Wednesday 27 September 2023

जनता को तो बस शीघ्र और सस्ता न्याय चाहिए



सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण संबंधी कालेजियम की सिफारिशों को स्वीकृति देने में केंद्र सरकार की तरफ से होने वाले विलंब पर चिंता जताते हुए कहा कि इस मामले में सकारात्मक आश्वासन मिलने तक सर्वोच्च न्यायालय एडवोकेट्स एसो. बेंगलुरु की याचिका पर हर 10 दिन में सुनवाई करेगा। कालेजियम की सिफारिशों को स्वीकार करने में सरकार द्वारा किया जाने वाला विलंब लंबे समय से विवाद का कारण बना हुआ है। मौजूदा सरकार ने इस व्यवस्था के विकल्प के तौर पर न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया था किंतु संसद द्वारा सर्व सम्मत फैसला लेकर पारित उक्त कानून को सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया । और उसी के बाद सरकार और न्यायपालिका के बीच कालेजियम की सिफारिशें खींचातानी का कारण बनी हुई हैं। इस मामले में एक बात विचारणीय है कि कालेजियम कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं है । बावजूद इसके सर्वोच्च न्यायालय इसे जारी रखने पर अड़ा हुआ है। विशेष रूप से वर्तमान प्रधान न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ तो इस बारे में सुनने तक तैयार नहीं होते। इस विषय पर होने वाली टिप्पणियों के कारण न्यायपालिका और सरकार के बीच कटुता भी बढ़ी । इसी कारण कानून मंत्री कारण रिजजु का विभाग बदला गया। सतही तौर पर तो यही लगता है कि उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में होने वाले विलंब के लिए सरकार जिम्मेदार है किंतु ये अर्धसत्य है। दरअसल कालेजियम व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियों के विरुद्ध तो विधि क्षेत्र से ही आवाजें उठती रही हैं। जिस परिवारवाद के लिए राजनीतिक दलों की आलोचना होती है वह न्यायपालिका में भी पूरे जोर - शोर से हावी है। श्री चंद्रचूड़ की पेशेवर योग्यता और अनुभव पर किसी को संदेह नहीं है किंतु इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके पूज्य पिता भी सर्वोच्च न्यायालय में सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले प्रधान न्यायाधीश थे। विधि जगत से आने वाली जानकारी के अनुसार देश के कुछ परिवार ऐसे हैं जिनमें न्यायाधीश बनने की परंपरा सी है जो संभवतः कालेजियम व्यवस्था के कारण ही मुमकिन हो सका। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू द्वारा की गई अंकल जज वाली टिप्पणी इस बारे में खूब चर्चित हुई थी। बहरहाल , सरकार और न्यायपालिका के बीच वर्चस्व और श्रेष्ठता की जो रस्साकशी चली आ रही है उसके कारण होने वाले गतिरोध में न्यायाधीशों के पद खाली पड़े रहने से त्वरित न्याय की उम्मीदें ध्वस्त जाकर रह जाती हैं। सर्वोच्च न्यायालय जब भी कड़ा रुख अख्तियार करता है तब सरकार सक्रिय होकर कुछ नियुक्तियों को हरी झंडी दिखा देती है । लेकिन उसके बाद फिर वही स्थिति जारी रहती है। इस विवाद में दोनों पक्ष अपनी बात पर अड़े हुए हैं। सरकार को न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका का सर्वाधिकार रास नहीं आ रहा वहीं न्यायपालिका में बैठे माननीय भी लेशमात्र झुकने राजी नहीं हैं। हां, एक बात जरूर उठती है कि यदि कालेजियम संविधान प्रदत्त व्यवस्था नहीं है तब उसे बदलकर यदि संसद ने एक मत से लोकसेवा आयोग की तर्ज पर न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया तब उसे संविधान विरोधी मानकर रद्द करने की क्या जरूरत थी , जबकि वह व्यवस्था अधिक पारदर्शी होती। यदि न्यायपालिका चाहती तो उसमें कुछ कोटा न्यायिक सेवा में कार्यरत अधिकारियों के लिए रखने कह सकती थी। लेकिन उस आयोग को सिरे से खारिज किए जाने से ये स्पष्ट हो गया कि वह कालेजियम के जरिए न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में किसी अन्य को शामिल करने के लिए किसी भी कीमत पर राजी नहीं है। चूंकि न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणियां करने से हर कोई बचता है लिहाजा कालेजियम व्यवस्था के विरुद्ध भी अपेक्षित आवाजें नहीं उठतीं। यदि न्यायिक नियुक्ति आयोग अस्तित्व में आ गया होता तब आई.ए. एस और आई.पी. एस जैसे ही न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया भी निश्चित समय पर होती रहती जिससे न्यायाधीशों का अभाव न रहता। बावजूद इस सबके ये बात अच्छी नहीं है कि अदालतों में बढ़ते लंबित मामलों के बाद भी न्यायाधीशों के पद रिक्त पड़े रहें। सरकार सर्वोच्च न्यायालय में क्या उत्तर देगी ये तो वहीं जाने किंतु जनता को समय पर न्याय नहीं मिल पाने की वर्तमान स्थिति के कारण न्याय व्यवस्था में विश्वास और न्यायपालिका के प्रति सम्मान में कमी आती जा रही है । न्याय के महंगे होने का एक कारण न्यायाधीशों की कमी भी है । ये सब देखते हुए कार्यपालिका और न्यायपालिका को आपसी सामंजस्य बनाकर इस समस्या को सुलझाना होगा। रही बात अपनी श्रेष्ठता साबित करने की तो दोनों पक्षों को जनता का हित और सहूलियत देखनी चाहिए । अदालतों में बढ़ती पेशियां और न्याय प्राप्त करने में होने वाले विलंब से त्रस्त आम जनता को न कालेजियम में रुचि है और न ही न्यायिक नियुक्ति आयोग में। उसे तो बस सस्ता और शीघ्र न्याय चाहिए। 

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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