर्षों में भारत भी हर क्षेत्र में आगे आया है, वरना न तो वह चीनी सेना से टकराने का साहस दिखाता और न ही आर्थिक मोर्चे पर उसके बहिष्कार जैसी बात सोचता। इसीलिये वह चाहे जितनी धमकी और धौंस देता रहे किन्तु उसकी समझ में ये बात आ चुकी है कि भारत के साथ टकराव से उसे भी जबर्दस्त नुकसान होगा और इसीलिये वह सीमा पर शरारत करते रहने के बावजूद वार्ता के लिए लालायित है। सही बात तो ये है कि लद्दाख में सैन्य गतिविधियाँ बढ़ाने के बाद वह खुद फंस गया है। यदि बिना किसी समझौते के उसने अपनी सेनायें पीछे हटाईं तो उसकी जबर्दस्त किरकिरी होगी। इसी तरह भारत ने यदि व्यापार प्रतिबन्ध जारी रखे तब भी चीन के हितों पर उनका दूरगामी असर होगा। ये देखते हुए फिलहाल भारत भारी न सही लेकिन हर तरह से बराबरी पर है। बावजूद उसके साथ किसी भी स्तर पर बातचीत और उसमें लिए जाने वाले फैसलों को लेकर अतिरिक्त सतर्कता आवश्यक है क्योंकि चीन किसी भी तरह से विश्वसनीय नहीं है। भारत ने बीते कुछ महीनों में जो तैयारी की है उससे देश और दुनिया में ये एहसास पैदा हुआ है कि  1962 और 2020 के भारत में वाकई जमीन और आसमान का फर्क  है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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