Saturday 16 September 2023

गांधी परिवार के खूंटे से बंधे पत्रकारों के नाम भी तो उजागर करे विपक्ष


आई.एन .डी .आई .ए नामक गठबंधन द्वारा जिन 10 एंकरों के टीवी शो में न जाने का निर्णय किया उन पर आरोप है कि उनका झुकाव भाजपा के प्रति है। लेकिन उसे उन एंकरों की सूची भी सार्वजनिक करना चाहिए जो सुबह - शाम मोदी और भाजपा की तीखी आलोचना करते रहते हैं। ऐसे में यदि दूसरा पक्ष उनके बहिष्कार की घोषणा कर दे तब विपक्ष उसे मीडिया विरोधी कदम ठहराने से बाज नहीं आएगा। दरअसल बहिष्कार का फैसला कुंठा के सिवाय कुछ भी नहीं। सवाल ये है कि क्या कांग्रेस और शरद पवार में साहस है कि अरविंद केजरीवाल का बहिष्कार करें जिन्होंने तमाम विपक्षी नेताओं को सबसे भ्रष्ट की सूची में रखा था। इसी तरह कांग्रेस में ममता बैनर्जी का बहिष्कार करने की हिम्मत है जो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिए अनुपयुक्त बता चुकी हैं। ऐसे ही शिव भक्त राहुल और हनुमान भक्त अरविंद में हिम्मत है जो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के बेटे उदयनिधि द्वारा सनातन को खत्म करने वाले बयान पर द्रमुक का बहिष्कार करें। जहां तक बात भाजपा समर्थक होने की है तो देश के उपराष्ट्रपति और लोकसभाध्यक्ष भी तो भाजपा से जुड़े रहे हैं । विपक्ष उन पर भी पक्षपात का आरोप लगाता है। तो क्या वह राज्यसभा और लोकसभा की बैठकों में जाना बंद कर देगा और जिन राज्यों में भाजपा को जबरदस्त जन समर्थन है वहां की जनता से नाता तोड़ लेगा? ऐसे ही कुछ अन्य सवाल भी हैं। याद रहे लोकतंत्र विचारों के आदान - प्रदान से मजबूत होता है। अतीत में सरकारी नियंत्रण वाले दूरदर्शन और आकाशवाणी पर विपक्ष को पर्याप्त महत्व नहीं मिलता था किंतु किसी ने उनके बहिष्कार की बात नहीं की। प्रख्यात पत्रकार स्व.कुलदीप नैयर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरोधी माने जाते थे । 1990 में जनता सरकार ने उनको लंदन में उच्चायुक्त बनाया। 1997 में वे राज्यसभा में नामांकित किए गए। बाद में वे भाजपा और संघ परिवार के घोर विरोधी बन गए। लेकिन किसी ने उनके बहिष्कार की बात नहीं की। इसी तरह प्रसिद्ध लेखक -पत्रकार स्व.खुशवंत सिंह भी कांग्रेस की कृपा से राज्यसभा में भेजे गए किंतु उन पर ऐसे आरोप नहीं लगे। एम.जे.अकबर जनता दल से होते हुए भाजपा में आए। अनेक अखबारों और टीवी चैनलों के मालिकों ने भी राज्यसभा की सीट हासिल की। टीवी चैनलों के एंकरों में बड़ा नाम कहे जाने वाले आशुतोष ने आम आदमी पार्टी से चुनाव लड़ा और हारने के बाद दोबारा पत्रकारिता कर रहे हैं । आज के दौर में दर्जनों पत्रकार , एंकर और यू ट्यूबर हैं जो मोदी और भाजपा के विरोध के सिवाय कुछ और नहीं करते । लेकिन उनके बहिष्कार की बात किसी ने नहीं सुनी। ये सब देखते हुए विपक्ष द्वारा कुछ एंकरों के बहिष्कार का फैसला उसके अपने लिए नुकसानदेह है। पत्रकार का दायित्व है समाचारों को सही रूप