Saturday 29 April 2023




सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि वे घृणा फ़ैलाने वाले भाषणों (हेट स्पीच) के विरुद्ध बिना किसी शिकायत के ही मामला दर्ज करें , जिसमें देरी करने को अदालत की अवमानना समझा जायेगा | न्यायालय ने धर्म के नाम पर होने वाली जहरीली बयानबाजी पर चिंता भी जताई | घृणा फैलाने वाले भाषण किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकते | विशेष रूप से भारत जैसे देश में जहां सभी धर्मों को बराबरी से फलने – फूलने का अधिकार है और हर व्यक्ति अपनी पसंद की पूजा पद्धति अपना सकता है | दरअसल बीते कुछ वर्षों से ये देखने में आया है कि राजनीतिक और धार्मिक मंचों से इस तरह के भाषण दिए जाने लगे हैं जिनमें अन्य किसी धर्म के बारे में आपत्तिजनक और उत्तेजना फ़ैलाने वाली बातें कही जाती हैं | उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश समयानुकूल है किन्तु उसका पालन करते समय ये देखना भी जरूरी है कि सम्बंधित राज्य सरकार घृणा फैलाने का आधार क्या तय करती है ?  चूंकि हमारे देश में धर्म निरपेक्षता भी राजनीतिक लिहाज से परिभाषित होती है इसलिए एक भाषण जो राजस्थान में घृणा फ़ैलाने वाला माना जाए उसे म.प्र की सरकार सामान्य माने तब क्या होगा ? और फिर सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश केवल सार्वजनिक मंचों से दिये जाने वाले भाषणों के इर्द गिर्द ही सीमित रहेगा जबकि असली घृणा तो उन धर्मस्थलों में होने वाले भाषणों से फैलती है जो न समाचार माध्यमों की नजर में आते हैं ,  न ही पुलिस और प्रशासन के | उसके बावजूद भी उसके निर्देश स्वागत  योग्य हैं  क्योंकि सार्वजनिक तौर पर कतिपय नेता और धर्मगुरु जिस तरह की शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं वह निश्चित रूप से तनाव और विवाद का कारण बनती है | सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में स्व. जवाहर लाल नेहरु और स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का उल्लेख किया जिनका भाषण सुनने दूर – दूर से जनता आती थी और कभी भी उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही जिसमें शालीनता का अभाव हो या  किसी अन्य की भावनाओं को ठेस पहुँची | राजनेता तो घृणा फ़ैलाने वाले भाषण देकर चुनावी लाभ ले लेते हैं किन्तु धार्मिक विभूतियों द्वारा अन्य धर्म के बारे में जहरीली टिप्पणी करना शोभा नहीं देता | लेकिन इस बारे में  ध्यान देने वाली बात ये है कि कुछ  धर्माचार्य परकोटे के भीतर अपने कुनबे को जमा कर जो जहर फैलाते हैं वह चूंकि सार्वजनिक तौर पर अनसुना  रह जाता है इसलिए उस पर कार्रवाई करना असंभव है | और असली समस्या यही है | चूंकि राजनीतिक विमर्श में भी अब पहले जैसी सौजन्यता नहीं रही इसलिए भाषणों और वार्तालाप का स्तर लगातार गिरता चला जा रहा है | ये कहना गलत न  होगा कि देश की संसद से ये बुराई फ़ैल रही है जहां अब सत्ता पक्ष और विपक्ष के किसी भी सदस्य का भाषण प्रभावित नहीं करता | इसीलिये अदालत ने पंडित नेहरु और अटल जी के नाम का उल्लेख कर ये जताने की कोशिश की है कि सार्वजानिक मंचों से कही जाने वाली बातों में गरिमा होनी चाहिये | देश में अनेक धर्मगुरु भी ऐसे हैं जो आक्रामक शैली का प्रवचन देकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा व्यक्त  करते रहते हैं | उनकी उपयोगिता उनके आध्यात्मिक ज्ञान से अधिक उनके उत्तेजक प्रवचनों पर तय होती है | हालांकि  सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद भी घृणा फ़ैलाने वाली तक़रीर के विरुद्ध मामला दर्ज करने में राजनीतिक भेदभाव होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता | मसलन प. बंगाल और केरल की सरकारों का जो रवैया है उसे देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का दुरूपयोग होना तय है | आजकल राजनीति में बदले की भावना जिस तेजी से बढ़ती जा रही है  उसके मद्देनजर घृणा फैलाने वाले भाषण पर कार्रवाई  विद्वेष से प्रभावित होने की सम्भावना बनी रहेगी | उस दृष्टि से सर्वोच्च  न्यायालय का निर्देश नई समस्या भी पैदा कर सकता है | ये देखते हुए  घृणा फ़ैलाने वाले भाषण और प्रवचन रोकने के लिए राजनीतिक दलों और धर्माचार्यों को अपनी तरफ से आचार संहिता बनानी चाहिए | यदि किसी दल का नेता सार्वजनिक मंच से घृणा  फ़ैलाने वाली बात कहे तो दलीय स्तर पर ही उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई होनी चाहिए क्योंकि उन बातों से अंततः उस दल की छवि भी खराब होती है | इसी तरह धार्मिक मंचों से उत्तेजना फ़ैलाने वाले प्रवचन देने वालों की संत समाज को आगे आकर  निंदा करनी चाहिए क्योंकि समाज में सौहार्द्र का वातावरण अकेले कानून के बल पर नहीं बनाया जा सकता | उसके लिए आत्मानुशासन की जरूरत है जो दुर्भाग्य से आजकल कम ही नजर आता है | इसके लिए हमारी राजनीतिक संस्कृति भी काफी हद तक जिम्मेदार है | हाल ही में उ.प्र और बिहार में कुछ राजनेताओं ने रामचरित मानस पर जो विवाद पैदा किया उसके पीछे भी विशुद्ध राजनीतिक लाभ लेने की मंशा थी | एक ज़माने में बसपा की ओर से सवर्ण जातियों के प्रति जिस तरह के नारे दीवारों पर लिखे जाते थे उनका उद्देश्य भी दलित मतों का ध्रुवीकरण करना था | इसी तरह मनुस्मृति को जलाने जैसी हरकतों का मकसद  भी घृणा फैलाकर अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना है | कुल मिलाकर बात ये है कि राजनीतिक पार्टियाँ अपने नेताओं और धर्माचार्य अपने धर्म के बारे में जितने सम्वेदनशील होते हैं उतना ही सम्मान दूसरे नेताओं और धार्मिक विभूतियों का भी होना चाहिए | किसी सिरफिरे की आपत्तिजनक बातों पर सिर तन से जुदा जैसी बातें करने वाले मानसिक रोगी होते हैं इसलिए उनकी बातों को किसी धर्म विशेष से जोड़ने की बजाय देश विरोधी मानसिकता मानकर सामूहिक तौर पर उसका विरोध किया जाना चाहिए | इसी तरह किसी राजनेता द्वारा अन्य नेता या पार्टी के प्रति अशोभनीय बात कही जाने पर उसकी पार्टी ही उसकी खिंचाई करे तो राजनीतिक वातावरण शुद्ध हो सकता है | इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अलावा ये समाज का भी दायित्व है कि वह घृणा  फ़ैलाने के किसी भी प्रयास की राजनीतिक और धार्मिक सीमाओं से ऊपर उठकर निंदा करते हुए दोषी व्यक्ति का बहिष्कार करे क्योंकि मुट्ठी भर लोगों को देश का माहौल खराब करने की छूट नहीं दी जा सकती |

-रवीन्द्र वाजपेयी 


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