Tuesday 11 April 2023

अपराध मुक्त चुनाव : जनता को ही कुछ करना होगा




चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा पेश करते हुए अपराधी तत्वों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए कानून बनाने की गुजारिश की है | जिन प्रत्याशियों के विरूद्ध अपराधिक प्रकरणों में आरोप पत्र दाखिल हो जाते हैं उनको चुनाव लड़ने से रोकने हेतु प्रस्तुत याचिका पर आयोग ने साफ़ कहा कि वह चुनावों को अपराध मुक्त करवाने हेतु संकल्पबद्ध है | लेकिन ऐसा करने के लिए उसके पास कोई वैधानिक अधिकार नहीं है | उस हलफनामे पर न्यायालय द्वारा केंद्र सरकार को नोटिस देकर जवाब माँगा गया है | इस बारे में सबसे रोचक बात ये है कि चुनाव आयोग ने इच्छा तो व्यक्त कर दी किन्तु शक्ति न होने की लाचारी भी जता दी | वैसे भी उसे बिना दांत वाला शेर कहा ही जाता है। जिसकी बानगी चुनावों के दौरान पकड़े जाने वाले काले धन को लेकर होने वाली कार्रवाई से मिलती है। उन छापों में करोड़ों रुपए जप्त होने के बाद कितने लोगों को दंडित किया गया इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती। अन्य अनियमितताओं को रोक पाने में भी आयोग फिसड्डी साबित होता रहा है। स्व.टी. एन शेषन के कार्यकाल में  चुनाव आयोग का जो दबदबा कायम हुआ वह धीरे - धीरे कम होता चला गया। चुनाव खर्च कहने को तो सीमित किया गया है लेकिन निर्धारित सीमा में प्रमुख राजनीतिक दलों का कोई उम्मीदवार अपवादस्वरूप ही चुनाव लड़ता होगा। लेकिन जहां तक बात अपराध मुक्त चुनाव की है तो वह केवल चुनाव आयोग के बस में नहीं है। संदर्भित याचिका में की गई मांग यदि मान ली जावे तो फिर राजनीतिक दलों के पास उम्मीदवारों का टोटा पड़ जायेगा और फिर केवल आरोप पत्र के आधार पर ही यदि चुनाव लड़ने से वंचित किया जावे तो फिर उस प्रावधान का दुरुपयोग भी होना तय है । न्यायशास्त्र भी मानता है कि जब तक किसी को न्यायालय सजा न दे तब तक उसको दोषी मान लेना उसके प्रति अन्याय होता है। ऐसी स्थिति में ले देकर नैतिकता का ही आसरा बच रहता है जिसके अंतर्गत किसी अपराधिक प्रकरण में अपने विरुद्ध आरोप पत्र पेश हो जाने के बाद निर्दोष साबित होने तक  व्यक्ति खुद होकर चुनाव लड़ने से पीछे हट जाए। अक्सर ये उदाहरण दिया जाता है कि स्व.लालबहादुर शास्त्री ने रेल दुर्घटना होने पर रेल मंत्री के पद से त्यागपत्र देकर अपनी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार की थी किंतु उसके उलट दिल्ली सरकार के दो मंत्री अपराधिक प्रकरण में जेल में हैं किंतु पद छोड़ने की शराफत उन्होंने नहीं दिखाई। ऐसी ही स्थिति महाराष्ट्र में उद्धव सरकार के दो मंत्रियों के साथ देखने मिली। जिनमें से एक तो गृहमंत्री थे। ऐसे में चुनाव आयोग तो क्या संसद भी इस बारे में कानून बनाएगी ये सोचना ही व्यर्थ है क्योंकि शायद ही कोई राजनीतिक दल इस हेतु तैयार होगा। याचिका कर्ता की अर्जी पर चुनाव आयोग द्वारा अपराधमुक्त चुनाव हेतु सहमत होने के बाद भी बिना संकोच किए अपनी मजबूरी बताते हुए गेंद सर्वोच्च न्यायालय के जरिए सरकार के पाले में खिसका दी गई । चार सप्ताह बाद सरकार और समय मांगेगी , जो उसे दिया जाना अवश्यंभावी है किंतु वह भी अंत में अपने हाथ खड़े कर देगी , ये मान लेना गलत नहीं होगा। और जहां तक सर्वोच्च न्यायालय की बात है तो वह ज्यादा से ज्यादा सरकार को कानूनी प्रावधान बनाने हेतु सुझाव अथवा निर्देश दे सकता है। लेकिन संसद का जो रवैया आजकल देखने में आ रहा है इसके चलते शायद ही वहां इस  बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोई बात करने राजी होगा क्योंकि बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की संसद और विधानसभाओं में है जिनके विरुद्ध अपराधिक प्रकरण संबंधी आरोप पत्र अदालतों में पेश किए जा चुके हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि चुनावों को अपराधियों से मुक्त करवाने की मुहिम क्या कानूनी और व्यवहारिक दिक्कतों के चलते फुस्स हो जायेगी , और क्या अतीक अहमद जैसे लोग लोकसभा और विधानसभा में आते रहेंगे ? इस तरह के और भी सवाल हैं जिनका उत्तर खोजे बिना लोकतंत्र और चुनाव प्रक्रिया की पवित्रता को बनाए रखना असंभव है। और तब समाज की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह गंभीर मामलों में आरोपित खराब छवि के व्यक्ति को हरवा दी , फिर चाहे वह किसी भी पार्टी अथवा पद से जुड़ा क्यों न हो । जिन विकसित देशों में लोकतंत्र अपने सही स्वरूप में संचालित है वहां सरकार और कानून से ज्यादा समाज ऐसे मामलों में सख्त है। जिसकी वजह से अवांछित तत्व चुनाव लड़ने का साहस ही नहीं कर पाते। भारत में चूंकि चुनाव संबंधी समूची सोच लोकतंत्र के भविष्य के बजाय भाषा , क्षेत्र , जाति और धर्म के बाद फिर राजनीतिक जमात पर आधारित है इसलिए यहां नैतिकता की बात सोचने की  फुरसत किसी को नहीं है। जब संविधान की शपथ लेने वाले जेल में रहकर भी मंत्री पद नहीं छोड़ते तब और कुछ कहने को रह ही कहां जाता है ?


- रवीन्द्र वाजपेयी 

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