Wednesday 19 April 2023

मानसिक विकृति को कानूनी स्वीकृति से समाज पर थोपना अनुचित



सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के साथ ही  लैंगिक सूचक पति – पत्नी शब्द की बजाय जीवनसाथी कहे जाने के प्रावधान की मांग को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई चल रही है | याचिकाकर्ता की ओर से कहा जा रहा है कि वे किसी सार्वजनिक स्थल पर जाएँ तो उन्हें लांछन या कलंक से बचाने के लिये इसे विवाह घोषित किया जाए । पुरुष और महिला के स्थान पर व्यक्ति शब्द का उपयोग करने की गुजारिश भी की गयी है | मुख्य न्यायाधीश डी.वाय चंद्रचूड के अलावा चार अन्य न्यायाधीशों की संवैधानिक बेंच इस याचिका पर सुनवाई कर रही है | सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता तो इस बात पर अड़े हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को इसकी सुनवाई ही नहीं करनी चाहिए क्योंकि कानून बनाने का अधिकार उसका नहीं बल्कि संसद का है | इसे लेकर श्री चंद्रचूड से उनकी नोकझोक भी हुई | इसी के साथ श्री मेहता ने ये भी कहा कि पांच विद्वान और कुछ लोग अदालत में बैठकर इतने महत्वपूर्ण मामले में फैसला ले लें ये सही नहीं होगा और इसके लिए देश के सभी राज्यों की राय पूछी जाने चाहिए | याचिकाकर्ता ने समानता का मुद्दा उठाते हुए कहा कि विवाह और उत्तराधिकार संबंधी  कानून में पहले भी बदलाव हुए हैं। अतः समाज की मानसिकता को बदलने के लिए समलैंगिक विवाह की अनुमति मौलिक अधिकार होनी चाहिए। देश में स्वतंत्र न्यायपालिका है इसलिए सामाजिक तौर पर किसी प्रथा या प्रवृत्ति को अच्छा या बुरा मानने की समीक्षा करने का उसका अधिकार भी है और कर्तव्य भी । लेकिन सरकार की ओर से ये कहा जाना भी गलत नहीं  है कि चूंकि इस विषय में कानून बनाने की आवश्यकता पड़ेगी लिहाजा अव्वल तो इसका निपटारा संसद पर छोड़ा जाए और फिर विविधताओं से भरे देश में चंद लोगों की इच्छा को पूरे समाज पर थोपना अनुचित है। इसलिए सभी राज्यों से उनका अभिमत लेना जरूरी है। मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन होने के बावजूद  इतना जरूर कहा जा सकता है कि विवाह के जिस स्वरूप को याचिकाकर्ता गढ़ना चाहते हैं वह न तो प्राकृतिक दृष्टि से उचित कहा जायेगा और न ही व्यवहारिक तौर पर। दो पुरुष या दो स्त्रियां मित्र के तौर पर साथ रहें तो वह स्वाभाविक है । उस दौरान उनके बीच आपसी सहमति से यौन संबंध विकसित हों तो उसे 2018 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए निर्णय ने  कानूनी मान्यता दे दी। उसी के बाद से समलैंगिक विवाह की मांग शुरू हुई और बात सर्वोच्च न्यायालय तक आ पहुंची । समलैंगिक यौन संबंधों को वैधानिक मानने के लिए देश भर में आंदोलन भी हुए  जिसमें तमाम चर्चित हस्तियां भी शामिल हुईं थीं।  