Wednesday 5 April 2023

खजाना इतना ही भरा हुआ है तो पेट्रोल – डीजल सस्ता करो



राजस्थान सरकार ने रसोई गैस का सिलेंडर 500 रु. में देने की जो व्यवस्था की है उसके पीछे जनकल्याण कम और चुनावी रणनीति ज्यादा है | मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने रक्षाबंधन पर महिलाओं को स्मार्ट फोन बाँटने का ऐलान  भी किया है | वर्ष के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए ऐसी ही घोषणाएं अन्य चुनावी राज्यों में भी हो रही हैं | म.प्र में इन दिनों लाड़ली बहना योजना की धूम है | छत्तीसगढ़ में भी भूपेश बघेल ने खजाना खोल दिया है | जो मांगोगे वही मिलेगा का दौर चल रहा  है | केंद्र सरकार अभी से आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुट गयी है | उसी के चलते नए साल के बजट में आयकर छूट की सीमा बढ़ाई गयी है | क्षेत्रीय दलों की सरकार वाले राज्यों की सियासत  तो विशुद्ध मुफ्त उपहारों पर चलती है | भारतीय राजनीति में ऐसे दांव पेंच नए नहीं रहे | इनकी  शुरुआत कब और किसने की ये तो शोध का विषय है लेकिन ये तरीका अब सर्वदलीय बन गया है  | बाजारवादी सोच केवल आर्थिक मामलों तक सीमित नहीं रही अपितु सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में इसकी उपस्थिति और प्रभाव देखा जा सकता है | नरेंद मोदी के विरोध में बोलने वाले भी  स्वीकार करते हैं कि भले ही वे हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के सहारे सत्ता में आये लेकिन मुफ्त अनाज और प्रधानमन्त्री आवास योजना के अंतर्गत गरीबों को मकान उनकी सफलता का सबसे बड़ा कारण है | 2016 में नोटबंदी होने के बाद 2017 के  उ.प्र विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली धमाकेदार सफलता में उक्त योजनाओं का बड़ा योगदान था | इसी तरह जीएसटी से परेशान गुजरात के व्यापारी समुदाय ने भी फिर भाजपा की सरकार बनवा दी | हालाँकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के मुफ्त उपहार भाजपा और कांग्रेस  दोनों पर भारी पड़ गए जिसका असर पंजाब में भी देखने मिला | यद्यपि अब तक दिल्ली मॉडल को तीसरे किसी राज्य की जनता ने स्वीकार नहीं किया किन्तु मुफ्त बिजली , पानी , शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे वायदों के साथ अरविन्द केजरीवाल प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल होने की कोशिश में जुटे हैं | केंद्र सरकार द्वारा प्रारंभ की गयी आयुष्मान भारत योजना को राज्यों में और दरियादिली से लागू किया जा रहा है | बावजूद इसके कि वे सभी अपने दैनंदिन खर्चों तक के लिए आये दिन रिजर्व बैंक से कर्ज उठाते हैं | लोक कल्याणकारी राज्य की व्यवस्था में जनता को राहत देना बुरा नहीं है | राजा – महाराजा भी संकट के समय प्रजा के लिए खजाने खोला करते थे | लेकिन  तब और अब के आर्थिक प्रबंधन में जमीन आसमान का  फर्क है | मसलन राजशाही में समूचा विकास राजमहल और राजधानी के इर्द गिर्द होता था | लेकिन लोकशाही में विकास की रोशनी राष्ट्रपति भवन तक ही सीमित नहीं रहती | इसीलिये सड़क , बिजली , पानी , शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी चीजों पर सरकार को ध्यान देना पड़ता है | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि आजादी के 75 साल बाद भी हम अपनी जनता तक मूलभूत  सुविधाएं उस स्तर तक नहीं पहुंचा सके जितनी कि अपेक्षित और आवश्यक