आखिरकार चुनाव की तिथियाँ घोषित हो गईं। सात चरणों में लोकसभा के साथ ही कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव और उपचुनाव करवाने का कार्यक्रम भी चुनाव आयोग ने घोषित कर दिया। 19 अप्रैल को पहले और 1 जून को आखिरी चरण के मत पड़ेंगे। मतगणना 4 जून को होगी। इस प्रकार नई सरकार के लिए ढाई महीने से भी अधिक प्रतीक्षा करनी होगी।
यह चुनाव कई मायनों में रोचक हो गया है। यदि वर्तमान सरकार वापस आती है तब पंडित नेहरू के बाद नरेंद्र मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री होंगे जो लगातार तीन चुनाव जीते हों। उससे भी बड़ी बात होगी विशुद्ध गैर कांग्रेसी व्यक्ति को इस पद पर लगातार तीसरे कार्यकाल के लिए जनादेश हासिल होना। भाजपा को 370 और एनडीए को 400 से ज्यादा सीटें मिलने के नारे को प्रधानमंत्री ने जिस कुशलता से राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनाया उसकी वजह से विपक्ष पर मनोवैज्ञानिक दबाव बन गया। आम जनता के मन में भी भाजपा यह बात बिठाने में जुटी है कि उसकी विजय सुनिश्चित है। किसी भी बड़ी लड़ाई में जीत के लिए अपनी सेना में आत्मविश्वास के साथ प्रतिद्वंदी पर मानसिक दबाव बनाना कारगर साबित होता है। प्रधानमंत्री और भाजपा के रणनीतिकार इसी तरीके का इस्तेमाल कर रहे हैं।
दूसरी तरफ काँग्रेस के नेतृत्व में गठित इंडिया नामक गठजोड़ में अभी तक सामंजस्य नहीं बन सका। नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ पकड़ लिया। अखिलेश यादव ने भी इकतरफा फैसला करते हुए काँग्रेस को मात्र 17 सीटें दे दीं। प. बंगाल में ममता बैनर्जी ने तो काँग्रेस के साथ निर्मम व्यवहार करते हुए उसे एक भी सीट नहीं दी। वहीं केरल में कांग्रेस के साथ यही व्यवहार वामपंथियों ने किया और राहुल गाँधी तक के विरुद्ध प्रत्याशी उतार दिया। उधर आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को पंजाब में ठेंगा दिखा दिया। अन्य राज्यों से भी जो खबरें मिल रही हैं उनसे ये स्पष्ट हो रहा है कि जिस उत्साह के साथ इंडिया गठबंधन बना था वह कायम नहीं रह सका।
मोदी सरकार की वापसी को रोकने के लिए विपक्षी पार्टियां साझा उम्मीदवार खड़ा करने की तैयारी से साथ आई थीं। शुरुआत में ऐसा लगा भी कि उनकी रणनीति काम कर जायेगी। लेकिन विश्वास का संकट यथावत रहा जिसके चलते एकता के ढोल में पोल साफ नजर आ रही है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किये जाने से मिला। एनडीए के खेमे में इस मामले में कोई मतभेद नहीं है। श्री मोदी के नेतृत्व को नीतीश कुमार तक ने स्वीकार कर लिया। भाजपा में तो इस विषय पर किसी भी प्रकार की अनिश्चितता न पहले थी और न ही आगे होने की गुंजाइश है। ऐसे में मुकाबला मोदी विरुद्ध अनिश्चितता का हो गया है।
विपक्ष में व्याप्त अंतर्द्वंद के बीच प्रधानमंत्री तो अपनी दस वर्षीय उपलब्धियां जनता के सामने पेश कर रहे हैं किंतु विपक्ष में कोई ऐसा नहीं है जो पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सके कि प्रधानमंत्री बनने के बाद वह कौन से कार्य करेगा। और यही शून्यता विपक्ष की सबसे बड़ी कमजोरी बनकर सामने आई है। राहुल गाँधी की न्याय यात्रा में व्यस्त कांग्रेस नेतृत्व पार्टी में धधक रहे असंतोष के ज्वालामुखी को शांत करने में जिस तरह नाकामयाब रहा उसका दुष्परिणाम देश भर से उसके नेताओं और पदाधिकारियों के पार्टी छोड़ने से मिल रहा है।
इंडिया गठबंधन के घटक दलों के मन में ये बात घर कर चुकी है कि कांग्रेस के भरोसे उनकी नैया पार नहीं हो सकेगी। इसीलिए वे अब अपनी अलग रणनीति बना रहे हैं जिसका प्रमाण प. बंगाल, केरल और पंजाब में नजर आ रहा है। सात चरणों के इस चुनाव में भाजपा जहाँ पूरे आत्मविश्वास और पेशेवर प्रबंधन के साथ उतर चुकी है वहीं विपक्षी रथ के घोड़े सारथी के अभाव में बिदकने लगे हैं।
हालांकि परिणाम को लेकर दावा करना उचित नहीं होगा किंतु अभी तक के हालात में एनडीए का पलड़ा भारी है। 370 और 400 पार के उसके नारे के शोर में विपक्ष की वह आवाज कहीं गुम होकर रह गई है कि वह भाजपा को 272 से नीचे रोककर नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने से रोक देगा।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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