Friday 22 September 2023

बिना आरक्षण भी तो महिलाएं एक तिहाई सांसद और विधायक बनाई जा सकती हैं


नारी शक्ति वंदन अधिनियम गत दिवस राज्यसभा में सर्वसम्मति से पारित हो गया। लोकसभा  एक दिन पूर्व ही इसे स्वीकृति प्रदान कर चुकी थी। इस विधेयक को भले ही सर्वसम्मति से पारित किया गया किंतु इसमें ओबीसी, अजा/अजजा महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान न होने से अनेक दलों ने विरोध जताया किंतु सत्ता पक्ष की दृढ़ता और कांग्रेस के समर्थन से उसके पारित होने में दिक्कत नहीं हुई।  श्रेय लूटने की होड़ भी जमकर मची और इतने वर्षों तक ये क्यों लटका रहा इसे लेकर आरोप - प्रत्यारोप भी देखने मिले । विभिन्न पार्टियों ने इस विधेयक को अपना मानस पुत्र बताकर उस पर दावा ठोका किंतु जिस तरह से हॉकी और फुटबॉल में गेंद को गोल तक ले जाने में अनेक खिलाड़ियों की भूमिका के बावजूद जो खिलाड़ी उसे गोल रेखा के भीतर भेजता है,  वाहवाही उसी की होती है उसी तरह इस विधेयक को पारित करवाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गोल करने वाले खिलाड़ी के तौर पर उभरे । लेकिन  इस कानून के लागू होने के लिए 2029 तक प्रतीक्षा करनी होगी और तब तक भारतीय राजनीति में न जाने कितने बदलाव हो जायेंगे। वैसे भी इस लड़ाई का असली मकसद शुरू से ही महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार से अधिक  राजनीतिक उल्लू सीधा करना रहा है। उदाहरण स्वरूप महिला आरक्षण के भीतर भी आरक्षण के प्रावधान की मांग करने वाले दल चुनाव में महिलाओं को उम्मीदवार बनाने में  फिसड्डी रहे हैं।  पिछड़ों और दलितों की राजनीति करने वाली पार्टियों और नेताओं ने अपने समुदाय के नाम पर या तो अपने परिवार जनों को आगे बढ़ाया या फिर धन्ना सेठों को । अन्य दलों ने भी महिलाओं को राजनीति में उतारने के बारे में ऐसा कुछ नहीं किया जिससे उनकी सामाजिक स्थिति मजबूत होती। जहां तक चुनाव की बात है तो उसमें जीतने की क्षमता आड़े आ जाती है। हालांकि पंचायती राज  में महिलाओं के लिए  आरक्षण की व्यवस्था होने से ग्रामीण और नगरीय निकायों में महिलाएं भी बड़ी संख्या में चुनकर आने लगी हैं।  लेकिन कुछ अपवाद छोड़कर अधिकांश के क्रियाकलापों को  परिवार के पुरुष या फिर पार्टी नियंत्रित करती है । ऐसे में एक तिहाई आरक्षण और उसके भीतर ओबीसी तथा अजा/अजजा को आरक्षण दिए जाने के बाद भी विभिन्न पार्टियों में जमे बैठे नेता महिलाओं को कितना महत्व देंगे ये प्रश्न महत्वपूर्ण है। और तो और जो महिलाएं राजनीति के शिखर पर जा पहुंची उन्होंने भी अपने उत्तराधिकारी के तौर पर किसी महिला को आगे बढ़ाया हो ये कम ही देखने में मिला है। सही बात ये है कि महिलाओं को सामाजिक , शैक्षणिक और आर्थिक दृष्टि से स्वाबलंबी बनाए बिना उनको सांसद - विधायक बनाने से कुछ हासिल नहीं होगा क्योंकि आज भी  समाज के बड़े वर्ग में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के प्रति हिचक है। गत दिवस राज्यसभा में राजद के मनोज कुमार झा ने अपने भाषण में , यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता: ( जहां नारी की पूजा की जाती है, उसका सम्मान किया जाता है वहां देवताओं का वास होता है।) का उल्लेख करते हुए ठीक ही कहा कि उक्त सुभाषित हमारे संस्कारों का हिस्सा होने के बाद भी महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराध और घरेलू हिंसा के प्रकरण बढ़ते जा रहे हैं। हालांकि वे विधेयक के विरोध में बोले किंतु उनकी बात में वजन है और इसीलिए इस विधेयक को लागू करने की प्रक्रिया के समानांतर महिलाओं को उनकी न्यायोचित स्थिति प्रदान करने के लिए राजनीति से अलग हटकर बड़े सामाजिक आंदोलन की जरूरत है क्योंकि राजनीति की अपनी संस्कृति हैं। जिसका प्रमाण ये है कि वर्तमान परिदृश्य में  वसुंधरा राजे  , मायावती , उमाश्री भारती ,ममता बैनर्जी और महबूबा मुफ्ती जैसी किसी भी नेत्री ने अपने इर्द - गिर्द किसी अन्य महिला नेत्री को नहीं पनपने दिया । सोनिया गांधी लंबे समय से कांग्रेस की सर्वोच्च नेत्री हैं लेकिन पार्टी में उनकी बेटी प्रियंका को छोड़कर अन्य प्रभावशाली महिला दिखाई नहीं देती। वामपंथी दल भी इस बारे में पीछे हैं।  ममता और मायावती तो अपनी - पार्टियों की सर्वेसर्वा मानी जाती हैं किंतु उनके बाद दूसरे क्रमांक का नेतृत्व महिलाओं के पास नहीं होना अपने आप में बहुत कुछ कह देता है। इसलिए महिलाओं को संसद और विधानमंडलों में एक तिहाई सीटें देने संबंधी विधेयक पारित होने पर महिलाओं का उत्थान होने के प्रति आश्वस्त हो जाना सपने देखने जैसा है। यदि राजनीतिक दलों में ईमानदारी है तो वे बिना आरक्षण व्यवस्था लागू हुए ही महिलाओं का प्रतिनिधित्व सदन में बढ़ाने की उदारता दिखाएं । संसद में विधेयक पारित करवाने में कांग्रेस का सहयोग निश्चित तौर पर उल्लेखनीय रहा। भले ही उसने भी  मंडलवादी दलों के तुष्टीकरण के लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण का झुनझुना बजाया किंतु अंततः पक्ष में मतदान भी किया। ऐसे में सदन के बाहर यदि भाजपा और कांग्रेस इस मामले में भी साथ आएं तो बाकी पार्टियां भी बाध्य होंगी। हालांकि  इसके लिए योग्यता को मापदंड रखा जाना चाहिए अन्यथा सांसद और विधायक बनकर भी महिलाएं गूंगी गुड़िया बनकर बैठी रहेंगी । और तब महिला आरक्षण मजाक का विषय बनकर रह जायेगा। स्थानीय निकायों में आजकल पार्षद पति नामक एक नया संबोधन चर्चा में रहता है। इसलिए इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि सांसद और विधायक पति जैसे लोग पैदा न होने लगें।


-रवीन्द्र वाजपेयी

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