Wednesday 10 October 2018

विपक्षी एकता पर संकट के बादल

बसपा प्रमुख मायावती राजनीतिक सौदेबाजी में बहुत ही बेरहम हैं। लिहाज नाम की कोई चीज उनकी राजनीति में है ही नहीं। वे क्या कहती, क्या करतीं इसका अंदाजा दूसरी पार्टियां तो क्या खुद उनकी अपनी पार्टी तक में कोई नहीं लगा सकता। यही वजह है कि आज तक बसपा का स्थायी गठबन्धन किसी से नहीं हो सका। यहां तक कि अनुसूचित जातियों के बीच काम कर रही अन्य पार्टियों अथवा संगठनों के साथ भी उनका कोई तालमेल नहीं है। दलित समुदाय के कई नेता लंबे समय तक बसपा में रहने के बाद मायावती के एकाधिकारवादी रवैये से क्षुब्ध होकर बाहर आ गए। उप्र के स्वामीप्रसाद मौर्य इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। मायावती अपने राजनीतिक गुरु स्व.कांशीराम की तरह दलित समुदाय की हितचिन्तक कम अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के प्रति ज्यादा सतर्क रहती हैं। यही वजह है कि वे कब किसके साथ होंगी और कब किसके विरुद्ध हो जाएंगी कह पाना कठिन है। 1999 में अविश्वास प्रस्ताव पर अटल जी की सरकार को समर्थन का आश्वासन देने के बाद लोकसभा में भाषण के दौरान अचानक उन्होंने कांग्रेस को नागनाथ और भाजपा को सांपनाथ बताते हुए मतदान से दूर रहने की घोषणा कर दी जिसके कारण सरकार गिर गई। इसके पहले उप्र में भी भाजपा के साथ उनका गठबंधन कई मर्तबा उनकी जि़द और अस्थिर सोच के चलते टूटा। 2014 के लोकसभा और 2017 के उप्र विधानसभा चुनाव में बसपा का सूपड़ा साफ  होने के बाद मायावती ने पुराने दुश्मन समाजवादी पार्टी से निकटता बढ़ाने के संकेत दिये। कई उपचुनावों में बसपा ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारकर भाजपा को हरवा दिया। उसके बाद ये उम्मीद प्रबल हो गई कि 2019 के महासमर में मोदी विरोधी महागठबंधन आकार ले सकेगा और मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा के आगामी चुनावों में  भाजपा को हराने के लिए विपक्ष महागठबंधन बनाकर मैदान में उतरेगा। कांग्रेस ने बसपा और सपा के साथ चर्चा भी शुरू कर दी किन्तु मायावती ने एक बयान देकर उस मुहिम को फुस्स कर दिया। मप्र और राजस्थान में अकेले और छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की पार्टी से गठबंधन करते हुए उन्होंने कांग्रेस को जोरदार झटका दे दिया। उनकी देखा-देखी समाजवादी पार्टी ने भी काँग्रेस को खरी-खोटी सुनाते हुए अलग होकर चुनाव लडऩे की राह पकड़ ली। मायावती ने तो अपने प्रत्याशी घोषित करने भी शुरू कर दिए। उधर अखिलेश ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि जिन्हें काँग्रेस की टिकिट नहीं मिले तो सपा की टिकिट पर लड़ लें। इससे स्पष्ट हो गया कि भविष्य में भी महागठबंधन का होना अधर में है। गत दिवस मायावती ने भीख न मांगने जैसा बयान देकर कांग्रेस को फिर से चिढ़ाने का काम किया। कुल मिलाकर बसपा प्रमुख ने अपने स्वभाव और कार्यशैली में कोई परिवर्तन नहीं होने का प्रमाण देते हुए ये बता दिया कि उन्हें समझ पाना किसी के बस में नहीं है। मप्र काँग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ जैसा अनुभवी राजनेता तक मायावती की माया नहीं समझ सका। ये बात भी सही है कि अखिलेश यादव भी इन चुनावों में काँग्रेस से अलग लडऩे का साहस मायावती को देखकर ही जुटा सके।  ऐसा लगता है मायावती और अखिलेश दोनों ने राहुल गांधी के रास्ते में कांटे बिछाने का काम शुरू कर दिया है। उन्हें पता है कि इन तीन राज्यों में काँग्रेस से उपकृत होने की महंगी कीमत उन्हें उप्र में काँग्रेस को लोकसभा की ज्यादा सीटें देकर चुकानी पड़ेगी। ये बात तो राजनीति का न्यूनतम ज्ञान रखने वाला भी जानता समझता है कि बसपा और सपा की बैसाखी के बिना उप्र में सोनिया गाँधी और राहुल भी चुनाव नहीं जीत सकेंगे। यही सोचकर बुआ-भतीजे ने फिलहाल काँग्रेस से दूरी बनाये रखने की रणनीति अपनाने का निश्चय किया। इस प्रकार महागठबंधन का भविष्य एक बार अनिश्चितता में फंसकर रह गया है। हालाँकि उक्त तीन राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद ही 2019 की रणभूमि नये सिरे से सजेगी लेकिन मायावती और अखिलेश यादव द्वारा दिए इन झटकों से ये तो स्पष्ट हो ही गया कि बसपा, सपा एवं दूसरे क्षेत्रीय दल भाजपा को हराने के लिए भले लालायित हों किन्तु काँग्रेस से भी उन्हें कोई लगाव नहीं है। दरअसल वे समझ गए हैं कि काँग्रेस के कमजोर रहने पर ही उनका अस्तित्व टिका हुआ है। मायावती और ममता बैनर्जी जैसों को तो ये लगने लगा है कि 25-30 सीटों के बल पर भी प्रधानमन्त्री बना जा सकता है लेकिन वह तभी सम्भव हो सकेगा जब राहुल गांधी को ताकतवर होने से रोका जाए। बहरहाल उप्र के कुछ उपचुनावों में विपक्षी एकता का अनौपचारिक परीक्षण सफल रहने के बाद ये उम्मीद थी कि मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में महागठबंधन का पूर्वाभ्यास हो जाएगा लेकिन पहले मायावती और फिर अखिलेश ने जो झटका दिया उससे विपक्षी एकता के गुब्बारे की हवा निकलती दिख रही है। इसके लिए काँग्रेस का अहंकार जिम्मेदार है या मायावती की चालाकी और अखिलेश यादव की अपरिपक्वता, ये तो अभी नहीं कहा जा सकता किन्तु इससे भारतीय राजनीति में बढ़ रही स्वार्थपरता एक बार फिर उजागर हो गई है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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