Monday 28 September 2020

सिद्धांत और विचारधारा भी उपभोक्ता वस्तु बनकर रह गये



राजनीति में सिद्धांत और विचारधारा उस उपभोक्ता वस्तु जैसे होकर रह गये हैं जिसका विज्ञापन करने वाले अभिनेता, खिलाड़ी या पेशेवर मॉडल स्वयं उसका उपयोग नहीं करते। दो दिन पहले महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस और शिवसेना के मुख्य प्रवक्ता संजय राउत के बीच किसी पांच सितारा होटल में हुई मुलाकात के बाद ये कयास लगाये जाने लगे कि शिवसेना और भाजपा फिर से नजदीक आने को तैयार हैं। इसके पीछे अनेक कारण बताये जा रहे हैं। महाराष्ट्र की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले मानते हैं कि शिवसेना ने भाजपा से खुन्नस के चलते भले ही शरद पवार की राकांपा और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली और उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री की कुर्सी भी हासिल हो गई किन्तु उन्हें समर्थन दे रही दोनों  सहयोगी पार्टियां सरकार का जमकर दुरूपयोग कर रही हैं। उद्धव नाममात्र के मुख्यमंत्री रह गये हैं जबकि शासन और प्रशासन का रिमोट कंट्रोल शरद पवार के हाथ में है। अपनी हिन्दुत्ववादी छवि को हो रहे नुकसान को लेकर भी शिवसेना बेहद परेशान है। राममंदिर के शिलान्यास का श्रेय अकेले भाजपा उठा ले गई। इसी के साथ वीर सावरकर के बारे में राहुल गांधी सहित कुछ अन्य कांग्रेस नेताओं के बयानों को लेकर भी शिवसेना असमंजस में फंसकर रह गई। उसका अपना जो जनाधार है वह राकांपा और कांग्रेस से किसी भी तरह से सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा। और फिर महाराष्ट्र में कोरोना का फैलाव जिस व्यापक पैमाने पर हुआ और बड़ी संख्या में मौतें हुईं उसकी बदनामी भी उद्धव के खाते में आई। भाजपा के साथ शिवसेना की तल्खी इतनी ज्यादा बढ़ चुकी थी कि केंद्र से मदद मांगने में भी मुख्यमंत्री के पाँव ठिठकते रहे। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद श्री ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे के दामन पर आये छींटे भी उसके लिए चिंता का विषय बने हुए हैं। सुशांत की पूर्व सचिव दिशा सालियान द्वारा आत्महत्या किये जाने की गुत्थी अभी तक सुलझी नहीं है। ऐसा कहा जाता रहा है कि एक अभिनेता द्वारा दी गई पार्टी में दिशा के साथ आपत्तिजनक कृत्य हुआ जिसके बाद ग्लानिवश उसने आत्महत्या की। उस पार्टी में आदित्य ठाकरे की उपस्थिति की चर्चा जमकर होती आई है। चूँकि वह मामला मुम्बई पुलिस के पास था इसलिए उसमें लीपापोती किये जाने के आरोप उद्धव ठाकरे सरकार पर लगते रहे। सुशांत की मौत को भी दिशा की आत्महत्या से जोड़ा गया। उसके बाद जबसे नशीली चीजों के खुल्लमखुल्ला उपयोग का खुलासा हुआ तबसे लोगों का ध्यान दिशा और सुशांत की मौत से हटकर उस तरफ चला गया और फिर बीच में कंगना रनौत के आरोपों और शिवसेना नियंत्रित बीएमसी द्वारा उसके दफ्तर में की गई तोड़फ़ोड़ ने नया मोड़ ले लिया। कंगना ने मुम्बई से मनाली लौटकर एक बार बिना नाम लिए ये आरोप लगाया कि  उन्होंने एक बड़े नेता के पुत्र को इस घटनाक्रम से जुड़ा  बताया इसलिए उनके विरुद्ध बदले की कार्रवाई की गई। चूँकि केंद्र सरकार खुलकर कंगना के पीछे खड़ी हो गई इसलिए शिवसेना को ये सोचने को मजबूर होना पड़ा कि वह इस मुसीबत से कैसे छुटकारा पाए ? तोड़फ़ोड़ के मामले में जिस तरह शरद पवार ने बीएमसी को लताड़ा और मुम्बई उच्च न्यायालय ने भी तीखी टिप्पणियाँ कीं उनसे शिवसेना के कान खड़े हो गए। उसे इस बात का भय सता रहा है कि दिशा और सुशांत की मौत और उसके बाद नशे के कारोबार में फि़ल्मी बिरादरी के अनेक नाम शामिल होने के बीच यदि किसी ने धोखे से भी आदित्य ठाकरे का नाम ले लिया तो उसके लिए मुंह छिपाने की जगह नहीं बचेगी। यही सब सोचकर शायद