Thursday 13 April 2023

नीतीश अपनी कमजोरी पर पर्दा डालने विपक्षी एकता की मुहिम चला रहे



बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार देश के सर्वाधिक अनुभवी राजनेताओं में हैं | 1974 में बिहार के जिस  छात्र आन्दोलन ने देश में बड़े राजनीतिक परिवर्तन का सूत्रपात किया उससे वे भी जुड़े रहे | मूल रूप से समाजवादी विचारधारा के अनुयायी नीतीश  समन्वयवादी माने जाते हैं | इसीलिये उन्होंने अनेक मुद्दों पर वैचारिक मतभेदों के बावजूद भाजपा के साथ गठबंधन किया और वाजपेयी शासन में मंत्री भी रहे | उसी दौरान उनको बिहार का मुख्यमंत्री भी बनाया गया लेकिन बहुमत के अभाव में वे त्यागपत्र देने मजबूर हुए | कालान्तर में उनकी राजनीतिक यात्रा गाड़ी बदल – बदलकर आगे  बढ़ती रही | कभी जनता दल  , तो कभी समता पार्टी के रूप में वे सियासत के मैदान में बने रहे | भाजपा के साथ रहते हुए भी नरेंद्र मोदी से परहेज के कारण वापस लालू के साथ चले जाना और फिर लौटकर उन्हीं मोदी से मिलकर सत्ता में बने रहने के बाद दूसरी बार लालू के बेटों के साथ गठबंधन करने के कारण उनके साथ जुड़ा सुशासन बाबू नामक विशेषण पल्टूराम में बदल गया | इसमें  दो राय नहीं है कि लालू के राज में बिहार जिस बदहाली और बदनामी के दौर से गुजरा उससे नीतीश ने न  सिर्फ राहत दिलवाई अपितु राज्य को विकास की राह पर आगे भी बढ़ाया | लेकिन वे अपनी दम पर वह करिश्मा नहीं कर सके | उनके सुशासन में भाजपा साथ रही वर्ना वे लालू के एम - वाय ( मुस्लिम – यादव ) समीकरण को छिन्न – भिन्न नहीं कर पाते | लेकिन इतना होने के बाद भी  उनको  मन ही मन ये डर लगता रहा कि देर - सवेर भाजपा  बिहार में सबसे बड़ी ताकत बन जायेगी | इसीलिए एनडीए में रहते हुए भी नरेंद्र  मोदी के साथ मंच  साझा करने से बचते हुए उनको बिहार में चुनाव प्रचार से रोकने का दबाव भी उन्होंने डाला | हालाँकि श्री मोदी से परेहज तो स्व. रामविलास पासवान ने भी खूब किया लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन करने के बाद वे जीवन पर्यंत उसके साथ रहे जबकि नीतीश बाबू बीते नौ साल में कई मर्तबे पाला बदल चुके हैं | 2013 तक उनको भाजपा से दिक्कत न थी लेकिन जैसे ही श्री मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाये गए , उनकी उम्मीदें टूट गईं | दरअसल अटल जी के सक्रिय  राजनीति से दूर होने और  2009 में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में एनडीए को लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद से ही  उनको लगने लगा था कि भाजपा उन्हें ही  2014 में पेश करेगी | मुख्यमंत्री के तौर पर उनका प्रदर्शन सराहनीय था और बहुमत न आने पर अन्य दलों से उनके नाम पर सहयोग मिलने की संभावना भी थी | हालाँकि बतौर मुख्यमंत्री श्री मोदी को ज्यादा प्रशंसा मिल रही थी लेकिन 2002 के गुजरात दंगों का जिन्न उनकी राह में रूकावट  था | नीतीश सोच रहे थे कि जिस तरह आडवाणी जी की  उग्र हिंदुत्व की छवि की वजह से अटल जी को भाजपा आगे लाई , वैसा ही कुछ उनके पक्ष में भी हो जायेगा | लेकिन जब भाजपा ने श्री मोदी पर दांव लगाया तो गुजरात दंगों के बाद वाजपेयी सरकार छोडकर चले गए  स्व. पासवान ने तो वापस एनडीए का दामन थाम लिया लेकिन नीतीश अलग होकर बैठ गए | केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद उन्होंने फिर एक बार उन्हीं लालू से गठबंधन किया जिनको जेल भिजवाने में उनका भी हाथ था | और उन दोनों के गठजोड़ ने  2015 के विधानसभा चुनाव में मोदी लहर को रोकने का कारनामा कर दिखाया जो वाकई बड़ी बात थी | और उसी के बाद एक बार फिर ये कहा जाने लगा कि नीतीश बाबू भविष्य में प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष के उम्मीदवार होंगे | लेकिन  जल्द ही उनकी अक्ल