आज राजभाषा दिवस है। इसे हिन्दी दिवस भी कहा जाता है। 1949 में आज ही के दिन संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया था। 1953 में हिन्दी की महत्ता प्रतिपादित करने के लिए 14 सितम्बर को राजभाषा दिवस घोषित कर दिया गया। इस प्रकार यह एक तरह से उसका सरकारी जन्मदिवस है। कालान्तर में इसका विस्तार राजभाषा सप्ताह , पखबाड़ा और मास के तौर पर भी हो गया। वैसे तो हिन्दी के लिये ये सम्मान की बात है कि दर्जनों भाषाओं के होते हुए भी पूरे देश में सरकारी प्रेरणा से उसका गुणगान किया जाता है। छोटे-बड़े ढेर सारे आयोजन होते हैं। हिन्दी की सहजता , सरलता और स्वीकार्यता को लेकर संकल्प और प्रतिबद्धता दोहराई जाती है। प्रतियोगिताएँ , पुरस्कार वितरण , सम्मान , विचार गोष्ठियां , कवि सम्मलेन, पोस्टर बैनर , जैसे वे अनेक कर्मकांड किये जाते हैं जिनसे हम भारतीय भली-भांति परिचित हैं। काफी पहले से केंद्र सरकार के सभी विभागों तथा उपक्रमों में राजभाषा अधिकारी नियुक्त किये जा चुके हैं जो हिन्दी में कामकाज को बढ़ावा देने तथा गैर हिन्दी भाषियों को हिन्दी में प्रशिक्षित करने का कार्य करते हैं। इस व्यवस्था का काफी लाभ भी हुआ। हालाँकि भाषावार प्रान्तों के गठन की जो गलती हुई थी उसका खामियाजा देश को आज तक भुगतना पड़ रहा है । जाति और धर्म की तरह से ही भाषा भी वोट बैंक का जरिया बना ली गई। तमिलनाडु में हिन्दी का सर्वाधिक विरोध होता रहा है लेकिन वहां के लोग अंग्रेजी पटर-पटर करने वालों का विरोध नहीं करते। महाराष्ट्र में शिवसेना और मनसे भी मराठी अस्मिता के नाम पर जनभावनाएं भड़काने से बाज नहीं आते। देखासीखी दूसरे राज्यों में भी क्षेत्रीय भाषा को लेकर सियासत की दूकानें खोलने का प्रयास होता रहता है। हाल ही में घोषित नई शिक्षा नीति में स्थानीय भाषा में प्राथमिक शिक्षा देने का जो प्रावधान किया गया उसका भी तमिलनाडु और बंगाल में विरोध किया गया जिसका मुख्य कारण अगले साल होने वाले विधानसभा के चुनाव हैं। ये संतोष का विषय है कि कम से कम उत्तर भारतीय राज्यों के न्यायालयों के साथ ही राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में भी हिन्दी को मान्यता मिल गयी है। ये सब देखते हुए हिन्दी के भविष्य को लेकर संतुष्ट हुआ जा सकता है। लेकिन इस बारे में जो दूसरा पक्ष है वह चिंता भी पैदा कर रहा है। और वह है हिन्दी भाषियों के ही एक बड़े वर्ग में हिन्दी के प्रति उपेक्षा की प्रवृत्ति जो काफी हद तक हीनभावना का रूप ले बैठी है। पहले उच्च वर्गीय समाज में ही अंग्रेजी का आकर्षण था क्योंकि उसे अभिजात्यता का मापदंड मान लिया गया। लेकिन बीते कुछ दशकों में मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग ने जिस तरह अंग्रेजी को गले लगाया उसकी वजह से हिन्दी का ज्यादा नुकसान हो रहा है। अँग्रेजी माध्यम में शिक्षा को सफलता की सीढ़ी मान लेने की मानसिकता के कारण शालेय शिक्षा का स्वरूप ही बदल गया और कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली में कान्वेंट स्कूल के बोर्ड टंग गये। यदि इनके जरिये आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग के बच्चे काम चलाऊ अंग्रेजी ही सीख जाएँ तो इसका लाभ होगा लेकिन अंग्रेजी माध्यम के फेर में हो ये रहा हैं कि हिन्दी भाषी प्रान्तों के बच्चे ही हिन्दी में कमजोर होने लगे। इसके लिए शिक्षा प्रणाली के साथ अभिभावक भी बराबरी से दोषी हैं जिन्होंने अंग्रेजी माध्यम की मृगमरीचिका में बच्चों को अपनी मातृभाषा से ही अपरिचित कर दिया। ये कहने में कुछ भी गलत या अतिशयोक्ति नहीं है कि हिन्दी को खत्म करना किसी के बस की बात नहीं है क्योंकि वही ऐसी भाषा है जो पूरे देश में समझी जाती है। दक्षिण भारत के जिन राज्यों में हिन्दी का विरोध सतह पर दिखाई देता है वहां के लोग उत्तर भारत में आकर नौकरी करने में तनिक भी संकोच नहीं करते। इसी तरह उप्र और बिहार जैसे विशुद्ध हिन्दी भाषी प्रदेशों के मजदूर बिना स्थानीय भाषा जाने ही दक्षिण ही नहीं बल्कि पूर्वोत्तर के राज्यों में भी कार्य करते हैं। कोरोनाकाल में काम बंद हो जाने की वजह से जब मजदूरों का पलायन हुआ तब ये तथ्य सामने आया कि हिन्दी विरोधी राज्यों में भी हिन्दी भाषी श्रमिकों और कर्मचारियों का कोई विरोध नहीं है। ये सब देखते हुए हिन्दी भाषी लोगों को हिन्दी के प्रति उनके मन में आई हीन भावना और भविष्यगत असुरक्षा से मुक्त होना पड़ेगा । अंग्रेजी को बतौर भाषा सीखना अच्छा है लेकिन उसे ओढ़ लेने की प्रवृत्ति हमारे सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए खतरा है। क्योंकि भाषा के साथ जो साहित्य और संस्कृति आती है उसका असर पीढिय़ों तक रहता है और इस दौरान उसे अपनाने वाला समाज अपनी मूल पहिचान खो बैठता है। विश्व के अनेक देशों में विदेशी भाषा के आधिपत्य ने उनकी जड़ों को ही नष्ट कर दिया। हिन्दी के नाम पर होने वाले इस वार्षिक आयोजन में उसके प्रचार - प्रसार और गौरवगान के जो भी प्रयास होते हैं वे सब स्वागतयोग्य हैं लेकिन जब तक हिन्दी भाषी लोग अपनी मातृभाषा के प्रति आग्रही नहीं होंगे तब तक हिन्दी को सरकारी संरक्षण में राजभाषा का दर्जा भले मिलता रहे लेकिन वह सही मायने में राष्ट्रभाषा होने के बाद भी उपेक्षित ही रहेगी। हिन्दी भाषी ही यदि उस को ससम्मान अपना लें तो उसका विरोध धीरे - धीरे विलुप्त होता जाएगा। आज के दिन का सबसे सरल सन्देश यही है कि हिन्दी की बातें कम करें लेकिन हिन्दी में बातें ज्यादा करें ।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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