भारत परम्परागत कृषि प्रधान देश है और अर्थव्यवस्था में भी कृषि का बहुत बड़ा योगदान है। सबसे ज्यादा रोजगार इसी क्षेत्र में मिलता है। आबादी का बड़ा हिस्सा गाँवों में ही रहता है। ग्रामीण पृष्ठभूमि के सांसदों और विधायकों की संख्या भी अच्छी खासी होगी। राजनीतिक दलों के संगठन में किसान प्रकोष्ठ भी होता है। अनेक स्वयंसेवी संगठन और कृषि अर्थशास्त्री किसानों की भलाई के लिए कार्य करते रहते हैं । चुनावी घोषणापत्रों का बड़ा भाग गाँव और खेती पर केन्द्रित होता है। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की आय दोगुनी करने के लिए बाकायदा एक कार्यदल भी बना रखा है। उनको फसल के वाजिब दाम मिलें इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदी की सरकारी व्यवस्था भी बनी हुई है। ये मूल्य लगातार बढ़ाये जाते हैं। केंद्र और राज्य दोनों के बजट में बहुत बड़ी राशि ग्रामीण विकास के लिए आवंटित की जाती है। इसका लाभ भी हुआ और ग्रामीण भारत की तस्वीर पूर्वापेक्षा काफी बदली है। सड़क और बिजली की समुचित व्यवस्था होने से गाँवों के जनजीवन में आमूल परिवर्तन हुआ , जिसे एक सीमा तक सुधार भी कहा जा सकता है। लेकिन किसान की माली हालत को लेकर सदैव चिंताए बनी रहती हैं। अच्छी फसल आने पर उसे दाम नहीं मिलते , वहीं खराब फसल उसे कर्ज और अवसाद में डुबो देती है। यही वजह है कि किसानों की बदहाली राष्ट्रीय विमर्श का एक स्थायी विषय बन गई है। खेती भारत की आत्मा कही जाती है। कोरोना काल में जब अर्थव्यवस्था के सारे अंग शिथिल हो गये तब भी किसानों के पौरुष ने देश का आत्मविश्वास बढ़ाने में ऐतिहासिक योगदान दिया। उसी के बल पर प्रधानमन्त्री गरीबों को मुफ्त और सस्ता अनाज देने की अपनी घोषणा को सफलतापूर्वक लागू कर सके। उसी दौरान किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए केंद्र सरकार ने कुछ सुधारवादी निर्णय लेते हुए अध्यादेश जारी किये। जिन्हें कानूनी शक्ल देने के लिए संसद में पेश किया गया। कांग्रेस ने तो इनका विरोध किया ही लेकिन मोदी सरकार में हिस्सेदार अकाली दल भी इन विधेयकों के विरोध में खडा हो गया । गत रात्रि हरसिमरत कौर बादल ने केंद्र सरकार के मंत्रीपद से भी इस्तीफा दे दिया। संसद में उनके पति और अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने भी विधेयकों को किसान विरोधी बताया। हालांकि अकाली दल अभी भी राजग में बना हुआ है जिस पर पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने तंज भी कसा। दरअसल अकाली दल के विरोध का कारण पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा किये जा रहे उग्र विरोध प्रदर्शन हैं। केंद्र सरकार इन कृषि सुधारों को क्रांतिकारी बताते हुए दावा कर रही है कि इनसे किसान का शोषण रुक सकेगा और वह अपनी फसल के उचित दाम प्राप्त करने के लिए उन्हें खुले बाजार में कहीं भी बेचने के लिए स्वतंत्र होगा। सबसे बड़ी बात कृषि उपज मंडी नामक बंदिश हटा दी गयी। किसानों की ये बड़ी पुरानी मांग रही है कि सरकारी मंडी उनके शोषण का माध्यम है। इसकी वजह से वे अपनी उपज उन स्थानों में नहीं बेच पाते जहां अपेक्षाकृत ज्यादा दाम उन्हें मिल सकते हैं। जिला