लेकिन यथार्थ ये है कि भले ही उसके बाद से बहुत से समलैंगिक युगल एक साथ पति - पत्नी के रूप में रहने लगे हों लेकिन आज भी समलैंगिकता के प्रति समाज में अच्छी धारणा नहीं है। अभी हाल ही में  एक न्यायाधीश की नियुक्ति हेतु कालेजियम की अनुशंसा के बाद भी केवल इस वजह से केंद्र सरकार ने रोके रखी  क्योंकि संबंधित व्यक्ति समलैंगिक है। इस पर श्री चंद्रचूड़ ने टिप्पणी भी की थी कि इससे बौद्धिक क्षमता और पेशेवर योग्यता का कोई संबंध नहीं है। दरअसल जिस पीठ ने 2018 में सहमति के आधार पर समलैंगिक यौन संबंधों को कानूनी स्वीकृति दी उसके एक सदस्य श्री चंद्रचूड़ भी रहे। इस विषय पर उनकी टिप्पणियों से सरकार को ये अंदेशा है कि वे संदर्भित मामले में भी याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला कर सकते हैं। इसी कारण सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से सुनवाई न करने के अनुरोध के अलावा राज्यों की राय लेने भी कहा है। वैसे भी ये मामला दो व्यक्तियों की निजी अभिरुचि या स्वतंत्रता का नहीं अपितु समाज में विवाह नामक व्यवस्था के समानांतर परिपाटी खड़ी करने का प्रयास है।  बिना विवाह किए लिव इन रिलेशनशिप में अनेक पुरुष और महिला  संतानोत्पत्ति भी कर लेते हैं । उनके अलग हो जाने पर संपत्ति के बंटवारे और बच्चों की सामाजिक स्थिति को लेकर भी विमर्श चल पड़ा है। शहरों में अनेक विधवा महिलाएं और विधुर पुरुष अकेलेपन के कारण लिव इन में रहते हुए शेष जीवन काटने लगे हैं । कुछ मामलों में तो औलादों ने भी अपनी विधवा मां को किसी विधुर के साथ रहने के लिए राजी किया। ये एक तरह का समझौता  है,  एकाकीपन दूर करने का । लेकिन समलैंगिक विवाह करने वाले युगल यदि गोद लेकर बच्चे की कमी भी पूरी कर लें तब उस बच्चे को या तो मां का सुख नहीं मिलेगा या फिर पिता की  छाया। आजकल अभिजात्य वर्ग की  महिलाओं में किराए की कोख से संतान उत्पन्न करने का चलन है। कुछ अविवाहित नामी गिरामी हस्तियों में भी इसी तरह मां या पिता बनने की औपचारिकता पूरी कर ली जाती है। लेकिन इस सबसे हटकर भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्था जिस परिवार नामक व्यवस्था पर टिकी है वह लिव इन या समलैंगिक विवाह के जरिए कायम नहीं रह सकेगी । और तब सामाजिक विघटन की वह त्रासदी हमारे साथ भी जुड़ती जायेगी जिससे आज पश्चिम के वे देश गुजर रहे हैं जो अपने को आधुनिक मानते रहे। इस बारे में ये कहना गलत नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय का काम मानव और मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के साथ - साथ सामाजिक ताने- बाने को भी बनाए रखना है। कल को कुछ लोग पशुओं के साथ शारीरिक संबंध बनाने की अनुमति मांगने खड़े हो जाएं तब क्या उनको भी सुना जायेगा ? 2018 के फैसले के बाद यदि कोई समलैंगिक जोड़ा  साथ - साथ रहते हुए सहमति से  यौन संबंध बनाए तो उसे रोकना  कानूनन संभव नहीं है।  लेकिन वह ये चाहे कि समाज उनकी इस जीवनशैली को सम्मान प्रदान करे,  यह बात निरर्थक लगती है। सर्वोच्च न्यायालय क्या फैसला करता है और उसके बाद सरकार की क्या भूमिका होती है ये देखने के लिए तो प्रतीक्षा करनी होगी किंतु ऐसा लगता है चंद लोग अपनी मानसिक विकृति को कानून से अनुमति लेकर समाज पर थोपना चाहते हैं । उनकी बात पर विचार करते समय सर्वोच्च न्यायालय को ये ध्यान रखना चाहिए कि हर देश की अपनी  संस्कृति और संस्कार होते हैं जो संविधान में वर्णित निर्देशक सिद्धांतों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली हैं जिनको मुट्ठी भर लोगों के लिए उपेक्षित करना न्यायोचित नहीं होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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