ठिकाने आ गई और महज दो साल बाद ही  वे लालू कुनबे से पिंड छुडाकर मोदी शरणं गच्छामि हो गए | 2019 के लोकसभा चुनाव में भी वे भाजपा के साथ रहे | लेकिन महज  एक मंत्री पद दिए जाने से नाराज होकर केंद्र सरकार से अपनी  पार्टी जद ( यू ) को दूर रखा | यद्यपि बाद में उनकी मर्जी के बिना उनके राज्यसभा सदस्य आरसीपी सिंह मोदी सरकार में मंत्री बन गए जिनसे नीतीश की नाराजगी इस हद तक बढ़ी कि उन्हें राज्यसभा चुनाव में दोबारा टिकिट न देकर मंत्री पद और पार्टी दोनों से हटने मजबूर होना पड़ा | हालाँकि 2020 में नीतीश और भाजपा ने विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ा और कड़े मुकाबले में जैसे – तैसे बहुमत मिलने के बाद वे मुख्यमंत्री भी बने किन्तु उनकी पार्टी भाजपा से बहुत पीछे रह जाने की वजह से वे भविष्य के प्रति चिंतित हो उठे | उनकी नाराजगी की वजह स्व. पासवान के बेटे चिराग द्वारा एनडीए में रहते हुए भी जद ( यू ) प्रत्याशियों के विरुद्ध उम्मीदवार लड़ाए जाने से थी क्योंकि उसी के कारण उनकी पार्टी को अनेक सीटें गंवाना पड़ीं | ये भी सुनने में आया कि भाजपा ने उनसे केंद्र की राजनीति में आने के लिए कहा | बात तो उनको राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति बनाने की भी चली किन्तु कभी नागरिकता संशोधन बिल तो कभी जातिगत जनगणना जैसे  मुद्दों पर वे भाजपा को  असमंजस में डालते रहे | और अंततः पुरानी कहानी दोहराते हुए इस्तीफा दिया और उसके फ़ौरन बाद लालू की पार्टी राजद सहित अन्य गैर भाजपा दलों के साथ गठबंधन कर सरकार बना ली  | जिन तेजस्वी के भ्रष्टाचार के सवाल पर उन्होंने महागठबंधन तोड़ा था उन्हीं के साथ फिर जुड़ गए | और तो और ये कसम भी खाने लगे कि दोबारा भाजपा के साथ नहीं जायेंगे | लेकिन उनको ये बात समझ में आने लगी है कि उनकी पार्टी का भविष्य बिहार में सुरक्षित नहीं है | आरसीपी सिंह के बाद उपेन्द्र कुशवाहा भी साथ छोड़ गए | लालू कुनबा फिर अपनी हरकतों पर जिस तरह उतर आ या है उससे वे परेशान तो हैं लेकिन  अकेले दम पर चुनाव लड़ने की क्षमता बची नहीं | इसीलिए कुछ समय से विपक्षी एकता का राग छेड़ रहे थे | और इसी सिलसिले में गत दिवस दिल्ली आकर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से भी मिल लिए | जिसके बाद से ही मोदी विरोधी प्रचारतंत्र उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताने लगा | स्मरणीय है नीतीश कांग्रेस को ये सन्देश भेजते रहे हैं कि वह गठबंधन के नेता बनने का लालच छोड़ दे | उनका ये दावा भी चर्चा में आता रहा कि सभी विपक्षी एक साथ आ जाएँ तो 2024 में भाजपा को हराया जा सकता है | लेकिन उनकी ये कवायद ज्यादा असरकारक इसलिए नहीं होगी क्योंकि अब वे विपक्ष के बड़े नेता नहीं रह गए हैं | ममता , केसीआर , शरद पवार , स्टालिन और अखिलेश की तरह उनका जनाधार नहीं बचा | उनके पास विधानसभा में 50 से भी कम विधायक हैं | उनसे ज्यादा बिहार में तेजस्वी चर्चित हैं | ऐसे में विपक्षी एकता की उनकी कोशिश अपनी कमजोरी पर पर्दा डालने का का प्रयास है | सबसे बड़ी बात ये हैं कि सात बार मुख्यमंत्री बनने में पांच मर्तबा उनको भाजपा का सहारा मिला | इसलिए बाकी विपक्षी दल उन पर ज्यादा भरोसा नहीं कर पा रहे | यहाँ तक कि बिहार के कांग्रेस नेता भी उनसे रुष्ट बताये जाते हैं | बीच – बीच  में उनके वापस भाजपा के साथ जाने की खबरें भी  उड़ा करती हैं | इन सबके कारण नीतीश अपनी छवि और विश्वसनीयता दोनों गँवा चुके हैं | विपक्षी एकता की उनकी मुहिम दरअसल अपने को प्रासंगिक दिखाने का प्रयास है | लेकिन दोबारा लालू  परिवार के साथ जुड़कर उन्होंने अपनी साख को जो नुकसान पहुँचाया उसकी भरपाई  आसानी से  होने वाली  नहीं है |

- रवीन्द्र वाजपेयी 


No comments:

Post a Comment