आज एक तरह से हिन्दी का सरकारी जन्मदिवस है। 1953 में 14 सितम्बर को राजभाषा दिवस की घोषणा हुई। कालांतर में सप्ताह , पखवाड़ा और मास भी मनाए जाने लगे । वैसे तो ये गौरव की बात है कि दर्जनों प्रांतीय भाषाओं के बावजूद इन आयोजनों में हिन्दी का महिमामंडन करते हुए उसकी सहजता और सरलता की प्रशंसा के साथ ही स्वीकार्यता का वचन लिया जाता है। इसके निमित्त प्रतियोगिताएँ , पुरस्कार , सम्मान , गोष्ठियां , कवि सम्मलेन, पोस्टर - बैनर , जैसे अनेक क्रियाकलाप होते हैं। काफी पहले से केंद्र सरकार के सभी विभागों तथा उपक्रमों में राजभाषा अधिकारी कार्यरत हैं जिनका दायित्व हिन्दी के अधिकतम उपयोग के लिये गैर हिन्दी भाषियों को प्रशिक्षित करना है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनके प्रयासों से सरकारी प्रतिष्ठानों में हिन्दी का उपयोग काफी बढ़ा है। यद्यपि भाषावार प्रान्तों के गठन से उत्पन्न क्षेत्रीयता की भावना हिन्दी के विरोध का कारण बनती रही है। चुनावी राजनीति ने भाषा को भी वोट बैंक का जरिया बना दिया। उदाहरण के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री डी. राजा ने तो केंद्र सरकार पर हिन्दी थोपने का आरोप लगाते हुए अलग तमिल देश की धमकी तक दे डाली थी । महाराष्ट्र में भी उद्धव ठाकरे की शिवसेना और राज ठाकरे की मनसे मराठी भाषा के नाम पर लोगों को भड़काने का काम करती रही हैं। परिणामस्वरूप अन्य राज्यों में भी क्षेत्रीय भाषा के नाम पर सियासती गोटियां बिठाने का प्रयास होता रहता है। हालांकि राहत की बात है कि उत्तर भारतीय राज्यों में अदालतों के अलावा राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में भी हिन्दी को मान्यता मिल गयी है। गत दिवस आए इस समाचार ने सभी हिन्दी प्रेमियों को आल्हादित किया कि देश के सबसे बड़े अलाहाबाद उच्च न्यायालय में हाल ही के वर्षों में 20 हजार फैसले हिन्दी में लिखे गए। ऐसी बातें आश्वस्त करती हैं किंतु इसका विरोधाभासी दूसरा पहलू भी है। अर्थात जिस वर्ग की मातृभाषा हिन्दी है उसके एक बड़े वर्ग द्वारा उसके प्रति उपेक्षाभाव दिखाया जाना पीड़ा पहुंचाता है। प्रारंभ में तो संपन्न वर्ग ही अंग्रेजी को सभ्यता और आधुनिकता का प्रतीक मानकर उसके मोहपाश में जकड़ा था परंतु समय बीतने के साथ मध्यम आय वर्ग में भी जिस तरह उसके प्रति अनुराग बढ़ा उससे सांस्कृतिक विकृति में भी वृद्धि हुई। अँग्रेजी माध्यम में शिक्षा को सफलता की गारंटी मान लेने की मानसिकता की वजह से शालेय स्तर पर पढ़ाई का स्वरूप ही पूरी तरह से बदल गया। गली - गली नजर आने वाले कान्वेंट स्कूल के बोर्ड इसका प्रमाण हैं । यदि इनमें अध्ययन करने वाले निम्न आय वर्ग परिवारों के बच्चे काम चलाऊ अंग्रेजी ही सीख जाएँ तो भी ठीक है परंतु अंग्रेजी की चकाचौंध में वे हिन्दी में ही कमजोर हो जाते हैं। इस अधकचरेपन के लिये वे अभिभावक भी जिम्मेदार हैं जो अंग्रेजी की मृगमरीचिका में अपनी संतानों को उनकी मातृभाषा से ही दूर कर बैठते हैं । यद्यपि भारत में हिन्दी को समाप्त करना असंभव है क्योंकि वही राष्ट्रीय स्तर की संपर्क भाषा है। इसीलिए तमिलभाषी उत्तर भारत में नौकरी अथवा व्यवसाय करने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करते। इसी तरह उप्र - बिहार के श्रमिक बड़ी संख्या में दक्षिणी राज्यों में भी कार्यरत हैं। कोरोना काल में महानगरों से मजदूरों की घर वापसी के समय ये बात उजागर हुई कि गैर हिन्दी भाषी राज्यों में भी इन श्रमिकों का कोई विरोध नहीं है। ये देखते हुए हिन्दी भाषी लोगों को अपनी भाषा के प्रति उपेक्षाभाव त्यागना चाहिए । भाषा के रूप में अंग्रेजी सीखना कतई बुरा नहीं है । लेकिन उसके जरिए आ रहे संस्कार समाज के लिए घातक हैं। विचारणीय है कि अंग्रेजी साहित्य और संस्कृति का प्रभाव आजादी के 75 वर्ष बाद भी यथावत है। इतिहास साक्षी है कि विदेशी भाषा के आधिपत्य ने अनेक देशों की सांस्कृतिक पहिचान को नष्ट कर दिया। ये देखते हुए आज से होने वाले सरकारी और गैर सरकारी आयोजन प्रचार - प्रसार की दृष्टि से तो अच्छे हैं लेकिन जब तक अपनी मातृभाषा के उपयोग के लिए हिन्दी भाषी ही आकर्षित नहीं होते तब तक सरकारी संरक्षण चाहे कितना मिल जाए परंतु वह उपेक्षित ही रहेगी। तामिलनाडु के नेताओं का हिन्दी विरोध तो राजनीतिक स्वार्थ पर आधारित है किंतु हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी की उपेक्षा समझ से परे है। मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा हेतु बनी नई शिक्षा नीति इस दिशा में अच्छा कदम है किंतु उसे ईमानदारी से अपनाना जरूरी है क्योंकि हिन्दी को सबसे ज्यादा खतरा हिन्दी भाषियों से ही है।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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