और प्रदेश बंदी जैसी व्यवस्थएं खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने के तमाम आशावाद पर पानी फेरती रही हैं। सरकारी मंडियां चाहे वे किसी भी राज्य की हों , भ्रष्टाचार का खुला अड्डा बनकर रह गईं। इनकी स्थापना किसानों को बिचौलियों और आढ़तियों से बचाने के लिए की गई थी । लेकिन हुआ उलटा और हालात आसमान से टपके खजूर पर अटके वाले बन गये। नए सुधार में सबसे बड़ा बिंदु यही है और पंजाब - हरियाणा के किसान इसी के विरोध में आंदोलित हैं। इस विरोध का एक कारण ये बताया जा रहा है कि इन दोनों राज्यों में बीते कुछ दशकों से बासमती चावल का उत्पादन बढऩे से चावल मिलें भी खूब लग गईं। लेकिन देखा सीखी मप्र सहित अन्य कुछ पड़ोसी राज्यों के किसानों ने भी बासमती उगाना प्रारम्भ कर दिया। नई व्यवस्था में इन राज्यों से आने वाले सस्ते उत्पादन पंजाब और हरियाणा के किसानों के लिए नुकसान की वजह बन सकते हैं इसी तरह अब गेंहूं में भी उक्त दोनों राज्यों का इकतरफा आधिपत्य नहीं रहा। इनके अलावा ये भी कहा जा रहा है कि इन सुधारों के माध्यम से किसान और खेती बड़े औद्योगिक घरानों के हाथ में चली जायेगी। जो शुरुवात में तो किसानों को लुभाने के लिए उन्हें ज्यादा लाभ देंगे लेकिन धीरे - धीरे वे अपनी चालें दिखाते हुए उन्हें अपने शिकंजे में जकड़कर लाचार बना देंगे। सरकार के दावों और विरोध के तर्कों में सही - गलत का आकलन करना जल्दबाजी होगी। हालाँकि कुछ कृषि विशेषज्ञों की ये बात विचारणीय कि अनेक विकसित देशों में इस तरह के सुधार किसानों के लिए जबरदस्त नुकसान का सौदा साबित हुए हैं। ये देश किसानों को भरपूर सब्सिडी दिया करते हैं जबकि भारत पर सब्सिडी खत्म करने का दबाव बनाने में पीछे नहीं रहते। सही बात तो ये है कि भारत की अर्थव्यवस्था अधकचरेपन का शिकार होकर रह गई है। एक तरफ तो जहाँ मुक्त अर्थव्यवस्था की हिमायत करते हुए विदेशी पूंजी के लिए लाल कालीन बिछाने की प्रतियोगिता चलती रहती है वहीं दूसरी तरफ पश्चिमी देशों की नकल करते हुए जो सुधार लागू किये जाते हैं वे भारतीय परिवेश को पूरी तरह रास नहीं आने से नई समस्याएँ उत्पन्न कर देते हैं। केंद्र सरकार द्वारा किये गये इन सुधारों को लेकर भी इसी तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। प्रधानमन्त्री का कहना है कि कुछ लोग किसानों को भड़काकर अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना चाह रहे हैं। उनकी बात सही भी हो सकती है किन्तु उन्हें किसानों को आश्वस्त करना पड़ेगा कि नए कानून उनके हिर्तों को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। प्रधानमन्त्री यूँ तो जनता से सीधे संवाद करते रहते हैं लेकिन उनके विरोध में ये अवधारणा भी तेजी से फैलाई जा रही है कि वे बड़े औद्योगिक घरानों के हितों के पोषक बनकर आम जनता को उनका गुलाम बनाने के लिए काम कर रहे हैं। अभी तो केवल पंजाब और हरियाणा में किसानों का असंतोष सड़कों पर आया है। कानून पारित होने के बाद देश भर से क्या प्रतिक्रियाएं आती हैं , ये देखने वाली बात होगी।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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