Saturday 27 October 2018

याचिका का मुख्य मुद्दा तो अछूता ही रह गया

सर्वोच्च न्यायालय में विराजमान सम्माननीय न्यायाधीशों के अनुभव, विधिक ज्ञान और निष्पक्षता पर संदेह किये बगैर भी ये कहना गलत नहीं होगा कि अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों में उसके द्वारा दिये गए अनेक फैसले समझ से परे होते हैं। इसका ताजा उदाहरण है सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा की याचिका पर गत दिवस दिया गया फैसला जिसमें श्री वर्मा की याचिका में उठाए मुद्दे को स्पर्श तक करने की जरूरत प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने नहीं समझी। उनकी ओर से प्रख्यात अधिवक्ता फली नरीमन का खड़ा होना इस बात का संकेत था कि याचिकाकर्ता पूरी तरह से लडऩे के मूड में हैं। श्री नरीमन अपनी बात सुने जाने पर जोर देते रहे लेकिन पीठ ने उसे बाद में देखने की बात कहकर सीवीसी को 15 दिन में सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश ए. के. पटनायक की निगरानी में श्री वर्मा पर लगे आरोपों की जांच करने का आदेश दिया। उल्लेखनीय है सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना की शिकायत पर सीवीसी द्वारा काफी समय से श्री वर्मा के विरुद्ध जांच की जा रही थी जिसका संज्ञान लेते हुए पीठ ने पहले 10 दिन और फिर विशेष अनुरोध पर 15 दिन का समय तय कर दिया लेकिन साथ में सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री पटनायक की निगरानी वाली व्यवस्था कर दी जिसका उद्देश्य जांच की निष्पक्षता बनाये रखना है क्योंकि सीबीआई में शीर्ष स्तर पर उठे विवाद में सीवीसी की भूमिका पर भी सवाल उठाये जा रहे हैं। लेकिन श्री वर्मा की याचिका में उन्हें छुट्टी पर भेजे जाने संबंधी आदेश की वैधानिकता को चुनौती देते हुए कहा गया था कि उनकी नियुक्ति चूंकि प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष की समिति द्वारा की गई इसलिये उनसे कार्यभार छीनकर कार्यकाल खत्म होने के पहले जबरन छुट्टी पर भेजे जाने संबंधी निर्णय अनधिकृत और अवैधानिक होने से रद्द करने योग्य है। उल्लेखनीय है ज्योंही श्री वर्मा और श्री अस्थाना के बीच विवाद सामने आया त्योंही केंद्र सरकार ने आधी रात के समय उन दोनों को अवकाश पर भेजने का निर्णय किया जिसका आधार सीवीसी की सिफारिश बताया गया। पहले श्री वर्मा और उनके बाद श्री अस्थाना ने उस आदेश के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली। लेकिन कल न्यायालय ने श्री वर्मा की याचिका पर सुनवाई करते हुए उनकी मुख्य मांग पर विस्तार से विचार करने के आश्वासन के साथ जो अंतरिम आदेश सुनाया वह याचिका से अलहदा है। इसलिए इसे याचिकाकर्ता के लिए राहत नहीं कहा जा सकता। जहां तक श्री अस्थाना की याचिका का प्रश्न है तो उसे तो न्यायालय ने सुना ही नहीं। इस फैसले से केवल एक बात तय हुई कि श्री वर्मा के विरुद्ध लंबित जांच सीवीसी को 15 दिन में पूरा कर न्यायालय को सौंपना होगा और उसकी निगरानी श्री पटनायक द्वारा की जाएगी जिससे सीवीसी कोई पक्षपात न कर सके। लगे हाथ सीबीआई के कार्यकारी निदेशक नागेश्वर राव पर भी बंधन लगा दिए गए किन्तु श्री वर्मा को छुट्टी पर भेजे जाने के अधिकार पर न कोई बहस हुई और न ही निर्णय। ऐसी स्थिति में मुख्य मुद्दा तो अनुत्तरित ही रहा जिससे प्रत्यक्ष न सही किन्तु केंद्र सरकार के कदम को परोक्ष रूप से तो समर्थन मिल ही गया। यदि न्यायालय श्री वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेजे जाने के फैसले पर स्थगन दे देता तो केंद्र सरकार की जबरदस्त किरकिरी होती किन्तु इसे लेकर केवल नोटिस जारी हुए। मान लें सीवीसी की जांच में श्री वर्मा दोषी निकल आए तब उनकी नियुक्ति और छुट्टी पर भेजे जाने की शक्ति को लेकर चल रही बहस दूसरा मोड़ ले लेगी और उनके द्वारा श्री अस्थाना के विरुद्ध शुरू की गई जांच भी दिशा से भटक सकती है। फिलहाल आगामी 15 दिन तो श्री वर्मा के लिए तनाव और निराशा भरे होंगे। श्री अस्थाना ने भी उन्हें अवकाश पर भेजे जाने को जो चुनौती दी है उस पर भी सर्वोच्च न्यायालय सम्भवत: अभी विचार नहीं करेगा और इस तरह अनिश्चितता बनी रहेगी। इस बीच राजनीति भी समानांतर चलती रही। काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दिल्ली और देश भर में श्री वर्मा की बहाली के लिए प्रदर्शन किए। राहुल का आरोप है कि श्री वर्मा चूंकि रॉफेल सौदे की जांच शुरु करने जा रहे थे इसलिये मोदी सरकार ने उनके विरुद्ध शिकंजा कसा लेकिन काँग्रेस अध्यक्ष को ये जानकारी कहां से मिली इसका खुलासा भी उन्हें करना चाहिये क्योंकि सीबीआई ने अधिकृत तौर पर इस बात का खंडन किया है। श्री अस्थाना और श्री वर्मा दोनों के प्रति किसी न किसी रूप में क्रमश: भाजपा और काँग्रेस की सहानुभूति जाहिर हो चुकी है। ऐसे में उन दोनों को कार्यभार से मुक्त करते हुए अवकाश पर भेजना प्रशासनिक दृष्टि से सहज निर्णय था जिसका उद्देश्य जांच में निष्पक्षता बनाए रखना था किंतु राजनीतिक दांवपेंच की वजह से मामला जबरन उलझ गया और सर्वोच्च न्यायालय भी उसी उलझाव में आ गया। बहरहाल अब अगले 15 दिन तक तो सीवीसी जांच करेगी। फिर रिपोर्ट न्यायालय को सौंपी जाएगी। उसके बाद मामले के निराकरण में कितना समय और लगेगा ये अनिश्चित है। क्या पता श्री वर्मा का कार्यकाल भी तब तक खत्म होने को आ जाए। इस प्रकरण से एक मुद्दा और उठ खड़ा हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय दूसरों को तो समय सीमा में काम करने का हुक्म दे देता है लेकिन राष्ट्रीय महत्व के तमाम मुद्दों पर फैसला देने के बारे में न्यायपालिका खुद के लिए कोई सीमा तय क्यों नहीं करती?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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