थीं | हालाँकि हालात पूर्वापेक्षा काफी सुधरे हैं लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना है | इस बारे में ये कहना सही होगा कि संचार क्रांति के कारण अब जनता की आवाज सुनाई देने लगी है | देश के किसी  भी कोने की जानकारी सत्ता के गलियारों तक पहुँचने की वजह से लोगों की अपेक्षाएं भी लगातार बढ़ रही हैं | लेकिन लोगों के जीवन स्तर को सुधारकर उन्हें खुशहाली की ओर ले जाने के बजाय तात्कालिक फायदों के जरिये  आकर्षित करने का चलन राजनेताओं ने अपना लिया है जिसके चलते समूची राजनीति चुनाव केन्द्रित होकर रह गयी है | इसके लिए किसी एक नेता या पार्टी को दोषी ठहराना गलत होगा क्योंकि घुमा फिराकर सभी का आचरण एक जैसा है | मुफ्त उपहारों के साथ ही जातिगत आरक्षण भी वह झुनझुना है जिसके जरिये मतदाताओं को गोलबंद किया जाता है | हालाँकि धीरे – धीरे ये बात साफ़ होती  जा रही है कि आरक्षण जिस सरकारी नौकरी के लिए बना  उसमें भी लगातार कमी आ रही है | चूंकि  उसकी  अधिकतम सीमा  निश्चित है ,  ऐसे में कोटे के भीतर कोटे का खेल चल रहा है | पिछड़ों में अति पिछड़े  और दलित में भी अति दलित खोजे जा रहे हैं | देखा सीखी ऊँची कही जाने वाली जातियों ने भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग के साथ दबाव बनाना शुरू कर दिया है | जो राजनीतिक दल खुलकर आरक्षण की राजनीति नहीं करते वे सोशल इन्जीनियरिंग जैसे फैशनेबल शब्दों का इस्तेमाल करते हुए अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं | लेकिन इतना सब होने के बाद भी मूल समस्याएँ जस की तस हैं | राजनीति करने वाला हर नेता अपने विरोधी पर आरोप लगाया करता है कि वह बेरोजगारी और महंगाई को रोकने में नाकाम है | लेकिन सरकारी नौकरियों में कटौती करते हुए निजी क्षेत्रों की सेवाएं लेने और स्थायी की जगह दैनिक वेतन भोगी या संविदा कर्मियों की नियुक्ति से काम चलाने की नीति पर सभी चल रहे हैं | दरअसल सारे राजनीतिक दल समझ चुके हैं कि जनता की याददश्त बेहद कमजोर होती है | इसीलिये पुराने वायदों को रद्दी की टोकरी में फेंककर नयी सूची पेश कर दी जाती है |   जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उनकी सत्ता में बैठे लोगों को नए वायदे जारी करने के पूर्व पिछले चुनाव में पेश किये गए घोषणापत्र का लेखा- जोखा पेश करते हुए अधूरे रह गये  वायदों को के लिए  क्षमा मांगनी चाहिए | लेकिन यह  ईमानदारी होती तो आज राजनेताओं की छवि भी इतनी खराब नहीं होती | बहरहाल जिन भी राज्यों की सरकारें चुनाव के कारण जनता पर मुफ्त खैरातों की बरसात कर रही हैं उनसे पूछा जाना चाहिए कि यदि उनके खजाने भरे हुए हैं तो पेट्रोल और डीजल पर लगाया जाने वाला भारी - भरकम  टेक्स कम क्यों नहीं करते ? और जीएसटी काउन्सिल में इन चीजों को उसके दायरे से बाहर लाने का साहस क्यों नहीं दिखाते ? जबकि महंगाई को बढाने में सबसे ज्यादा हाथ इन्हीं  दोनों का होता है | चूंकि जनता भी चुनाव के समय बजाय स्थायी मुद्दों के दूसरी बातों में भटक जाती है इसलिए नेतागण वायदों की झड़ी लगा देते हैं | गैस सिलेंडर सस्ता करने अथवा महिलाओं को नगद देने की बजाय  पेट्रोल – डीजल को उनके असली दामों पर बेचने की व्यवस्था क्यों नहीं की जाती इसका जवाब कोई नहीं देना  चाहता  |

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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