Monday 7 September 2020

गरीबों को घटिया चावल बाँटने वाले मानवता के दुश्मन



मप्र में घटिया चावल वितरण के मामले की जाँच आर्थिक अपराध शाखा को सौंप दी गयी है। मंडला और बालाघाट जैसे आदिवासी बहुल जिलों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में वितरित होने वाले घटिया चावल को लेकर ज्योंही वास्तविकता सामने आई त्योंही हड़कंप मच गया। राजनीतिक चिल्लपुकार और आरोप-प्रत्यारोप भी चल पड़े। सरकार जब देखती है कि भ्रष्टाचार के किसी मामले में वह कटघरे में खड़ी हो सकती है तब वह बिना देर लगाये जाँच बिठा देती है। ऐसा ही इस प्रकरण में हुआ। राशन की दुकानों से बांटा जाने वाला अनाज गरीबों को पेट भरने के लिए दिया जाता है। कोरोना काल में केंद्र सरकार ने जिस तेजी से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये गरीबों को मुफ्त और सस्ती दरों पर गल्ला उपलब्ध करवाया उसकी वजह से देश अराजकता से बच गया वरना जो होता उसकी कल्पना तक से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मप्र में सामने आये घटिया चावल के मामले में राज्य आपूर्ति निगम, चावल मिल संचालक, खाद्य विभाग के बड़े अधिकारी एवं उनकी सरपरस्ती करने वाले कौन- कौन लोग जिम्मेदार हैं ये सब तो जांच से पता चल सकेगा लेकिन इस तरह के मामले महज आर्थिक भ्रष्टाचार तक सीमित नहीं रखे जाने चाहिये। गरीबों के लिए सरकार द्वारा संचालित राशन व्यवस्था लोक कल्याणकारी राज्य के मूलभूत कर्तव्यों में मानी जाती है। राजतंत्र के दौर में भी जिन राजाओं को अच्छा और लोकप्रिय शासक माना गया वे अकाल या अन्य किसी भी प्राकृतिक आपदा के समय प्रजा का उदर पोषण करने के लिए अन्न भण्डार खोल दिया करते थे। आजाद भारत में गरीबी की हालत में बसर करने वाले करोड़ों लोगों को सार्वजानिक वितरण प्रणाली के माध्यम से सस्ता अनाज, शक्कर, कैरोसिन वगैरह देने की व्यवस्था लम्बे समय से चली आ रही है। राशन की दूकान नामक ये प्रणाली हमारे देश के माथे पर एक धब्बा है क्योंकि बीते सात दशक में भी हम गरीबी उन्मूलन के लक्ष्य को केवल चुनावी घोषणापत्र तक ही सीमित रख सके। और तो और करोड़ों लोग गरीबी रेखा से भी नीचे जीवन गुजार रहे हैं। कुछ समय पहले तक विश्व की सबसे तेज विकसित हो रही अर्थव्यवस्था के लिए गरीबी के आंकड़े लज्जित करने वाले हैं लेकिन ये ऐसी हकीकत है जिसे झुठलाना सच्चाई से मुंह मोड़ना  है। उस दृष्टि से होना तो ये चाहिये कि राशन नामक ये व्यवस्था पूरी तरह पारदर्शी रहे। सार्वजानिक वितरण प्रणाली के लिए जिन विभागों की सेवाएँ ली जाती हैं उनको भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त होना चाहिए । लेकिन दुर्भाग्यवश वे ही हमारे देश के भ्रष्टतम महकमों में से हैं। मप्र का संदर्भित चावल घोटाला इस तरह का पहला नहीं है। शायद ही कोई ऐसा प्रदेश या जिला होगा जहाँ अनाज की सरकारी खरीदी, उसके भण्डारण और वितरण में नीचता की हद तक भ्रष्टाचार न होता हो। इसके लिए केवल सरकारी अधिकारी अकेले जिम्मेदार नहीं होते। सत्ता में बैठे नेताओं से लेकर राशन की दूकान संचालित करने वाले तक एक गिरोह जैसा बना हुआ है। ईमानदारी से सर्वेक्षण किया जाए तो ये बात सामने आये बिना नहीं रहेगी कि देश में लाखों ऐसे गरीब मिल जायेंगे जो राशन कार्ड बनवाने के लिए भटक रहे हैं जबकि उनसे ज्यादा बोगस राशन कार्ड बने हुए हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के नाम पर जितना गोलमाल प्रारंभ से चला आ रहा है वह बोफोर्स, टेलीकाम, कोयला जैसे तमाम घोटालों पर भी भारी पड़ेगा। लेकिन जैसा शुरू में कहा गया कि इस व्यवस्था में होने वाला भ्रष्टाचार केवल आर्थिक न होकर मानवता के विरुद्ध घिनौना अपराध है। गरीबों को घटिया किस्म का चावल देने के मामले में जो भी कसूरवार साबित हो उसे इतनी कड़ी सजा दी जानी चाहिए जिससे भविष्य में गरीबों की आड़ में अपना घर भरने के पहले कोई हजार बार सोचे। मप्र सरकार को चाहिए कि वह इस मामले को सीबीआई के हवाले करे जिससे जांच एजेंसी को राज्यस्तरीय दबाव से मुक्त रखा जा सके। जिन लोगों ने ये पाप किया है उनके भीतर चूँकि इंसानियत मर चुकी है इसलिए उनको मिलने वाला दंड भी सामान्य से हटकर होना चहिये।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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