में पाठकों अथवा दर्शकों तक पहुंचाए। रही बात प्रशंसा और आलोचना की तो वह समाचार से अलग स्तंभों में ही अच्छी लगती है। समाचार माध्यमों में विभिन्न लेखकों और समीक्षकों की रचनाएं प्रकाशित होती हैं जिनमें सरकार की तारीफ और आलोचना दोनों रहती हैं। विपक्ष यदि चाहे कि समाचार माध्यम उसकी हर बात को सही मानकर प्रचारित करें तो ये अपेक्षा बेमानी है। एक समय था जब पत्रकार बिरादरी में कांग्रेस , समाजवादी और वामपंथी विचारधारा से प्रभावित लोगों की बहुतायत थी।अनेक नेताओं के खुद के पत्र समूह और टीवी चैनल हैं। जिनमें सत्ताधारी और विपक्षी दोनों हैं। शिवसेना का अपना मुखपत्र सामना है जिसके संपादक ही पार्टी के प्रवक्ता होते हैं। कांग्रेस सांसद राजीव शुक्ल भी एक चैनल के मालिक हैं जिसका संचालन उनकी पत्नी करती हैं। सामना ने राहुल गांधी द्वारा वीर सावरकर की आलोचना का खुलकर विरोध किया था । तो क्या कांग्रेस उसका भी बहिष्कार करेगी ? संसद में कांग्रेस और उसके सहयोगी अडानी मामले में जेपीसी की मांग पर अड़े रहे लेकिन शरद पवार और ममता बैनर्जी ने उसका साथ नहीं दिया। श्री पवार ने तो अडानी से मुलाकात कर खुलेआम उसका समर्थन किया। बावजूद उसके कांग्रेस या अन्य किसी की हिम्मत नहीं हुई उनके विरुद्ध बोलने की। ये सब देखते हुए कुछ चुनिंदा एंकरों के बहिष्कार का फैसला अपरिपक्वता की निशानी है। आपातकाल लगाते समय इंदिरा जी ने भी समाचार माध्यमों पर सेंसरशिप थोप दी । उसका क्या परिणाम हुआ ये इतिहास में दर्ज है। दुर्भाग्य से आई.एन .डी .आई .ए नामक गठबंधन में शामिल दलों ने उस अनुभव को भुला दिया। वैसे भी टीवी पर नेताओं के बीच आयोजित होने वाली बहस में जनता की रुचि घटती जा रही है। सत्ता पक्ष को लगता है विपक्ष के एक से ज्यादा प्रतिनिधि होने से वह अपना पक्ष नहीं रख पाता , वहीं विपक्ष को लगता है उसकी उपेक्षा कर भाजपा को महत्व दिया जाता है। कांग्रेस के समय यही शिकायत तत्कालीन विपक्ष को रही। लेकिन बहिष्कार इस समस्या का हल नहीं है। विपक्ष द्वारा समाचार पत्रों और चैनलों पर सरकार का अंधा समर्थन करने का जो आरोप लगाया जाता है वह न पूरी तरह सही है और न ही गलत। पत्रकार बिरादरी में पेशेवर लोगों का आगमन तेजी से हुआ है किंतु अभी भी राजनीतिक प्रतिबद्धता से जुड़े लोग हैं । धीरे - धीरे पत्रकारिता पर व्यावसायिकता का रंग चढ़ गया है। जिसका कारण पत्रकारों के हाथों से निकलकर समाचार माध्यमों का पूंजीपतियों के हाथ चला जाना है । इसके लिए आज विपक्ष में बैठी कांग्रेस भी कम उत्तरदायी नहीं है। इसलिए बेहतर तो यही होगा कि विपक्ष अपने गिरेबान में भी झांके और उन एंकरों और पत्रकारों के नाम भी बताए जो कांग्रेस और विशेष रूप से गांधी परिवार के खूंटे से बंधे हुए हैं। कार्ति चिदंबरम और प्रियांक खरगे द्वारा सनातन धर्म विरोधी बयान पर उनकी खामोशी इसका प्रमाण है।

-रवीन्द्र वाजपेयी 

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