उसने दोबारा भाजपा के साथ अपने पुराने रिश्ते को पुनर्जीवित करने के बारे में सोचा हो। यद्यपि श्री फड़नवीस और श्री राउत ने संदर्भित मुलकात के बारे में जो बयान दिए उनसे तो लगता है मानों वह एक सौजन्य भेंट थी। पूर्व मुख्यमंत्री ने स्पष्ट किया कि श्री राउत बिहार चुनाव के बारे में सामना अख़बार के लिए उनका साक्षात्कार लेना चाहते थे जिसके लिए उनकी शर्त थी कि उसे बिना कांट - छांट के प्रकाशित किया जाना चाहिए। वहीं श्री राउत ने इसे एक साधारण भेंट बताए हुए कहा कि हम वैचारिक विरोधी तो हैं किन्तु  शत्रु नहीं। लेकिन अचानक दोनों पांच सितारा होटल में मिले , साथ भोजन किया और दो घंटे बिताये तो इसे महज सौजन्य भेंट नहीं माना जा सकता। इसलिए ये सोचना गलत नहीं है कि इस मुलाकत के पीछे हालिया राजनीतिक घटनाक्रम ही है। श्री राउत की भूमिका इसमें उद्धव ठाकरे के दूत की रही होगी। यदि इस मुलाकात के बाद भाजपा की तरफ से सकारात्मक संकेत दिये गये तो बिहार चुनाव के पहले ही महाराष्ट्र में भाजपा - शिवसेना दोबारा मिलकर सरकार बना सकते हैं। लेकिन केवल इन दोनों को इसके लिए कठघरे में खड़ा किया जाना उचित नहीं होगा क्योंकि मिलने और बिछड़ऩे का ये सिलसिला भारतीय राजनीति में आवश्यक बुराई के रूप में शामिल हो चुका है। बिहार में आरएलएसपी नेता उपेन्द्र कुशवाहा लालू परिवार के महागठबंधन को छोड़कर वापिस एनडीए में आ गए। जीतनराम मांझी तो पहले ही आ चुके थे। सुना है कांग्रेस भी राजग के अड़ियल रवैये से नाराज होकर अकेले चुनाव लड़ने की सोच रही है। गठबंधन में शामिल होने और निकलने के पीछे कोई सिद्धांत हो तो वह समझ में आता है। लेकिन जिन कारणों से पार्टियां या नेता किसी के साथ जुड़ते या अलग होते हैं उनका आधार महज स्वार्थ होते हैं। शिवसेना और भाजपा का गठबंधन हिंदुत्व के नाम पर बना , लेकिन टूटा मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए। इसी तरह उपेंद्र कुशवाहा ने मोदी सरकार का मंत्री पद छोड़कर अपनी पार्टी को एनडीए से बाहर निकालकर राजग का साथ पकड़ा। लोकसभा चुनाव में भट्टा बैठ जाने के बाद वापिस वहीं आ गये जहाँ से निकले थे। रामविलास पासवान ने अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार से इस कारण इस्तीफा दे दिया था क्योंकि गुजरात दंगों के बाद भाजपा ने नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री पद से नहीं हटाया था। लेकिन 2014 में वे उन्हीं मोदी के झंडे तले आ गये। ऐसे अनगिनत उदाहरण भरे पड़े हैं। लेकिन क्या इन नेताओं और पार्टियों द्वारा जनता को ये नहीं बताया जाना चाहिए कि उनके इन कदमों के पीछे कौन सा सिद्धांत या विचार होता है ? उससे भी बड़ी बात ये है कि शीर्ष पर बैठे नेता अपने मान - सम्मान की चिंता तो करते हैं लेकिन वे कार्यकर्ताओं के बारे में नहीं सोचते जिन्हें ऐसे अवसरवादी फैसलों के लिए आम लोगों के कटाक्ष झेलने पड़ते हैं। महाराष्ट्र में यदि शिवसेना और भाजपा दोबारा साथ आते हैं तो उनकी विचारधारा के लिए ये फायदेमंद रहेगा लेकिन सवाल ये उठेगा कि फिर अलग क्यों हुए थे? अगर भाजपा श्री ठाकरे को ही मुख्यमंत्री स्वीकार करती है तो ये निर्णय पहले क्यों नहीं किया गया और शिवसेना इस पद का दावा छोड़कर छोटे भाई की भूमिका से संतुष्ट हो जाती है तब उसकी पिछली जिद पर सवाल उठेंगे। और क्या समझौता होने के बाद भाजपा दिशा की मौत से शुरू हुए घटनाक्रम को रद्दी की टोकरी में फेंककर शिवसेना और ठाकरे परिवार को चरित्र प्रमाणपत्र जारी कर देगी ? सवाल और भी हैं लेकिन जब समूची सियासत केवल और केवल सत्ता के गुणा-भाग में उलझकर रह गई हो तब शर्मो - हया और जवाबदेही की अहमियत ही कहां बच रहती हैं ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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